पाल वाली नाव (भाग – 01)


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मैं नाव के अगले माईन पर बैठा था और मेरी नजरें जलकुंभी के फूलों पर टिकी थी जो धीरे-धीरे मेरे पास आती जा रही थी । करमी के फूलों की पृष्ठभूमि में उसकी खूबसूरती और बढ़ गई थी। अभी मैंने उसे तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि पानी के बहाव के साथ वह कुछ और आगे बढ़ गया। मैं नाव पर दौड़ते हुए पीछे आया और उसे पकड़ कर फूल तोड़ लिए। पहली बार उसकी बनावट को गौर से देखने लगा। आज सुबह से ही पुरवा हवा कुछ तेज ही चल रही थी। यद्यपि अभी मध्याह्न नहीं हुआ था परंतु भादो की चिलचिलाती धूप में एक जगह ही रूके रहने के कारण सूरज की उष्णता प्रबलतर प्रतीत हो रहा था। मेरे शरारती(शायद नहीं) गैंग के सभी सदस्य करमी की लत्ती को काटने में व्यस्त थे। सफाई से काटना, उनके मुट्ठी बनाकर अच्छे और तेजी से बांधना इसी में उनका सौंदर्यबोध झलकता था। गैंग का एक सदस्य लग्गी के सहारे दक्षता पूर्वक नाव को धीरे- धीरे इधर-उधर करके उनको अनुकूल स्थान मुहैया करा रहा था।

मैं बात कर रहा हूं बिरौल,गौरा-बौराम और कुशेश्वर के साझे चौर की और समय था पिछले सदी के अंतिम दशक का प्रारंभ। यह वह जगह था जहाँ कोसी, कमला, बलान के सम्मिलित जल का ठहराव था। बांधें कुछ आगे तक में ही निपट चुकी थी। पानी के उतार-चढ़ाव के साथ यहां के लोगों के चेहरे का रंग जुड़ा था। प्रतिवर्ष के बाढ़ ने यहाँ के सभी पेड़ों को सुखा डाला था। खाली-खाली सा बाध जल जमाव के कारण और भी दैत्याकार लगता था। यहां की ज्योग्राफिया हर साल बदल जाती थी। पुराने फोड़ियों(प्राकृतिक नालियाँ) का भर जाना एवं नई फोड़ियों का बनना आम था। हमारे गैंग का बाढ़ में नई फोड़ियों की तलाश एवं उसके मार्ग को खोज निकालना एवं उसकी उदधोषणा प्रिय शगलों में से एक था। यह जो हमारा गैंग था इसमें मुझे छोड़कर सभी की उम्र तकरीबन दस से पंद्रह के बीच थे। यहाँ धान के डूब जाने के बाद मवेशियों का मुख्य भोजन यह करमी की लत्ती ही थी और उसके बाद जलकुंभी जिसे केचुली के नाम से जाना जाता था। प्रत्येक घर में एक नाव एक अपरिहार्य आवश्यकता थी। वैसे तो गैंग में आवाजाही की प्रक्रिया कठोर थी बाहर वालों के प्रति उनका व्यवहार बेहद रूखा और उपहासजनक था फिर भी मुझे बेहद आसानी से इस में प्रवेश मिल गया था। मैं अपने बालपन में किसी गैंग का सदस्य था या नहीं यह मुझे ठीक से याद नहीं है पर अपने युवावस्था के प्रारंभिक समय में मैंने यही गैंग ज्वाइन किया था जो मुझे काफी प्रीतिकर था। बिना काठी के घोड़े की सवारी, घोड़े की पूंछ से बाल तोड़ कर फानी बनाना और फिर बगेरी का शिकार करना वो भी बल्क में, तैरने के हर रूप सीखना, नाव चलाना, मछली का अंबार खड़े कर देना। ना जाने कितनी मीठी यादें हैं।

बहरहाल…. ऊपर बादल के छोटे-छोटे टुकड़े गतिमान थे जिस से धूप और छांव बारी-बारी से हमें अपने आगोश में ले रहा था। उनका नर्तन देखना सुखद था। धूप आती तो जलीय घास और मिट्टी सने पानी का रंग चटक हो जाता। छाया होती तो बाढ़ का सौंदर्य निखर कर द्विगुणित हो जाता था। सभी पीताभ लगने लगता।

जलकुंभी के फूल को देखते हुए मैंने उन सबसे पूछा- “अच्छा तुम लोग लड़की को प्रपोज करते समय यही फूल देते होंगे।” किसी ने कुछ भी नहीं समझा। जब मैंने उसे फरछिया कर बताया तो वे एकदम से मुझ पर एक साथ गालियों की बौछार कर दी और एक-दो धौल भी जमा दिया। खुशी की एक तरंग गुजर चुकी थी। सभी फिर घास काटने में मशगूल हो गए। यहाँ प्रेम शादी- विवाह के बाद का मसला था। तबतक विवाह पूर्व प्रेम का कोई कांसेप्ट डेवलप नहीं हुआ था यहाँ।

 

