Category: संस्मरण

  • साहित्यालोचन की दिशा

    साहित्यालोचन की दिशा

    साहित्य ज्ञान की सौंदर्यबोधात्मक विधा है । इसी मामले में वह ज्ञान-विज्ञान की अन्य विधाओं से अलग है । “सौंदर्य” उसका भेदक गुण है । इसलिए साहित्य पर जब भी विचार हो तो प्राथमिकता के साथ उसके सौंदर्य पर, रस पर, आनंद पर विचार होना चाहिए, क्योंकि साहित्य में क्या कहा गया है, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है कैसे कहा गया । “कैसे” में ही कला है । कला पर विचार करने का अर्थ है सौंदर्य के उन रूपों को उद्घाटित करना जिनसे पाठक प्रभावित हुआ है । निश्चय ही इसके अंतर्गत विचार का सौंदर्य भी आयेगा, पर वह प्रधान तत्व नहीं होता, क्योंकि विचार समय के साथ तीव्रता से बदलते हैं, जबकि सौंदर्यबोधी तत्वों में स्थायित्व होता है । विचार जल्दी धूमिल हो सकते हैं, किंतु भाव-सौंदर्य अधिक टिकाऊ होता है । वही तो साहित्य का प्राण है । उसी के आधार पर जो कल्पना जगती है, वह सरस और संश्लिष्ट बिंबों, प्रतीकों आदि का निर्माण करती है । भाव की उमड़न ही लय की सृष्टि करती है । इसीलिए महाकवि तुलसीदास ने साहित्य में भाव और विचारों के संबंध को लेकर सारगर्भित पंक्ति लिखी है :–

    हृदय सिंधु मति सीप समाना

    हृदय समुद्र जैसा और बुद्धि सीपी जैसी होती है श्रेष्ठ साहित्य में । साहित्य में हृदय की बात होती है । “तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन !” हृदय यानी भाव, यानी रस, यानी सौंदर्य । इसलिए साहित्य में सौंदर्य को छोड़ विचार पर विचार करना, समुद्र को छोड़ सीपी को लेकर उड़ जाना है । साहित्य में रस में लिपटी अनेक चीजें आती हैं । साहित्य में इतिहास मिलता है, लेकिन साहित्य इतिहास नहीं है । उससे समाज की जानकारी मिलती है, लेकिन वह समाजशास्त्र नहीं है । उसमें दर्शन रहता है, लेकिन वह दर्शनशास्त्र नहीं है । उसमें मनोविज्ञान की गहराई मिलती है, लेकिन वह मनोविज्ञान नहीं है । वह सबसे पहले सौंदर्यबोध जगानेवाली विधा है, इसके बाद और भी बहुत कुछ है । हिंदी आलोचना का दुर्भाग्य रहा है कि उसने “और कुछ” पर ही अधिक ध्यान केंद्रित किया है । आचार्य शुक्ल ने हिंदी की सम्यक आलोचना की जो आधारशिला रखी, उसपर इमारत नहीं खड़ी हो सकी । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने इस काम को आगे बढ़ाया मुख्य रूप से कबीर के प्रसंग में । निराला के संदर्भ में रामविलास शर्मा ने उल्लेखनीय काम किया । अनेक आधुनिक कवियों पर नामवर सिंह की देन बहुत महत्वपूर्ण है । इन बातों को ध्यान में रखते हुए मैं कहना चाहता हूँ कि इस दिशा में हिंदी आलोचना के द्वारा जो काम होना चाहिए नहीं हो सका । हिंदी आलोचना विचारों में ज्यादा उलझी रही । आज का दौर तो विचारों पर ही टूट पड़ा है । समय समय पर यह चिंता मैं व्यक्त करता रहा हूँ । एक बार तो विद्वानों की महती सभा में भी मैंने इस दिशा में सबका ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की थी । उस प्रसंग का उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ –

