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  • भारतीय गोरैया पक्षी : खुद में ऐतिहासिक कथा बनती जा रही !

    भारतीय गोरैया पक्षी : खुद में ऐतिहासिक कथा बनती जा रही !

    हे फुतकी गोरैया !

    गोरैया पक्षी (Sparrow Birds) की एक युगल जोड़ी सप्ताह में एक दिन कहीं से उड़ मेरे आंगन आती हैं । मेरे यहाँ कबूतर है, सोचा– वे भी कहीं न कहीं घोंसले बनाकर टिक जाएंगी । परंतु नहीं, वह कबूतर को दिए चावल के दाने चुन फुर्र उड़ जाती हैं, शायद हम मानवों से भय खाती हैं । कटिहार- मालदा रेलखंड पर कुमेदपुर रेलवे स्टेशन है, मैंने 2 साल पीछे देखा था, वहाँ हजारों की संख्या में गोरैये रह रहे हैं, अभी भी है ! भागलपुर जंक्शन में भी देखने को हमें इस फुतकी गोरैये के संरक्षण की दरकार है । सरकार के आसरे पर नहीं, अपितु सामाजिक सरोकार को जगाकर ! इसके लिए महीन दाने खेत- पथारों में कुछ यूँ छोड़ देने चाहिए व छिटने चाहिए । गोरैया में ‘गो’ शब्द का हिंदी अर्थ ‘जाना’ होता है, क्या यही हो गया ? तो हे ‘आरैया’ ! यानी ‘आ’ से आ जाओ, यहाँ मैं अकेला हो गया हूँ ! रे फुतकी गोरैया कहाँ चली गयी तू ! 20 मार्च को विश्व गोरैया दिवस रही ! जिनके लिए दिवस, वह प्राणी अल्पसंख्यक हो गए हैं ! राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में गोरैया को राज्यपक्षी का दर्जा प्राप्त है।

