Category: इतिहास

  • सौराठ : मिथिला की एक सांस्कृतिक स्थल

    सौराठ : मिथिला की एक सांस्कृतिक स्थल

    सौराठ मिथिला (उत्तर बिहार) के मधुबनी जिले में स्थित एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक गाँव है। यह मिथिला के उन गांवों में से एक है, जो मिथिला के सांस्कृतिक इतिहास में अपने विशाल योगदान के लिए जाना जाता है। यह एक प्राचीन स्थान है, जहाँ खुदाई किये गए कुछ टीले पाए गए हैं, जो संभवतः इसके ऐतिहासिक महत्व की अपार जानकारी को अपने गर्भ में गोपन किया हुआ है। ब्रिटिश- भारत सरकार के पुरातत्व सर्वेक्षक अलेक्जेंडर कनिंघम ने उन्नीसवीं  सदी के आठवें दशक में इस गांव का सर्वेक्षण ओईनवार वंशीय  राजा शिव सिंह के एक शिलालेख की एक छाप या फोटोग्राफी लेने के लिए किया , जो 14 वी सदी से संबंधित है, प्रकृतः यह एक दान अभिलेख है जो रजा ने विद्यापति को प्रदान किया था। इस ताम्रपत्र अभिलेख की जानकारी उनके साथ दरभंगा के  बाबू लाल नामक एक स्थानीय पंडित ने साझा की थी।

    कनिंघम लिखते हैं कि पंडित बहुत बुद्धिमान और विद्वान था, और उन्हीं से  सौराठ के बारे में  महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त  हुई थी। 1880-81 ई. में अपनी पुरात्त्विक सर्वेक्षण यात्रा के बाद उन्होंने इस प्राचीन ग्राम की प्रशंसा में निम्नलिखित लिखा है: “इस ब्राह्मणवादी गाँव की एंटिक्विटी पर थोड़ा संदेह हो सकता है, और यद्यपि  मूल ताम्रपत्र अभिलेख से किसी तरह का  स्टाम्प या संस्करण हासिल न करने पर गंभीरता से निराश होना पड़ा, मुझे सौराठ के जाने का दुख नहीं था।”

    कनिंघम ने उल्लेख किया है कि यह शिलालेख नान्हू ठाकुर के कब्जे में था और उन्होंने लगभग 20 साल पहले सरकार को तांबे की प्लेट का शिलालेख प्रस्तुत किया था। अन्य गाँव के पंडितों के साथ ठाकुर ने अधिक जानकारी एकत्र करने में उनकी मदद की। उस समय कनिंघम सौराठ में दो डीह को देख सकते थे, जो लगभग एक मील पर अलग था। उस सतह पर कोई पुरातात्विक अवशेष नहीं खोज सका, इसलिए खुदाई की स्थल तय करना मुश्किल था। प्रख्यात सर्वेक्षक लिखते हैं कि ग्रामीण उन टीलों अथवा अवशेषों को प्राचीन नगर या बस्ती का अवशेष मानते हैं और वें उन लोगों के विचार से सहमत भी हैं। उन्होंने बड़े डीह में कुछ सतही खुदाई की जिसमें कुछ ईंटें और मिट्टी की कई गेंदें जिसके केंद्र में छिद्र मिलीं, संभवतः जिसका प्रयोग कताई (spinning weights) के लिए किया जाता था।