    बात आज से लगभग तीस वर्ष पहले की है । पटना कॉलेज के सेमिनार हॉल में महाकवि जयशंकर प्रसाद पर एक गोष्ठी आयोजित हुई थी, जिसमें एकमात्र वक्ता गुरुवर डॉक्टर नामवर सिंह थे । आयोजक थे गुरुदेव डॉ. नंदकिशोर नवल । पटने में जब भी नामवर जी की सभा होती थी, तब पटना के साथ ही आसपास के क्षेत्रों से साहित्यकार और साहित्य प्रेमी उनका भाषण सुनने इकट्ठे हो जाते थे । उस दिन की सभा में भी खचाखच भीड़ थी । नामवर जी ने नवल जी से कहा कि मुझसे पहले किसी एक वक्ता से बोलवाइए । नवल जी सोचने लगे कि अचानक उन्हें मेरा ध्यान आया । मेरे पास आकर बोले–मटुक जी, तैयार हो जाइए । प्रसाद पर एक संक्षिप्त व्याख्यान आपको देना है । सुनते ही मैं नरभसा गया — सर, एकाएक कैसे ? मुझे सूझ ही नहीं रहा है कि मैं क्या बोलूंगा !

    कामायनी पर आपने शोध किया है । बहुत बातें आपको याद होंगी । आप उसी पर बोल दीजिए ।

    मगर सर, मुझे तो कुछ भी याद नहीं आ रहा है । लेकिन विचार का समय नहीं था । गुरु की आज्ञा का पालन होना ही था । गुरुवर नामवर की सभा में बोलना मेरे लिए गौरव की बात थी, चिंता सिर्फ इसी बात कि थी कि जिस तैयारी के साथ मैं बोलना चाहता था, वह नहीं थी ।

    मैं बोलने खड़ा हुआ । क्या बोला, उतना तो याद नहीं, न उसकी जरूरत है । लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है, मैंने कहा था —- सौंदर्योद्घाटन की दृष्टि से हिंदी आलोचना दरिद्र है और वह भी आप जैसे विलक्षण प्रतिभाशाली आलोचक के रहते ! मुक्तिबोध बहुत बड़े कवि हैं और आलोचक भी । उन्होंने कामायनी पर जब किताब लिखी तो आशा थी कि वहाँ कामायनी के काव्य सौंदर्य की झलक मिलेगी, लेकिन उन्होंने कामायनी के विचार पर ही विचार किया । रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज आलोचक ने भी… दिग्गज शब्द से मुझे त्रिलोचन की एक कविता याद आ गयी, जो उन्होंने रामविलास जी पर लिखी थी—

    शर्मा ने स्वयं अकेले

    बड़े बड़े दिग्गज ही नहीं हिमाचल ठेले

    कोलतार ले-लेकर ऐसा पोता

    बड़े-बड़े कवियों की मुखश्री लुप्त हो गयी !

    रामविलास जी ने जिसको पसंद किया, उसको ऊपर उठा दिया । जिसको नापसंद किया, नीचे गिरा दिया । ऐसे दिग्गज की नजर पर भी कामायनी नहीं चढ़ी । और मेरे समर्थ गुरु नामवर जी ने भी कामायनी के सौंदर्य पर विस्तृत प्रकाश नहीं डाला । गुरुदेव ने अपने भाषण में इस तथ्य को स्वीकार किया और कहा कि विचारधारा की लड़ाई में घास-फूस काटने में वक्त निकलता चला गया । मेरी इच्छा है कि नयी पीढ़ी के प्रतिभाशाली युवा इस काम को अपने हाथों अगर ले सकें तो हिंदी आलोचना को एक नयी दिशा मिले । प्रतिभाशाली से मेरा तात्पर्य ऐसे युवाओं से है जिनके पास काव्य की पक्की समझ के साथ एक जानदार भाषा भी हो ।


    आलेख : मटुकनाथ चौधरी

    ( सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष हिंदी, पटना विश्वविद्यालय )