    गोरैया मूलत: दो प्रकार के होते हैं- वन्य गोरैया और घरेलू गोरैया। घरेलू गोरैया घर पर बाड़ी-झाड़ी में घोंसले बनाते हैं । अब तो शहरी या नगरीय गोरैया भी है । एशिया और यूरोप में घरेलू गोरैया रहते हैं, तो अमेरिका, अफ्रीका, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया इत्यादि जगहों में शहरी गोरैया रहते हैं । नगरी गोरैया की खासकर 6 प्रजातियाँ होती हैं, यथ – हाउस गोरैया, स्पेनिश गोरैया, सिंड गोरैया, रसेट गोरैया, डेड सी गोरैया एवं  ट्री गोरैया । सम्पूर्ण संसार के अधिकांश हिस्से में गोरैया की भागीदारी है । अगर कोई फुस आदि के घर बना रहे हैं तो गाहे-बगाहे गोरैया आ ही जाते हैं ! मूलत: जाड़े की ऋतु में इनका आवागमन होता है, किंतु अब भारत में और भारत में भी बिहार में अल्पसंख्यक हो गए यह पक्षी अन्य ऋतुओं में भी देखे जाते हैं ! यह बहुत छोटी पक्षी है, हालाँकि बुलबुल, रसप्रिया या रस पीया से कुछ बड़ी होती है । दरअसल यह पक्षी 10 से 16 सेंटीमीटर लम्बी होती है । हल्की कत्थई रंग या भूरे रंग पर सफेदी का मिक्सिंग लिए होती हैं । नर और मादा साथ चलती है, परंतु मादा के गर्भधारण पर नर अपनी मादा के लिए आहार चुग कर लेते हैं । शाकाहारी गोरैया होते हैं, तो कीड़े आदि का भी वे भक्षण करते हैं । पीले चोंची और पैर भी प्राय: पीले रंग के होते हैं । इनमें हाउस स्पैरो को गौरैया कहा जाता है। यह शहरों में ज्यादा पाई जाती हैं। आज यह विश्व में सबसे अधिक पाए जाने वाले पक्षियों में से है। लोग जहाँ भी घर बनाते हैं देर सबेर गौरैया के जोड़े वहाँ रहने पहुँच ही जाते हैं। पहाड़ी स्थानों में भी यह पक्षी रहना पसंद करती है । नर गोरैया के गले के पास काले रंग होते हैं  नर गौरैया के सिर का ऊपरी भाग, निचले भाग तथा गालों पर भूरे रंग आकारित होते हैं । आँखों पर भी काला रंग होता है । मादा गोरैया के सिर और गले पर भूरा रंग नहीं होती है । पिछले कुछ वर्षों से शहरों में ही नहीं, गाँवों में भी गोरैयों की संख्या कम होती जा रही है । गाँवों में भी अब काफी संख्या में पक्के मकान हो गए हैं । शहरों में तो बहुमंजिली भवनों में गौरैया को रहने के लिए पुराने घरों की तरह जगह नहीं मिल पाती है। मॉल आदि ने इसे जीना मुहाल कर दिया है। रंग-रौनक संस्कृति से वे खत्म ही होते जा रहे हैं । खाने में कहीं भी महीन दानों का न मिलना उनके जीवित रहने की प्रवृत्ति को दुरूह बना रहा है । मोबाइल, मोबाइल टावर, इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों से निकलनेवाली प्रकाशपुंज और प्रदूषण भी उनकी विलुप्ति का कारण है । मेरे यहाँ अंडे पर बैठी कबूतर भी तब अंडा सेवना बंद कर देती है, जब बिजली व ठनका कड़कती है । गोरैया भी ऐसा करते हैं !  सनद रहे, कबूतर की खोप में पनपनेवाली तिलचट्टे को गोरैया वैसे खोप में घुसकर निकालती है और उसके शरीर के हिस्से निकालकर फुर्र से उड़ जाती है । यह छोटे कीड़े या उनके अंडो या लार्वो पर जीवनयापन करती हैं । यह गर्मी मौसम में, पर ज्यादा ऊँचाई में नहीं, तश्तरीनुमा घोंसला बनाती है। यह तीन या चार अंडे देती है, जो ललछौंने, सफेद निलछौंने होती हैं । हालाँकि दोनों हल्के भूर रंगों के पंख लिए होते हैं । मादा गोरैया समर्पित पक्षी है, किंतु नर गोरैया चालाक होते हैं, किंतु अन्य पक्षियों जैसे चालाक नहीं !

    नर गोरैया में सेक्सकला कॉफी रोमांचित करता है । मादा को चोंच से आहार परोस कर अथवा खेत-बहियार में बिखड़े आहार को खुद के संरक्षण में नर गोरैया ‘मादा’ को खिलाने में सहयोग करते हैं ! यह मादा गोरैया को बहलाने-फुसलाने का मानवीय तरीका भी कह सकते हैं, फिर मादा समर्पित हो जाती है, नर के प्रति । मादा गोरैया शरीर को सिकोड़कर एक जगह बैठ जाती है, फिर नर गोरैया फुदक-फुदक कर मादा पर बैठते हैं, न्यूनतम 6-7 दफे और अधिकतम 22-23 दफे करते हैं, इसी क्रम में उन दोनों के बीच सहवास हो जाती है । यह फुदकती है, एतदर्थ इसे फुदकी या फुतकी चिड़िया भी कहते हैं । यह निरंतर फुदकती रहनेवाली छोटी चिड़िया है, जो झाड़ियों में निवास करती है। यह छोटे छोटे कीड़े मकोड़े उनके अंडो या लार्वो पर जीवनयापन करती है। फुदकी अप्रैल से सितंबर के बीच तीन फुट से कम की उँचाई पर छोटा प्यालानुमा घोंसला बनाती है। यह तीन या चार अंडे देती है, जो ललछौंह या नीले-सफेद और भूरे-लाल धब्बेदार होते हैं। ऐसे लक्षणों के गोरैया यूरोप और एशिया महादेश में पाए जाते हैं । वृक्षों में रहनेवाली गोरैया में हल्के हरापन रंग अनुकूलित हो जाते है, किंतु ये सुग्गे या तोते जैसे हरापन लिए नहीं होते हैं !