खैर क्षितिज के पश्चिमोत्तर कोने से बादल ऊपर उठते जा रहे थे। जैसे – जैसे बादल आकाश को आच्छादित कर रहे थे वैसे- वैसे हवाओं की गति बढ़ती जा रही थी। बाध की सभी नावें गांव का रुख कर लिया था। हमलोगों ने भी काटी गई सभी घास को व्यवस्थित कर लिया था। बस एक ही काम बांकी रह गया था। संठी में बांधकर यहाँ – वहाँ फेंके गए बंसी को समेटने का। जिसे आते समय इधर-उधर मछली के आस में फैला दिया था हमलोगों नें। जिस का हिसाब-किताब मैं ही रखता था। लौटते समय खोज – खोज कर मैं उस बंसी को उठाकर नाव में रखता जाता था। अब तक छ: मछलियाँ मिल चुकी थी। सभी मझोले पाईन (साइज) का था। चार बड़ी गड़ई तो दो छोटी सौराठी। मेरी समझ से आज का जतरा अच्छा रहा था परंतु एक बंसी नहीं मिल पा रहा था। यद्यपि मैंने उसे करमी के झोंझ में रखा छोड़ा था जिससे वह बहकर दूर नहीं जा सके परंतु लाख चेष्टाओं के बाद वह नहीं मिल पा रहा था। समय के साथ सभी की आंखों में एक विशिष्ट चमक दिखने लगी थी। मैं उनके भावों को समझकर हंसने लगा और वर्षा की आशंका जताते हुए जल्दी घर चलने को कहा। पर गैंग में केवल उसकी चलती थी जिसके हाथ में लग्गी होती थी। वे लोग और भी जोड़-शोर से बंसी को ढूंढने लगे। आने वाले नावों में सवार हम लोगों को चेताया और घर पर चलने को कह रहे थे पर हमारा गैंग इन बातों को सुन ही कह रहा था। अनायास मुझे नाव से बीस मीटर दक्षिण-पश्चिम की ओर बंसी की संठी दिखाई दी। मैंने सभी को चिल्लाते हुए दिखाया। नाव उधर मोड़ दी गई थी। अगले ही पल हम वहाँ थे। अगले माईन पर बैठे होने के कारण सबसे पहले वह मेरी ही पहुंच में आया। मैंने उस दो फुट वाले संठी को उठाया ही था कि मछली के झाड़ से छपाक की तेज आवाज के साथ मछली हमारी ओर उछली। मेरे हाथ से संठी छुट गई और मछली बंसी सहित नाव में आ गिरी। लगभग डेढ़ किलो से ऊपर की कांटी मछली था। आनंदातिरेक में हम लोग चिल्लाने लगे। लगता था बैसाख में किसी तरह पोखर – खत्ते में बच गया था। हम सभी प्लानिंग करने लगे अन्य दिनों की भांति घूर में पकाकर बारिक प्याज, हरी मिर्च, लहसुन और कच्चे तेल से इसका सन्ना(चोखा) बनाकर आज नहीं खाना है (यद्यपि मुझे बहुत पसंद था)। आज तो तेज मिर्च वाली झोर वाली मछली बनाना ही होगा मां को।

हम लोग घर पहुंच चुके थे। हवा तूफान का रूप ले लिया था। सफदर हाशमी की कविता में वर्णित हड़बड़ी चारो ओर पसरी हुई थी। नीचे हवाएं पूरब से पश्चिम को चल रही थी और ऊपर स्याह काले मेघ पश्चिम से पूरब को। उन काले स्याह मेघों के बीच श्वेत शफ्फाफ पंक्तिबद्ध बगुले उड़े चले जा रहे थे। मैंने सबों को दिखाया पर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया। यह दृश्य मेरे मानस पटल में जड़ गया। जिसे बाद के दिनों में मैंने पेंटिंग में उतारा था। अब ना तो उतने काले बादल दिखते हैं और ना ही बगुलों का वैसा झुंड।

इतनी में घर के आगे के पोखर के मुहार पर स्थित पुराना जामुन का पेड़ उखड़ कर धराशाही हो गया। मेरे दिमाग में गूंजा- “पेड़ उखड़ता है अपने प्रतिरोध के कारण। तूफानों को क्या लेना-देना है पेड़ों को उखड़ने से। वे तो अपनी रौ में बहे जा रहे होते हैं। तूफानों के साथ राजी हो जाने वाले छोटे पौधे तूफानों के साथ झूमते भी हैं और तूफान गुजर जाने के बाद और भी ज्यादा जीवंत उठते हैं। “उन दिनों मैं ओशो के प्रभाव में था। मैं उस तूफान के साथ संगति बैठाने को मचल उठा। घास और मछली को जब सही जगह रख कर सभी दरवाजे पर जुटे तो मैंने उन्हें मन की बात बताई। कुछ तो झटपट तैयार हो गए तो कुछ ने अपने माता-पिता का डर दिखाया। हम अभी इस मुद्दे पर सलाह मशविरा कर ही रहे थे कि दरवाजे के कोने से शंख ध्वनि सुनाई दी जिसका घोष अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक था जहां छोटका कक्का पूजा कर रहे थे। सभी की नजर उस ओर उठी और उनकी नजर स्वीकृति में नीचे की ओर झुकी। शंख ध्वनि हमारे नए अभियान का आगाज था। छोटका कक्का भी बच्चा होने को मचल उठे थे या बच्चों के खतरनाक मिशन को अभिभावकत्व प्रदान करना उनका मकसद था मैं कह नहीं सकता। “चलिए आज आपको पाल वाली नाव चलाना सिखाता हूं”- झटपट पूजा समाप्त करते हुए उन्होंने कहा।

धड़ाधड़ नाव पर दो-तीन लग्गियाँ, बड़ी-छोटी लाठियां, पतवार, रस्सियाँ, धोती और बड़े चादर आदि तमाम जरूरी चीजें रखी जाने लगी। हम नौ जने नाव में सवार थे। लग्गी मैंने थाम ली थी पूरा मुहल्ला पोखर के मुहार पर खड़ा होकर हमें नहाने खाने के लिए कह रहा था। इस विकट समय की दुहाई दे रहा था। और मैं पूरे दम लगा कर लग्गी को पीछे की ओर ठेला और हँसते हुए हमलोग उनलोगों से दूर होते चले जा रहे थे।

-क्रमशः   पाल वाली नाव (भाग – 02)


लेखक : निशिकांत ठाकुर

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