  • पूरा बरसात बिना मछली के कौर नहीं उठता था

    पूरा बरसात बिना मछली के कौर नहीं उठता था

    मूसलाधार बारिश हो रही थी । रह-रह कर बिजली कड़क जाती । यह आषाढ़ की पहली झमटगर वर्षा थी । मैं बिस्तर पर लेटे-लेटे सुबह होने का इंतजार कर रहा था क्योंकि यह अपने तरह की विशेष सुबह लाता । सभी नदी-नाले, चौर – चांचड़ इससे भर जाते । यहाँ से हम लोग बरसात की शुरुआत मानते थे । अगली सुबह से मछली पकड़ने का एक नया व्यवसाय सबों को अपनी गिरफ्त में ले लेता था । जिधर देखो उधर सभी मछली मारने के उपक्रमों में दिखते । इस बार मैं चुकना नहीं चाहता था । रात काटे नहीं कट रही थी । ऐसे ही समय के लिए मैंने ट्यूशन से बनाए पैसों से एक “अंता” खरीद रखा था । उस समय ट्यूशन पढ़ाना एक फैशन था । सभी पढ़ाते थे । लोग ग्यारहवीं में गए नहीं कि मैट्रिक को ट्यूशन पढ़ाने लगे । अभिभावकों पर निर्भरता कम ही थी । हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा । खैर….. “अंता के जीभिया” को आजमाने का समय आ गया था । ये वैसी वर्षा चल रही थी जिससे चौर को उलट जाने की पूरी संभावना थी । सभी जल क्षेत्र सहबंधन से जुड़ जाते । जिससे मछलियाँ पूरे बाध में छितरा जाती । मछली में दिलचस्पी रखने वाले सभी ऐसी पहली वर्षा का इंतजार करते थे । अभी सुबह के साढ़े तीन ही हुए थे । पर मुझसे बिस्तर पर पड़े रहा नहीं जा रहा था ।

    Must Read : बदरंग होता बसंत 

    मैं एक टार्च ओर कुदाल लेकर घर के पिछवाड़े गया । देखा खेतों से पानी एक धारा बनाकर पोखर में गिरते जा रहे हैं और पोखर का तल उपड़ उठता जा रहा है । मैंने धार को टार्च की रौशनी में ध्यानपूर्वक देखना शुरू किया । मुझे धार के उल्टा चढ़ते हुए “सिंघिन” मछली दिखी । दिल बाग-बाग हो गया । ये बस आज का ही खेला – बेला था । शाम होते – होते सभी सरपट हो जाना था । मै जल्दी-जल्दी कुदाल से ऊँची एवं मजबूत मेड़ बनाना शुरू किया। वर्षा भी मुझे रोक नहीं सकी। एक उमंग था जल्दी से जल्दी “अंता” लगा लेने का और अधिक से अधिक मछली पकड़ने का। मछलियाँ आँखों के सामने से भागी जा रही थी । तकरीबन एक धंटे में मैंने टार्च की रौशनी में सफलतापूर्वक पोखर की ओर मुँह करके अंता को लगा दिया था और घास-फूस से उसे सुरक्षित और सुसज्जित कर दिया था । धार भी पूरे “अंता” से होकर गुजर रहा था । काम खत्म ।

    Must Read : जब पहली बार मेरा परिचय “पेपर लीक” शब्द से हुआ

    मैं वापस अपने रूम में आकर कपड़े बदले । धीरे-धीरे बुनछेक होने लगा था और सुबह का उजाला अपना अस्तित्व कायम करने को प्रयासरत हो चला था । मैं भी एक लाठी और गमछे को उठा ब्रह्मोत्तर की तरफ चल दिया । अभी खेत में उतरने को सोंच ही रहा था कि बिल्कुल किनारे उस झलफले में ” सुंह” पानी में हिलता- डुलता नजर आया । कौन सी मछली है नहीं पहचान सका । लेकिन तबतक शायद मछली ने भी मुझे देख लिया । पीछे की ओर उलटी । उसकी विशालता का अनुभव हुआ। अपना शिकार कौन छोड़ता है भला । आगे-आगे मछली पीछे-पीछे सधे कदमों से मैं । लेकिन वह मेरी पहुँच से आगे चल रही था । मेरी आँखें उसपर जमीं थी । उजाला इतना फैल चुका था कि खेतों के ठेहुने भर पानी में मछली पूरी तरह दिख रही थी पर पहचानी ना जा रही थी । आकाश में काले बादल इतने नीचे लग रहे थे मानों हाथ उठाकर पकड़े जा सके । एक बार तो लगा मछली हाथ ना आएगी। अवसर नहीं मिल रहा था । तभी मछली आगे वाले मुंगौटी भरे खेत में उसने प्रवेश किया । उसकी गति कुछ धीमी पड़ी । मैं दो धाप में ही उसके पास पहुँच गया और समधान कर मछली पर लाठी का प्रहार किया । मछली चोट खाकर पानी के उपड़ उछली । मैं लपका । परंतु मेरे हाथ से फिसलकर वही इधर-उधर हो गई । ठीक उसी समय झीसी भी शुरू हो गई । मैं पानी से उठा । गहरी निराशा हुई । शायद शिकार अब ना हाथ आए । तभी बायीं तरफ कुछ हलचल सी लगी । मैं अंदाजे से ही जबरदस्त लाठी का प्रहार किया और उस जगह पर लोट गया । पता नहीं कैसे दाहिने हाथ में उसकी गर्दन आ गई । मैं उसे तली में दबाए-दबाए दूसरे हाथ से भी उसकी गर्दन को जकड़ा । फिर थोड़ी देर बाद संतुलित होकर उसे उठाया । भर जाँघ की “बोआरी” । स्वयं अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था । मछली फिर फरफरायी । छुटते – छुटते बची । कलेजा बुरी तरह खुशी से धड़क रहा था। पानी के बीच भारी मशक्कत से मछली को गमछे में लपेट पाया । लाठी वहीं छोड़ मैं धीरे – धीरे जब गाछी में पहुँचा तो मेरा पोर-पोर विजेता भाव से भरा था । मैं पहले उसे अनावृत किया फिर गर्दन पकड़ के लाने लगा, जिससे अधिक से अधिक लोग देख सकें । मद ने मेरी चाल को धीमा कर दिया था । जिसने भी देखा उसका मूँह खुला का खुला रह गया । लोग उसके वजन का अंदाजा लगा रहे थे । जिसने भी देखा वे सभी ऐसे ही शिकार की आशा में लाठी, दोक्कन लेकर बाध में पिल गए । मैं मछली लेकर घर की ओर आया कि दरवाजे पर ही सबों ने घेर लिया और प्रश्नों की बौछार कर दी । इस हुलमालि ने पिताजी को भी जगा दिया । पिताजी ने हुक्म दनदना दिया – ” मछली को खड़का (मेरी बहन का ससुराल) पहुँचा आओ । अभी झा जी भी आए हुए हैं ।” मुझपर तुषारापात हो गया ।