    कुमेदपुर रेल जंक्शन के बाद भागलपुर रेल जंक्शन के छतों के कोटरे में भी गोरैया का खोता व घोंसले दिखाई देते हैं । स्टेशन परिसर में इस नन्हें परिंदों का गुलजार है। स्टेशन पोर्टिको के ठीक सामने के एक घना पेड़ पर सैकड़ों गोरैयों का आशियाना है। सुबह-शाम सूर्यास्त की लालिमा के साथ स्टेशन कैंपस में गोरैयों के टिक-टिक से व उनके चहचहाने वातावरण में संगीत घोल देता है । स्टेशन परिसर के रहवासी रेलकर्मियों ने कहा कि स्टेशन परिसर के गार्डेन में सजावटी पेड़-पौधे लगाए गए थे, वो काफी बड़े हो गए हैं। इसके पत्ते बहुत घने हैं, उसपर अमलतास की लत्तियाँ भी चढ़ गई है, जोकि सजावटी पेड़-पौधे पर एक आवरण लिए हो गया है, यही कारण है कि गोरैया अपने घोंसले को यहाँ बनाकर ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं ! भागलपुर के पक्षी वैज्ञानिक बताते हैं, प्रत्येक शाम गोरैया आते हैं, अपने-अपने रैन-बसेरों में रात बिताते हैं, फिर सुबह भोजन-पानी के फिराक में कलरव करते हुए फुर्र उड़ जाते हैं । वहां इसलिए आती हैं कि उसे रात बिताने के लिए झाड़ीदार पेड़ चाहिए। आसपास के आम, पीपल, बबूल, जामुन इत्यादि पेड़ों पर भी गोरैया घोंसले बनाकर रहते हैं । भागलपुर जंक्शन के पीछे और दक्षिण दिशा की बस्ती में भी गोरैया की तादाद है, जहाँ पक्के मकान की संख्या कम है, जहां भी गोरैया रहते हैं और महीन दाने चुगते हैं । यदि घर में घोंसला बनाई, तो वे सहज महसूस करेंगे । खिड़कियों, छज्जे, छतों पर, आँगन, दरवाजों पर उनके लिए दाना-पानी रखने से गोरैया चिक-चिक करते आएंगे । कड़ी धूप में पानी नहीं मिलने से गोरैया मर-खप जा रही हैं । वे घर पर छज्जे में रखे पुराने जूट, कूट के डिब्बों, मिट्टी के बर्तनों, जूट के टंगे थैलों, बेकार पड़ी सूप, टोकरी इत्यादि जगहों में भी घोंसले बना लेते हैं। कटिहार, बिहार के मनिहारी, नवाबगंज में भी गोरैया देखने को मिलते हैं । एक स्थानीय पक्षीप्रेमी श्री काली प्रसाद पॉल बताते हैं कि गोरैया पालतू चिड़िया है। वे तो रोज गोरैयों को दाना-पानी देते हैं । इस माहौल में वे बड़ी शिकारी पक्षियों से खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं। वे अकसर मेरे मिट्टी और फुस के घरों के बीच बनी जगहों में अपने घोंसले बना लेती थी या आसपास के पेड़ों पर अपना ठिकाना तलाश लेती थी, किंतु अब पक्के मकानों और घटते पेड़ों के चलते उनके लिए घोंसले बनाने के लिए कोई जगह सुनिश्चित नहीं बची है।