    इस गाँव का मूल संस्कृत नाम “सौराष्ट्र” है। लोक दर्शन अथवा परंपरा में इस नाम की उत्पत्ति दो प्रकारों से वर्णित है। पहली दंत कथा (anecdote) बताती है कि यह गाँव रामायण काल ​​से पहले का है और रामायण काल ​​में यह सौ छोटे देशों के समूह का मुख्यालय था। हालांकि यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि रामायण की कुछ घटनाएं सौराठ गाँव के आसपास के कुछ स्थानों से भी जुड़ी हुई हैं, जैसे सतालखा, मंगरौनी और कनैल। इस जनश्रुति के आधार पर स्थानीय इतिहासकार इज़हार अहमद ने ग्राम जगतपुर की पहचान की है जो सौराठ के पूर्व में मिथिलापुरी, विदेह साम्राज्य की राजधानी के रूप में स्थित है। यह वहीं स्थल है जहाँ पर राजा जनक की सभा में वाद-विवाद/शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य ने कई विद्वानों को हराया। इस क्षेत्र में टीलों की खुदाई से रामायण की कलाकृतियों तथा रामायणकालीन संस्कृति कि पुरातत्विक साक्ष्य को खोजने की संभावना है, जो भविष्य में मिथिला के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को एक नया दृष्टि प्रदान कर सकती हैं।

    सौराष्ट्र/ सौराठ के नामकरण से संबंधित दूसरे उपाख्यान के अनुसार जब 1025 ईस्वी में महमूद गजनी ने गुजरात राज्य अंतर्गत सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का लूट पाट किया और ज्योतिर्लिंग को तोड़ा तब सौराठ ग्राम के दो ब्राह्मण भाई भागीरतदत्त और गंगादत्त को भगवान् आशुतोष का स्वप्न आया और महादेव ने उन्हें ज्योतिर्लिंग को कहीं और सुरक्षित स्थान उपलब्ध कराने के लिए कहा और वे शिवलिंग को इस गांव में ले आए। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जब राजा हरिसिंहदेव ने चौदहवीं शताब्दी ई. (1309-24) के पहले चरण में मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों का पंजीकरण(genealogical accounts of the region maintained by hereditary record keepers) शुरू किया था, उस समय सौराठ नाम की कोई उत्पत्ति या मूल नाम की कोई शाखा नहीं थी। इससे पता चलता है की उस समय गांव में ब्राह्मणों और कायस्थों का निवास नहीं था।

    सौराठ मैथिल ब्राह्मणों के वैवाहिक मिलन केंद्र के लिए प्रसिद्ध रहा है, जिसे लोकप्रिय रूप में सौराठ सभा के रूप में जाना जाता है। सभा-गाछी विवाह मिथिला के सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है जो देश में कहीं भी समानांतर नहीं है। सांस्कृतिक गांव सौराठ में सभा की संस्था ने पूर्व -आधुनिक मिथिला में संवेग प्राप्त किया। राज्य एवं स्थानीय लोगों की देख रेख में प्रतिवर्ष सौराठ सभा का आयोजन इस गांव के बाहरी इलाके से गुजरने वालीं जयनगर- मधुबनी मार्ग के निकट स्थित सभागाछी में आयोजित किया जाता था। जिस स्थान पर लोग इकट्ठा होते थे वह स्थल तपती सूरज से सुरक्षा प्रदान करने वाले पीपल, बरगद, पाकुड़ और आम आदि के पेड़ों से घिरा हुआ था (अभी भी सभा स्थल पेड़ों से घिरा हुआ है), जिन्हें मैथिली में सभा गाछी कहा जाता है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में इस वैवाहिक सभा की प्रासंगिकता वैश्वीकरण की सांस्कृतिक अस्त्र पश्चिमीकरण के आगमन के साथ घटती गई और यह घटना व्यावहारिक उपयोग से बदलकर सामाजिक परंपरा की सांस्कृतिक वर्षगांठ के रूप में बदल गई है।

    Thousands of people present in the sabha gachhi
    सभा गाछी में हजारों लोगों की उपस्थिति |  स्रोत: इंडिया टुडे/गूगल

