मैं अपने घर का बादशाह हूँ


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उपन्यास सम्राट प्रेमचंद अत्यंत स्वाभिमानी प्रकृति के व्यक्ति थे । उन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रस्तावित राय साहब की उपाधि लेने से इनकार कर दिया था, और कहा था । “मैं जनता का लेखक हूं, और जनता के लिए ही लिखते रहना चाहता हूं । रायसाहब बनने के बाद मुझे सरकार के लिए लिखना पड़ेगा । जो मुझे कतई स्वीकार नहीं है । “

इस स्वाभिमानी लेखक ने कभी किसी के सामने बेजा सिर नहीं झुकाया । जीवकोपार्जन के लिए प्रेमचंद् एक स्कूल में अध्यापन करते थे । एक बार उनके स्कूल में शिक्षा विभाग के एक अधिकारी निरीक्षण करने आए प्रेमचंद्र ने उनका अभिवादन किया और अधिकारी द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों के उत्तर विनम्रता से दिए । निरीक्षण उपरांत छुट्टी होने पर प्रेमचंद्र घर आ गए भोजन करने के बाद भी दरवाजे के बाहर बैठकर अखबार पढ़ने लगे ।

munshi premchand

कुछ देर बाद वही अधिकारी अपने कार से उनके घर के सामने से निकले अधिकारी ने प्रेमचंद्र को देखा तो मन में सोचा कि मुझे नमस्कार करेगा किंतु प्रेमचंद्र अपने स्थान पर बैठे रहे और अखबार पढ़ना जारी रखा । यह देख कर अधिकारी के अहंकार को ठेस लगी कुछ दूर जाकर उसने कार रुकवाई और चपरासी को भेजकर प्रेमचंद्र को बुलाकर उसने कहा ।

तुम बहुत घमंडी हो, तुम्हारा अधिकारी तुम्हारे दरवाजे के आगे से गुजर रहा है और तुम सलाम भी नहीं करते । प्रेमचंद्र बोले “मैं जब स्कूल में रहता हूं तब सरकार का नौकर हूं उसके बाद में अपने घर का बादशाह हूं ।” प्रेम चंद्र के जवाब में अधिकारी को निरुत्तर कर दिया और वहां से चले गए अधिकारी वर्ग का सम्मान अच्छी बात है किंतु आत्म सम्मान की रक्षा करनी चाहिए ।


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