    गोरैया : वैश्विक पक्षी

    यूएसए में कुछ भिन्न प्रकार की गोरैया रहती हैं, उनके रंग और आकार यूरेशियाई गोरैयों से भिन्न होती हैं, किंतु अंशत: ही । ऐसे गोरैये जर्मनी मूल के हैं । जो जर्मन गोरैया भी कहलाते हैं ! यह सब जर्मन प्रजाति के है , जिनकी उपजातियाँ भी है । अमेरिकी गोरैयों को स्वच्छ वातावरण चाहिए, किंतु यूरेशियाई गोरैयों को गंदे घोंसले में रहने को लेकर कोई फर्क नहीं पड़ता, वे तो वृक्षों के कोटरों में भी रैनबसेरा बना लेते हैं । मौसमी बारिश को छोड़कर मादा गोरैयों का प्रजननकाल हर मौसम में है । अगर नर-मादा में प्रफुल्लता रहे, तो मादा गोरैया अधिकतम 6 अंडे तक दे सकती है । उनके घोंसले में कुछ दूरी लिए महीन छिद्र भी होती है, जोकि अंडे को नीचे से भी वायुत्व मिले । जो अंडे सेवी जा रही हो ! उनका जीवनावधि दो वर्ष का होता है, किंतु इनसे अधिक भी जीने के प्रमाण है । मेरे घर के घोंसले में गोरैयों की जो जोड़ी रहते थे, उनमें नर गोरैया ने साढ़े तीन की जीवनावधि को पूर्ण की ! वायरस और परभक्षी हिंसक कीटों से भी उन्हें खतरा है । चींटी भी उनके कमजोर देह को काट खाते हैं, तो हरहरे जैसे सामान्य सर्पवर्ग के साँप भी उनके अंडे खा जाते हैं ! आम, जामुन, नींबू, अमरूद, अनार, बाँस, कनेर फूल, बबूल, कटहल इत्यादि पेड़ों पर भी उनके रैन-बसेरे हैं, किंतु इन पेड़ों पर लगे मंजरों को बचाने के लिए किए गए कीटनाशक व हानिकारक रसायनवाले स्प्रे के होने और इसे चखने या अन्य मेथड से शनै: शनै: गोरैये के आहारनाल प्रभावित हो रहे हैं और उनकी प्रजाति पूर्ण विनष्टता की ओर पहुँच चुकी है। इसके अतिरिक्त उसे दाना-पानी की भी समस्या उत्पन्नहो गई है । यह पक्षी प्रमुखतया ज्वार, बाजरा, पक्के धान से निकाले गए व फांके गए चावल, छोटे कीड़े-मकौड़े यानी अल्फा, कतवर्म, तिलचट्टे इत्यादि को छिन्न-भिन्न कर चुगते हैं, बच्चे को उगलकर देते हैं, कभी-कभी सीधे आहार चोंच से चोंच तक पहुंचाते हैं और अंतत: जल ग्रहण कर गोधूलि बेला में अपने प्रवास लौट जाती है । आज जलस्रोत भी विषैले और प्रदूषित हो रही है।

    यूरेशियाई गोरैया एशिया और यूरोप की विशाल आबादी से भी प्रभावित है । तभी तो विशाल आबादी के कारण यह वैश्विक स्तर पर लुप्तप पक्षियों की श्रेणी में नहीं आती है । सिर्फ दक्षिणी एशियाई क्षेत्र ही नहीं, अपितु पश्चिमी यूरोप में भी इस पक्षी की आबादी लुप्त होती जा रही है । यह शीत कृषि में कमी के कारण है । पूर्वी एशिया और पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में यह पक्षी हानिकारक जीव के रूप में देखी जाती है, तो अफ्रीका के जंगलों में हिंसक पक्षी के रूप में इनका जीवनशैली है । अध्ययन यही कहता है कि स्थानविशेष और भोजनविशेष के कारण यह भी प्राणी अनुकूलित प्राणी के संज्ञार्थ अभिहित है। ऐसे भारत में इसे कलात्मक पक्षी भी कहते हैं। भारत के महानगरों में यह पक्षी शून्यप्राय हो गए हैं। हिंदी कथाकार भीष्म साहनी जी अपनी कहानियों में गोरैया को गाथित किये हैं ! गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के समय शांति निकेतन में न सिर्फ गोरैया, अपितु कौवे और लंगड़ी मैना भी इठलाकर फुदकती थी ! आज वहाँ इस प्राणी का बसर तो है, किंतु गुरुदेव के जमाने की स्वच्छंदता लिए कहाँ ? भारत के अंग्रेजी लेखक रस्किन बांड को भी इस छोटी चिड़िया के प्रति अतिशय अनुराग है!