    यह सभा हिंदू कैलेंडर के ज्येष्ठ-आषाढ़ महीनों में आयोजित होने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम था। ऐसा कहा जाता है की लाखों लोग यहाँ आते थे। वर और वधु दोनों पक्ष घटक, पंजीकार, रिश्तेदार या परिचितों के साथ इस मिलन सभा में एकत्रित होते थे। हालांकि यह एक खुला वैवाहिक आयोजन था लेकिन जाति/वर्ण की स्थिति को बनाए रखा गया था। इस सभा को आयोजित करने का आदेश स्थानीय खंडवाल राजाओं  ने पंजिकारों को दिया था और उन्होंने इसका आयोजन और संचालन किया। सौराठ सभा में विभिन्न गाँवों के रजिस्ट्रार / पंजिकार अपनी-अपनी पंजी प्रबंधों ( के साथ बैठते थे। धीरे-धीरे कई प्रसिद्ध पंजिकार / वंशावली परिवारों ने गाँव में बसने का फैसला किया और उनमें से कुछ अभी भी वहाँ हैं। सौराठ सभा की उत्पत्ति से पहले इस तरह की बैठकें समौल और अक्सर पिलखवाड़ (दोनों मधुबनी जिले में स्थित ग्राम हैं) में होती थीं। किसी समय, इस तरह की बैठकें मिथिला के विभिन्न क्षेत्रों में चौदह स्थानों पर होती थी जिनमें सौराठ और समौल प्रमुखता से शामिल हैं।

    महामहोपाध्याय परमेश्वर झा के अनुसार, खंडवाला राजा राघव सिंह(1703- 1739 ई.) ने समौल गांव के पास सभा का आयोजन शुरू किया। सभा में पंजिकार दोनों पक्षों के मध्य विवाह ठीक हो जाने पर ताड़-पत्र पर लिखकर सिद्धांत पत्र देते थे। सिद्धांत पत्र विवाह के लिए स्वीकृति होती है जो यह जाँचने के बाद जारी किया जाता था (अभी भी कुछ लोग विवाह की इस पारंपरिक-साइंटिफिक पद्दति के द्वारा विवाह करते हैं) की सात पीढ़ियों से वर-वधू पक्ष के बीच कोई खून- सम्बन्ध(blood-relation) नहीं था। परमेश्वर झा लिखते हैं की समौल में सभा के लिए नियुक्त रजिस्ट्रार/पंजीकार पर किसी कारणवश ग्रामीणों द्वारा एक बार अत्याचार किया गया था और उन्होंने उस गाँव से पलायन करने का फैसला किया और अंततः सौराठ में बस गए, जहाँ पंजीकारों ने सभा / सभा का गंतव्य चुनने के लिए तरौनी (दरभंगा जिला ) के होराइ झा की सहायता प्राप्त की। राजा माधव सिंह ने इस सभा में शामिल होने के लिए बाहर से आने वाले लोगों की सुविधा के लिए एक सभागृह, मंदिर (माधवेश्वर शिवालय), मंदिर के चारों दिशा में विशाल धर्मशाला और मंदिर के इशान कोण में एक बड़ा पोखर का निर्माण शुरू किया। छत्र सिंह के समय में निर्माण कार्य 1832-33 ई. में पूरा हुआ। निर्माण कार्य से सम्बंधित उपरोक्त वृत्तांत माधवेश्वर मंदिर के कीर्तिशिला में उल्लेखित है। दुर्भाग्य से अभिलेख का दूसरा भाग अब स्पष्ट दिखाई नहीं देता है, इसको पुरातत्विक ढंग से साफ करके पढने की आवश्यकता है। कीर्तिशिलालेख  का प्रथम भाग :

    The inscription is inscribed on the wall outside the sanctum sanctorum of the Madhveshwara temple sabha gachi
    अभिलेख माधवेश्वर मंदिर के गर्भगृह के बाहर वाले दीवार पर अंकित है। फोटो साभार : लेखक स्वयं

