एक ब़ार स्वामीजी जयपुर में दो सप्ताह के लिए ठहरे थे. इस दौरान एक व्याकरण के विद्वान से उनकी भेंट हुई. परिचय होने के पश्चात स्वामीजी उनसे पाणिनि का अष्टाध्यायी व्याकरण पढने की इच्छा जाहिर किए. इस शास्त्र में विलक्षण पांडित्य होने पर भी पंडितजी की अध्यन प्रणाली सरल नही थी.
इसके फलस्वरूप पंडितजी द्वारा लगातार तिन दिनों तक पातंजलभाष्य सहित प्रथम सूत्र की व्याख्या किये जाने पर जब उन्होंने देखा की उसका तात्पर्य स्वामीजी को बोधगम्य नहीं हुआ तब चौथे दिन उन्होंने स्वामीजी से कहा, “स्वामीजी, मुझे लगता है की जब तिन दिनों में भी मैं आपको प्रथम सूत्र का ही अर्थ नहीं समझा सका, तब मुझसे आपको कोई विशेष लाभ नहीं होगा”
पंडितजी के इस प्रकार की बात से स्वामीजी लज्जित हो गए और उन्होंने दृढ़ संकल्प किया की चाहे जैसे हो अपने ही प्रयास से वे उक्त भाष्य का अर्थ समझेंगे और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक वे अन्य किसी ओर मन नहीं लगायेंगे.
संकल्प कर एकांत स्थान में वे उसे स्वाय्त्व करने बैठे. एकान्तिक मनोयोग के प्रभाव से पंडितजी के द्वारा जो तिन दिनों में नहीं हो सका, उसे अपने उद्यम से स्वामीजी ने तिन घंटो में प्राप्त कर लिया. कुछ ही देर बाद वे पंडितजी के समक्ष उपस्थित हो उस भाष्य की व्याख्या करने प्रवृत हुए.
तब उनकी सुचिंतित, सरल एवं गूढ़ लक्ष्यार्थयूक्त तर्कपूर्ण व्याख्या सुनकर पंडितजी स्तम्भित हो गए. तदुपरांत स्वामीजी बिना आयास के ही सूत्र पर सूत्र, अध्याय पर अध्याय पढने लगे. इस घटना का उलेख कर वे बाद में कहा करते, “मन में यदि प्रबल आग्रह हो तो सब कुछ सम्भव हो जाता है – यहाँ तक की पर्वत भी चूर-चूर हो कर धुल के कंण में बदल जा सकता है”
साभार : यह आलेख पुस्तक युगनायक विवेकानंद खंड 1 पृष्ठ संख्या 270 से लिया गया है.
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