    भारतीय गोरैया

    भारत के वृक्षों पर आवास करनेवाले गौरैयों में लम्बाई 12 से 14 सेंटीमीटर अर्थात 5 से 6 इंच तक, फिर उनके पंखों का व्यास 18 से 22 सेंटीमीटर अर्थात 6 से 9 इंच तक होती है, तो वज़न 20 से 25 ग्राम तक होती है। हम भले ही बड़े हो गए हैं, किंतु हम दिल से छोटे और कमजोर, बेबस और बेकस भी हो गए हैं । भारत में लगातार ही गोरैया घटती जा रही है, किंतु इसे सिर्फ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का आसरा है, जबकि ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों में यह पक्षी रेड अलर्ट लिस्ट में शामिल है । पक्षी वैज्ञानिक संवेदनशील है, किंतु अपनी ही सुख-सुविधा और विलासिता में डूबे लोग गोरैया की विलुप्तता को गाम्भीर्यमूलक नहीं लेते हैं । दरअसल, इस पक्षी के गायब होने की सही पड़ताल देश में अबतक नहीं हो पाई है । हमारी अत्याधुनिक सुविधाओं से लेश होने की प्रवृत्ति हमारी प्रकृति को ढा दे रही है। ऐसे-ऐसे मकान बना रहे हैं कि इसतरह के प्राणियों के लिए जरा-सी भी जगह नहीं छोड़ रहे हैं । इनके प्रति हमारा अनुदार रवैया यानी वे विष्ठा (शौच) न कर दे, इस लिहाज से उनके घोंसले को उजाड़ फेंकते हैं । तिनके-तिनके जोड़कर उनके नीड़ निर्माण कोह नेस्तनाबूद कर डालते हैं । दूसरी ओर घर और वृक्ष के कोटरों में रहनेवाले साँप सहित, कौवे, कागे, बिल्ली-बिल्ला, बाज़, चील्हे इत्यादि हिंसक जीवों के क्रूर रवैये से उनके अंडे तो बचते नहीं ही है, वे भी किसी न किसी रात उन हिंसक जीवन के ग्रास बन जाते हैं।