    इस प्रकार सौराठ मिथिला की एक सांस्कृतिक-ऐतिहासिक स्थल है। सोमनाथ मंदिर सहित गाँव में कई मंदिर हैं जो एक आधुनिक वास्तुकला के साथ विराजमान हैं जहाँ लोग बड़ी आस्था के साथ पूजा करने जाते हैं। जैसा की पूर्व उल्लेखित है मिथिला के शासक द्वारा निर्मित सभागाछी में माधवेश्वर मंदिर नाम का एक बड़ा शिव मंदिर है। मंदिर का एक बड़ा हरा-भरा परिसर है, जिसके आंगन में श्रदालु-आश्रय के लिए एक इमारत है, जिसके निकट ही एक बड़ा पोखर है और पक्का घाट बना हुआ है। अब, इस स्थल का रखरखाव नहीं किया जाता है, कोई भी इसकी बर्बाद स्थिति को देखते हुए इस पोखर में स्नान नहीं करना चाहता है। कुछ पंजिकार अभी भी हैं, उनका घर भी सभा गाछी के परिसर में ही है। वें वहां नित्य अपने सम्पत्ति/विरासत पंजी-प्रबंध के साथ बैठते हैं और समुदाय के सदस्यों के लंबे वंशावली इतिहास को बनाए रखते हैं।

    sabha gachhi panting
    फोटो साभार : मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल

    साभार : सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ ट्रेडिशन एंड सिस्टम्स

    लेखक : रिपुंजय कुमार ठाकुर, इतिहास विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

    अनुवादक : मोहिनी किशोर, कला इतिहास विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय

    ( प्रस्तुत आलेख के मूल स्वरूप की भाषा अंग्रेजी है और यह शोध लेख लोकप्रिय पुस्तक ‘मड़बा’ में प्रकाशित है )


     Bibliography :

    Ahmad, Izhar, Madhubani Through the Ages: A Regional History of Madhubani, Delhi: Image Impressions, 2007.

    Choudhary, Radha Krishna, Select Inscriptions of Bihar, Saharsa: Shanti Devi, 1958.

    Cunningham, Alexander, Archaeological Survey of India Report, Vol. XVI, 1880-1881.

    Jayaswal, K. P. and  A. Banerji Shastri, Descriptive Catalogue of Manuscripts in Mithila, Patna: Bihar Research Society, 1927.

    Jha, Parmeshwar, Mithila-Tattva-Vimarsh, Patna: Maithili Akademi, 2013(edition).

    Journal of the Bihar and Orissa Research Society, Patna, Vol. III.

    Thakur, Upendra, History of Mithila, Darbhanga: Mithila Institute of Post-Graduate Studies and Research in Sanskrit Learning, 1988(edition).

    Thakur, Vijay Kumar, Mithila-Maithili : A Historical Analysis, Patna: Maithili Akademi, 2016(edition).

    Thakur, Manindra Nath, Savita, Ripunjay Kumar Thakur, Madba (मड़बा), New Delhi: Indica Infomedia, 2020.

  • राहुल सांकृत्यायन और नेपाल

    राहुल सांकृत्यायन और नेपाल

    नेपाल के प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मरत्न यमि के साथ राहुल सांकृत्यायन की यह तस्वीर जनवरी 1953 में राहुल जी की नेपाल-यात्रा के दौरान ली गई थी। राहुल जी की यह यात्रा इस अर्थ में भी विशिष्ट थी कि इसी दौरान राहुल जी नेपाल के महाकवि लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा के साथ-साथ अन्य प्रमुख नेपाली साहित्यकारों से भी मिले थे। देवकोटा का फक्कड़ व्यक्तित्व राहुल जी को निराला की याद दिलाता रहा। राहुल जी ने ‘मेरी जीवन-यात्रा’ में लिखा भी है कि ‘देवकोटा को देखकर मुझे बार-बार निरालाजी याद आते थे – वैसा ही अकृत्रिम सौहार्द और वैसी ही काव्य-प्रतिभा। ख़ुद भी अपनी कृतियों की सुरक्षा की परवाह नहीं करते। लिखते-फाड़ते-भूलते उन्हें देर नहीं लगती।’