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    मैं आँगन में माँ के पास पहुँचा । पिताजी के हिटलरी फरमान की प्रतिक्रिया सदैव माँ को ही झेलनी पड़ती थी । ये मछली कैसे दिया जा सकता है । ऐसा सेसर मछली मैंने कभी नहीं मारा था । मैं नाक-भौं धुन रहा था । पर कुछ किया नहीं जा सकता था । माँ ने मेरे” अंता” में हो रही हलचलों के विषय में बताया जो पिछले बालकनी से दिखाई देता था । मैं बुझे मन से एक झोला लिए पिछवाड़े “अंता” झाड़ने आ गया । सही से घासों को हटाते हुए “अंता” को पानी से उपड़ उठाया । निछक्का “सिंघिन” एवं “गैंचा” पूरे “अंता” में भरा हुआ था । एक बार फिर से मजा आ गया । सभी को झोला में उलटा । मैं “अंता” को सही से लगाने के बाद खेत एवं पोखर के पानी के तल के अंतर का जायजा लिया । शाम तक जरूर धार चलेगा यानि शाम तक मछली के आसार हैं । अब पिताजी का फरमान उतना कठोर नहीं लग रहा था । वापस आकर मछली माँ को पकड़ते हुए झटपट बहन के यहाँ जाने की तैयारी कर लिया ।

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    वहाँ पहुंचकर देखा तो अभी सब ठीक से जगे भी नहीं थे । मैं अपने बहन के हाथ में वह झोला पकड़ाया । झोला से मछली निकलते ही सभी हर्षघोष करने लगे । मैंने अपनी भगिनी और मछली को मापा । मछली बीस ठहरी । सबों को मुझपर विशेष प्यार आने लगा । इससे बढ़िया “सनेश” और क्या हो सकता था भला । फिर वही सवालों की बौछार । धड़ाधड़ मछली का खंड बनाया जाने लगा। मछही हाॅसू से जब बात ना बनी तो टेंगारी प्रयोग में लाया जा रहा था । मशाला पिसाने लगा । सभी मुझपर खाकर जाने का दबाव बनाने लगे । लेकिन मेरा ध्यान तो अपने “अंता” पर लगा हुआ था । मैं चाय पीकर झटपट वापस लौट आया ।

    शाम होते-होते कोई भी घर ऐसा नहीं बचा जहाँ से मछली बनने की सुगंध ना उठती हो । मतलब अधिकता ने समता स्थापित कर दी ।

    सच मानो पूरा बरसात बिना मछली के कौर नहीं उठता था ।


    लेखक : निशिकांत ठाकुर