    विदित हो, जवान गोरैया के मस्तक के ऊपरी हिस्सा और गर्दन का पिछला हिस्सा गहरे भूरे रंग का होता है, यह पूरी तरह से सफ़ेद गालों पर गुर्दे के आकार का काला धब्बा होता है । दाढ़ीवाले हिस्से, गर्दन तथा गर्दन और चोंच के मध्यांश भी काले रंग का होता है। ऊपरी अंश साफ भूरे रंग के नहीं होते हैं, बल्कि यह हल्केपन लिए होते हैं और उस पर काली धारियां होती हैं, तो इनके भूरे पंखों पर दो पतली व स्पष्ट सफ़ेद पट्टियां होती हैं। इनके पैर हल्केपन लिए भूरे रंग के होते हैं और गर्मियों में इनकी चोंच का रंग नीले पारदर्शी जैसे हो जाते है , जो सर्दी पड़ते ही उनमें कृष्णसदृश्य वर्ण के सापेक्ष हो जाते हैं । अपनी बिरादरी के अंतर्गत भी गोरैया भिन्न-भिन्न होती हैं, इनमें नर और मादा के बीच पंखों में कोई अंतर नहीं होता । यह जवानी और प्रौढ़ता आयु में भी एक सदृश्य दिखते हैं, बशर्त्ते इनमें भी प्रौढ़ावस्था में कुछ-कुछ मायूसी परिलक्षित होती जाती है । हाँ, रंग फीकेपन लिए हो जाते हैं । इनके चहरे पर सरलताभाव आने लगते हैं । नर गोरैया में एक अंतर और आ जाती है, उनके धड़ पर भूरे रंग छींटे लिए आबद्ध हो जाते हैं । वे शारीरिक समृद्धि लिए हल्के मोटे भी हो सकते हैं यानी उनमें वजन या मांसल वृद्धि आने लगती है । खून में जलीय तत्व लिए सक्रिय हो जाता है । हालाँकि यह फुर्ती का सूचक नहीं, तथापि शिकारी देखते ही वह फुर्र हो जाते हैं । घर और खेत-खलिहानों में जीवन-बसर करनेवाले गोरैयों में संगीत अभिलक्षण भी आबद्ध हो जाती है, वे जब एक-दूसरे के प्रति यानी प्रेमालाप को लेकर चुहलबाजी करने लगते हैं तो उत्तेजना में आकर प्रणय-निवेदन कर बैठते हैं, जो कि उनकी भाषा ‘चि-चि’ में प्रेमालाप होता है । शुरुआत नर गोरैया करते हैं और मादा गोरैया इनमें भाव-विह्वल हो सादर समर्पित हो जाती है । गीतों में लयबद्धता या अंताक्षरी उनके ही विहित है । मनुष्यों के साथ उनके व्यवहार सार्थक हैं, तभी तो मनुष्य जहाँ-जहाँ गए, गोरैये भी उनके हमसफ़र होते चले गए।

    मूलत:, उन्हें मित्रवत जनसमूह से कोई परेशानी नहीं है, किंतु वे शीघ्र शत्रुता भाववाले जनसमूहों की शीघ्र पहचान कर लेते हैं ! पर्यावरण में शोरगुल, डीजे की आवाज, मोटर-ट्रेनों को झिकझुक-भौंभौं, मोबाइल टावरादि से निःसृत रेडिएशन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रे से उनमें भय घर जाते हैं और वे ठीक से एक-दूसरे के प्रति प्रेमालाप नहीं कर पाते हैं । वृक्षों की हरियाली भी उन्हें पसंद है । ये कमी विविधता लिए है, जिससे अंडोत्पन्न में अक्षम हो रहे हैं । उन्हें नमकीन चीजें या नमकघुली वस्तुएँ से उनकी आयु घट रही है । उन्हें ऐसे भोज्य पदार्थ प्राप्त नहीं होनी चाहिए । अंडे उत्पत्ति पर भी भय के कारण उसे सेवने में समस्या आड़े आ रही है। विश्व गोरैया दिवस पर मेधाविनी मोहन जी ने सत्याग्रह के लिए समीक्षा की है कि इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इनकी संख्या आंध्र प्रदेश में 80 फीसदी तक कम हुई है और केरल, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में इसमें 20 फीसदी तक की कमी देखी गई है । इसके अलावा तटीय क्षेत्रों में यह गिरावट निश्चित रूप से 70 से 80% तक दर्ज की गई है । विश्व भर में गोरैया की 26 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से 5 भारत में देखने को मिलती हैं । नेचर फॉरेवर सोसायटी के अध्यक्ष मोहम्मद दिलावर के विशेष प्रयासों से वर्ष 2010 में पहलीबार विश्व गौरैया दिवस मनाया गया था । तब से ही यह दिन पूरे विश्व में हर वर्ष 20 मार्च को गोरैया के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जाता है । गोरैया के जीवन संकट को देखते हुए वर्ष 2012 में उसे दिल्ली के राज्य पक्षी का दर्जा भी दिया गया था । हालात अभी भी जस के तस ही हैं. वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के सहयोग से बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी सिटीज़न स्पैरो के सर्वेक्षण में पता चला कि दिल्ली और एनसीआर दिल्ली में वर्ष 2005 से गोरैया की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है । सात बड़े शहरों में हुए इस सर्वेक्षण में सबसे ख़राब नतीजे हैदराबाद में देखने को मिले । उत्तर प्रदेश में भी तत्कालीन सरकार के समय गोरैया के संरक्षण के लिए विशेष प्रयास और जागरूकता अभियान चलाए गए थे, पर वर्तमान में सब ठप है।