    इसी यात्रा में राहुल जी की मुलाक़ात नेपाल के प्रमुख साहित्यकारों जैसे बालकृष्ण सम, बालचन्द्र शर्मा, जनकलाल शर्मा, केदारनाथ व्यथित, महानन्द सापकोटा, चित्रधर उपासक आदि से हुई। ‘नेपाली शिक्षा परिषद’ की सभा में दिए एक भाषण में राहुल जी ने नेपाल की बहुभाषिकता पर ज़ोर दिया था। नेपाली के साथ-साथ उन्होंने नेवार और गुरुंग जैसी भाषाओं के महत्त्व पर ज़ोर देते हुए कहा था : ‘यदि नेपाल के लोगों को जल्दी से जल्दी साक्षर करना है, तो प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम उनकी भाषाओं को रखना होगा।’ राहुल जी ने नेपाली साहित्य सम्मेलन में भी भाग लिया था। इस यात्रा में कमला जी भी बराबर राहुल सांकृत्यायन के साथ रहीं।

    उल्लेखनीय है कि वर्ष 1953 में ही राहुल जी ने ‘नेपाल’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी। नेपाल से भारत लौटने के बाद राहुल जी ने मई-जुलाई 1953 में सस्ता साहित्य मण्डल की मासिक पत्रिका ‘जीवन-साहित्य’ में तीन लेख धर्मरत्न यमि के व्यक्तित्व, उनकी राजनीतिक गतिविधियों और कृतित्व के बारे में लिखे। संयोग नहीं कि धर्मरत्न यमि और राहुल के जीवन में कई समानताएँ दिखाई देती हैं। प्रतिबद्ध साहित्यकार होने के साथ ही दोनों ने अपने राजनीतिक सरोकारों के लिए राजनीतिक संघर्षों में भाग लेने और जेलयात्राएँ करने से कभी गुरेज नहीं किया।

    राहुल जी की तरह ही धर्मरत्न यमि भी बौद्ध थे, लेकिन मार्क्सवाद और साम्यवाद से गहरे प्रभावित थे। राहुल और धर्मरत्न दोनों ने ही जेल में रहते हुए कालजयी ग्रंथ लिखे। धर्मरत्न यमि की अनेक कालजयी पुस्तकें यथा ‘संदेशया लिसल’ (नेवार भाषा का प्रसिद्ध खंड-काव्य), ‘अर्हत नन्द’ और भगवान बुद्ध की जीवनी ‘जगत ज्योति’ जेल में रहते हुए ही लिखी गईं। राणाशाही के विरुद्ध संघर्ष की योजना तैयार करते हुए धर्मरत्न यमि 1939 में इलाहाबाद में जवाहरलाल नेहरू और पटना में रामवृक्ष बेनीपुरी से भी मिले थे, जो उस समय समाजवादी पत्रिका ‘जनता’ के संपादक थे।

    बौद्ध धर्म व दर्शन में गहरे अनुराग और अपनी घुमक्कड़ वृत्ति के चलते राहुल जी ने नेपाल की अनेक यात्राएँ की थीं। देखें तो ये नेपाल यात्राएँ उनकी तिब्बत-यात्रा के एक अनिवार्य पड़ाव की तरह जान पड़ती हैं। राहुल जी की पहली नेपाल-यात्रा वर्ष 1923 में हुई। इस यात्रा के दौरान राहुल जी थापाथल्ली मठ में रुके थे। जहाँ से उन्होंने पशुपतिनाथ, गुह्येश्वरी, महाबोधा, शिखरनारायण जैसे ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण किया। वहीं वे बौद्ध विद्वान वज्रदत्त वैद्य और रत्नबहादुर पंडित से भी मिले।

