समान्य श्रेणी और पूर्ववत् पधारे सहयात्री के बीच जोरो-आजमाइश करते हुए उचित स्थान काफी मसक्कत से ग्रहण किया उपरी पाईदान (सोने वाली सिट ) पर बैठ गया कुछ देर के उपरांत देखा !
ट्रेन के छत से लगी पंखा पै चमकीली और बहुमूल्य जूते आराम फरमा रहा था । और निचे देखा तो कुछ जूते और चपल्ल लोगों के आवागमन के बीच दर्द से कराहता हुआ कभी दब जाता तो कभी मनो कभी फुटबोल के किक के समान इधर से उधर हो जाना, लगा रहा ।
अरे साला,……..!
दिमाग में आ गया यहाँ भी जाती धर्म की कुरीति विराजमान है, छुआ छुत की भावना भी उपस्थिति दर्ज करा रही है वूडलेंड का जूता उच्च जाती का और निचे समान्य कम्पनी की जूता पिछरा… अति पीछरा ….!
बुझा गया यहाँ भी छुआ छुत है जाती धर्म की तराजू है । लोग इसी में उलझे रहते हैं सम्प्रदाय , जाती धर्म , छुआ छुत और मानव …………….!!!!!
सागर नवदिया ( क्रन्तिकारी )
ये विकृत मानसिकता वाले जूते होते है जो खुद को कभी नीचे नहीं देखना चाहते है ।
सामान्य श्रेणी के जूते मजबूर है नीचे रहने को सीट रिज़र्व नही होने के कारण ।
यथार्थ ही कहा आपने सोनू कश्यप जी ! मानसिकता बदलने की आवश्यकता है |
वाह ! चाबस !
बहुत अच्छा प्रवाह है लेखन का और साथ ही सोचने का नया तरीका भी की जिसमे सूक्ष्म चीज को पकड़ने का मनोविज्ञान दिखता है। लिखते रहो !