    यूपी, एमपी और राजस्थान में पक्षियों के संरक्षण के लिए कार्य करनेवाली संस्था भारतीय जैव विविधता संरक्षण संस्थान की अध्यक्ष सोनिका कुशवाहा बताती है कि गोरैया के संरक्षण की प्रक्रिया में एक मुश्किल उसकी गणना में आती है, फिर भी रिहायशी और हरियाली वाले इलाकों में सर्वेक्षण और लोगों की सूचना की मदद से उसे गिनने की कोशिश की जाती है । इसके लिए हम लोगों से अपील करते हैं कि अपने आसपास दिखाई देने वाली गौरैया की संख्या की जानकारी हम तक पहुंचाइये । वर्ष 2015 की गणना के अनुसार लखनऊ में सिर्फ 5,692 और पंजाब के कुछ चयनित इलाकों में लगभग 775 गौरैया थी । वर्ष 2017 में तिरुवनंतपुरम में सिर्फ 29 गौरैया पाई गई, जो दुःखद स्थिति है।

    मानवीय विलासिता : गोरैया की विनष्टता लिए

    विज्ञान से विकास तो होती है, किंतु उसके सामने चुनौती भी आती है । विकास हमारी टेक्नोलॉजी का परिणाम है । हम आत्मनिर्भर तो होते हैं, किंतु प्रकृति से दूर होते चले जाते हैं । हमारी अपेक्षा जब महत्वाकांक्षा में तब्दील हो जाती है, तब मानवेतर प्राणियों के प्रति हम कुटिल हो जाते हैं, यह कुटिलता जटिलता के सापेक्ष हो जाता है । यह विदित हो चुका है कि गोरैया पालतू पक्षी है, किंतु उस सुग्गे की भाँति नहीं, जो सोने के पिंजरे में बंद होकर सोने की कटोरी में दूध-भात खाती हैं । उस कबूतर की भाँति भी नहीं, जो पालतू बन अपने मालिक को अपने बच्चे का भोग लगाती हैं । विकास होनी चाहिए, किंतु यह विकास विनाश नहीं बने ! जंगल की बेतहाशा कटाई न होकर उनसे परिपक्व पादपों की ही सफाई हो, तो बेहतर है ! मनुष्य के अंदर जो दिल है, दरअसल में गोरैया पक्षी उनके ही करीब है । जब मानव दुष्ट प्रवृत्ति के होते चले जायेंगे, तो गोरैया भी दिल के मरीज व हृदयाघात के शिकार होंगे ही ! यह भावनात्मक-लगाव ही है, जो गोरैया को जीवन प्रदान करता है । यह प्राणी प्रकृति और शिष्ट मनुष्यों के बीच सहचारी का कार्य करती हैं । मानवीय बच्चे इनके करीब तो हैं, किंतु ज्यों-ज्यों ये बच्चे मर्द बनते जाते हैं, उनके व्यवहार में तब्दीली आती जाती है । हमारी नई पीढ़ी इन सबके साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता है । ऐसे कितने घर हैं, जहाँ दूसरे के पशु-पक्षियों को या वन्यजीवों के लिए दरवाजे या मुंडेर पर दाना-पानी रखते हैं, उत्तर मिलेंगे- 1% से भी कम ! गोरैया मनुष्यों के प्रकृति और सदवृत्ति से जुड़ी प्राणी हैं, वे शिष्ट मनुष्यों के शुभचिन्तक हैं ! वैसे वे सभी प्रकार के मनुष्यों के शुभचिंतक हैं, किंतु अशिष्ट मनुष्यों की धूर्त्तता से उनकी प्रजाति विलुप्त होती चली जा रही है। हाँ, यह सच है कि शीशे के आगे हम मानव ही चेहरे नहीं निहारते हैं, अपितु गोरैये आदि प्राणी भी शीशे के साथ स्वयं को निहार स्वयं को दिलबाग कर बैठती हैं।