    राहुल जी भारत-नेपाल-तिब्बत में व्यापार करने वाले नेवार व्यापारी धर्ममान साहू और उनके बेटे त्रिरत्नमान साहू के संपर्क में आए। अपनी तिब्बत यात्राओं में राहुल जी को धर्ममान साहू से समय-समय पर जो सहायता मिली थी, उसके लिए वे हमेशा उनके कृतज्ञ रहे। इस पहली नेपाल यात्रा में उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण मुलाक़ात हुई राजगुरु पंडित हेमराज शर्मा से। पं. हेमराज शर्मा से राहुल जी की यह भेंट आगे चलकर तीन दशक लंबी सहयोग व मैत्री की बौद्धिक यात्रा में परिणत हुई। ‘प्रमाणवार्तिक’ समेत अनेक दुर्लभ ग्रन्थों की पांडुलिपियाँ भी राहुल जी को हेमराज शर्मा से ही मिली थीं और बौद्ध दर्शन के अनुशीलन हेतु ज़रूरी मार्गदर्शन भी।

    वर्ष 1929 में हुई अपनी सवा बरस की तिब्बत यात्रा से पूर्व राहुल जी ने कुछ महीने नेपाल में किंदोल विहार में अज्ञातवास में भी गुजारे थे। उसी यात्रा में वे डुक्पालामा से भी मिले थे। कहना न होगा कि राहुल जी की जीवन-यात्रा भारत-नेपाल मैत्री का सुनहरा अध्याय है।


    आलेख साभार

    शुभनीत कौशिक जी के फेसबुक वाल से”

  • अंग महाजनपद के सौदागर

    अंग महाजनपद के सौदागर

    पिछले दिनों प्राचीन भारत से संबंधित कई किताबों को पढ़ने का मौका मिला । इसमें बिहार से जुड़े विभिन्न अंचलों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का पता चला । अब जैसे मगध साम्राज्यवादियों और ज्ञान की तलाश करने वाले व्रात्यों का गढ़ था । मिथिला वैदिक ज्ञान और न्याय शास्त्र की भूमि रही, बाद में लिच्छवियों के साथ मिलकर उसने गणतांत्रिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया । उसी तरह बुद्ध काल के षोडश महाजनपदों में से एक अंग की पहचान अपने व्यवसायियों की वजह से थी । पता नहीं अंग क्षेत्र के इन व्यवसायियों पर कोई शोधपरक काम हुआ है या नहीं । मगर टुकड़ों टुकड़ों में जो जानकारियां मिलती हैं, वह चकित करने वाली हैं ।

    Must Read : महानारी का शहर “महनार”

    अंग क्षेत्र जो वर्तमान में बिहार के भागलपुर, बांका और मुंगेर जिले में मूलतः केंद्रित है, कहते हैं उस जमाने में व्यापार का इतना बड़ा केंद्र था कि यहां के चम्पानगरी से सुवर्णभूमि के लिये जहाज खुला करते थे । ये जहाज बंगाल के ताम्रलिप्ति में सागर में उतरते और फिर बर्मा, इंडोनेशिया, मलेशिया, ताइवान, थाईलैंड, जावा आदि इलाके तक जाते थे । इस व्यापार से यह क्षेत्र इतना समृद्ध हुआ कि उसने वर्तमान वियतनाम के एक क्षेत्र में चंपा नामक साम्राज्य भी स्थापित किया । आज भी उस साम्राज्य के अवशेष हैं, वहीं की एक तस्वीर इस पोस्ट के साथ लगी है । इस इलाके में आज भी कुछ हिन्दू बचे हैं।

