सब कुछ सही था. हम अपने धुन में खोये हुए जयपुर के प्रसिद्ध किले को देखने जा रहे थे. रास्ते में बाइक पर पीछे बैठ कर जल महल को देखने का आनंद कुछ अलग ही तरीके का होता है, तो मैं उस आनंद के सागर में गोते लगा रहा था. गुलाबी सर्दी पुरे….
जयपुर को अपने में लपेटने की तैयारी कर रही थी जिसकी शुरुआत उसने मौसम में खुशबू बिखेरकर कर दी थी, मैं जिसमे मदहोश सा हुआ जा रहा था.
अचानक हमसे कोई 50 मीटर की दुरी पर एक आवारा कुत्ता से टकरा कर एक बाइक सीधे पलट गई. खाली सड़क पर बाइक काफी स्पीड में थी उसे देखकर लगा जैसे अब किसी का बचना मुश्किल है. तभी एक बच्चे के चिल्लाने का आवाज ने हमारा ध्यान खींच लिया. हम भी किसी तरह भागते हुए वहां पहुचे. तब तक कुछ लोग भी वहां पहुंच गए थे. लोगों ने बच्ची को गोद में उठा रखा था और उस बेचारी का दर्द के मारे बुरा हाल हो रहा था.
जैसा की आमतौर पर होता है सारे लोग कह रहे थे की बच्ची को हॉस्पिटल ले जाओ लेकिन कोई ले जाने को तैयार नहीं था. अब हमने उसके पापा को देखा की वो एक तरफ लुढके पड़े थे और असहाय नजरो से देखे जा रहे थे तो न जाने कहाँ से मुझमें भी हिम्मत आ गयी. मैंने बच्ची को गोद में उठाया और अपने बाइक पर बैठ गया. बस मैंने इतना सुना कि किसी ने बोला था नाले पार डॉक्टर का क्लिनिक है.
अब दर्द झेलने की बारी मेरी थी. दर्द से बच्ची चीखती जा रही थी और मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि इसे चुप कैसे करवाऊं. हिम्मत कर मैंने उसे अपने गोद में उठा तो लिया था लेकिन नए इलाके में डॉक्टर को ढूँढना काफी कठिन जान पड़ रहा था. रोड के दोनो साइड होटल के अलावा कुछ दिख भी नहीं रहा था और नाले की तो बात ही जाने दीजिए.
मैं किसी तरह उसके मन को बहलाने के लिए उसके सर पर हाथ फेरने लगा. बच्ची को कुछ राहत मिली तो मैंने नाम पूछा. ” प्रतीक्षा ” नाम बताया उसने तो दिल को राहत मिली की चलो अब कहीं भी हॉस्पिटल में जायेंगे, “प्रतीक्षा” के घर का पता चल जायेगा. फिर बताया उसने की क्लास थ्री में पढ़ती है और भैया बाइक चला रहे थे. उसकी आखों से आंशुओं कि धारा बही जा रही थी.
सबसे दिल झकझोड़ने वाली बात थी कि वो खून से लथपथ हो मेरी गोद में पड़ी थी और उसे चिंता थी कि पापा मारेंगे. जब भी मैं कुछ पूछता तो वो ये बात बताना नहीं भूलती थी. किसी तरह मैं उसे समझाने की कोशिश करते हुए एक डीस्पेंसिरी पर पहुँच गया. उसकी मरहमपट्टी करवाई और एक चाकलेट ला कर दिया. तब तक हमें डॉक्टर से पता चला की वो इस बच्ची को जानता है. प्रतीक्षा का घर उसी कॉलोनी में था और वो भी डॉक्टर अंकल को पहचान गयी.
अब हमारी विदा लेने की बारी थी और चूँकि हम जयपुर घुमने आये थे तो डॉक्टर साहेब ने भी हम लोगो को आशवस्त करते हुए विदा किया कि वो खुद “प्रतीक्षा” को घर पहुंचा देंगे. भारी मन से बच्ची को डॉक्टर के पास छोड़ हम जयपुर भ्रमण पर निकल गए. हाँ प्रतीक्षा याद आती रहेगी, उसके टप-टप बहते आशुं, और हाँ एक्सीडेंट के बाबजूद पापा का डर. बचपन का भोलापन और वो पापा का डर.