    वैसे बिहार के अंग क्षेत्र में आज भी चांद सौदागर का नाम लिया जाता है । भागलपुर में हर साल जो बिहुला विषहरी पर्व मनाया जाता है, उसकी कहानी में चांद सौदागर का जुड़ाव है । दिलचस्प है कि यहां के सौदागरों की इतनी ख्याति थी कि कोसल के मशहूर राजा प्रसेनजित ने मगध नरेश बिम्बिसार से कहा था कि उनके राज्य में कोई व्यापारी नहीं है । कृपया अपने राज्य से एक व्यापारी भेज दें । बिम्बिसार के वक़्त अंग क्षेत्र मगध साम्राज्य का हिस्सा बन गया था । तब बिम्बिसार ने चंपा के एक व्यापारी के पुत्र धनंजय को कोसल भिजवा दिया । बहुत  कम समय में धनंजय कोसल का सबसे धनी व्यक्ति बन गया । उसकी पुत्री बौद्ध धर्म की मशहूर उपासिका विशाखा थी ।

    Must Read : बाजीराव ने दिया मेवाड़ को सम्‍मान

    सार्थवाह पुस्तक में भी अंग क्षेत्र के एक मशहूर व्यापारी सानुदास की विलक्षण यात्राओं का जिक्र है । उसकी कथा बृहत्कथा श्लोकसंग्रह में है । वह ताम्रलिप्ति से होकर सुवर्णभूमि की तरफ जाता है और फिर हिन्द महासागर में  सिंध और अफगानिस्तान के इलाकों की यात्रा करता है । कई बार उसका जहाज डूबता है और वह किसी सुनसान टापू पर पहुंच जाता है । हालांकि उस कथा में कई अविश्वसनीय बातें भी हैं, जैसे वह नदी के दूसरे किनारे लगे बांस के पेड़ों के हवा से झुकने पर उसे पकड़ कर नदी पार करता है और एक बार बकरे की खाल में छिप जाता था और चील उसे लेकर उड़ जाती थी, दूर देश पहुंचा देती थी । मगर फिर भी उस कथा में अंग के व्यापारियों और उनकी वणिक बुद्धि का बोध होता है ।

    आज वे अंग के व्यापारी कहां हैं, पता नहीं। भागलपुर शहर व्यापार का केंद्र जरूर है, मगर वहां ज्यादातर बड़े व्यापारी बाहर से आये लोग हैं । पूरे बिहार में ही वणिक बुद्धि वाले लोगों का घोर अभाव है । चंपा और अंग की कहानियां अब बस किताबों में ही हैं ।


    आलेख : पुष्यमित्र

    ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

  • दारा शिकोह! इतिहास में वाजिब जगह तलाशता शहजादा!

    दारा शिकोह! इतिहास में वाजिब जगह तलाशता शहजादा!

    एक ऐसा शख्स जो विविधतापूर्ण भारतीय संस्कृति में समन्वयकारी तत्वों की खोज में ताउम्र लगा रहा। जो सच्चे अर्थों में धार्मिक सहिष्णुता एवं धर्म निरपेक्षता का हिमायती था। भारतीय इतिहास द्वारा विस्मृत एक अनोखा एवं अद्भुत व्यक्तित्व जिसे सूफियों एवं मनीषियों की पंगत में बैठना अच्छा लगता था।हुमायूं एवं अकबर के गुणों से लैस था वह, तभी तो उसे “छोटा अकबर” कहा जाता है। (more…)

  • महानारी का शहर “महनार”

    महानारी का शहर “महनार”

    कहानी वैशाली के महानारी आम्रपाली की, जिसे उसकी खूबसूरती ने बना दिया था नगरवधू| महानारी आम्रपाली के कारण ही हमारे शहर का नाम महनार रखा गया । (more…)

  • बाजीराव ने दिया मेवाड़ को सम्‍मान

    बाजीराव ने दिया मेवाड़ को सम्‍मान

    जनवरी का महीना और साल था 1736 ईस्‍वी । देश के शासकों के एक मजबूत संगठन के ध्‍येय को लेकर पेशवा बाजीराव (प्रथम, 1700-1740 ई.) ने मेवाड़ की ओर भी रुख किया । तब यहां के महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) थे । (more…)