    आज उनके संरक्षण की महती आवश्यकता है । दुनिया भर में 20 मार्च को गोरैया संरक्षण दिवस के रूप में मनाकर हम उसके प्रति सहानुभूति दिखाते हैं । सिर्फ एक दिन ही क्यों ? बाकी 364 दिन क्यों नहीं ? ध्यातव्य है, यह दिवस पहलीबार 2010 में मनाई गई थी । लेखक प्रभुनाथ शुक्ल ने  प्रसिद्ध पर्यावरणविद मो. ई. दिलावर के प्रयासों को नमन किया है ।आदरणीय पर्यावरणविद के बहाने उन्होंने लिखा है कि गोरैया का संरक्षण हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। मो. ई. दिलावर नासिक से हैं। वह बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़े हैं। उन्होंने यह मुहिम 2008 से शुरु की थी। आज यह दुनिया के पचासाधिक देशों तक पहुंच गयी है । गोरैया के संरक्षण के लिए सरकारों की तरफ से कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखती है। पर्यावरणविद मोहम्मद ई. दिलावर ने कहा कि लोगों में गौरैया को लेकर जागरूकता पैदा किए जाने की जरूरत है क्योंकि कई बार लोग अपने घरों में इस पक्षी के घोंसले को बसने से पहले ही उजाड़ देते हैं। कई बार बच्चे इन्हें पकड़कर पहचान के लिए इनके पैर में धागा बांधकर इन्हें छोड़ देते हैं। इससे कई बार किसी पेड़ की टहनी या शाखाओं में अटक कर इस पक्षी की जान चली जाती है। पर्यावरणविद दिलावर के विचार में गोरैया संरक्षण के लिए लकड़ी के बुरादे से छोटे-छोटे घर बनाए जाय और उसमें खाने की भी सुविधा हो। उनके विचार में मोर (मयूर) की मौत का समाचार मीडिया की सुर्खियां बनती है, लेकिन गोरैया को कहीं भी जगह नहीं मिलती है। वह आगे  कहते हैं कि अमेरिका और अन्य विकसित देशों में गोरैयों सहित सभी पक्षियों के ब्यौरे भी रखे हैं । उन्होंने पक्षियों के संरक्षण के लिए कॉमन बर्ड मॉनिटरिंग आफ इंडिया के नामक् वेबसाइट भी बनायी है, जिसपर कोई भी पक्षियों से संबंधी जानकारी और आंकड़ा निकाल सकते हैं। यह संस्था स्पैरो अवार्ड्स भी देती है। ज्ञातव्य है, आंध्र यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में गोरैया की आबादी में 60 फीसदी से अधिक की कमी आयी है। ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसाइटी आफ प्रोटेक्शन आफ बर्डस‘ ने विलुप्ति के कारण इस चुलबुली और चंचल पक्षी को ‘रेड लिस्ट‘ में डाला है । दुनिया भर में ग्रामीण और शहरी इलाकों में गौरैया की आबादी घटी है । गोरैया पासेराडेई परिवार की सदस्य है, लेकिन इसे वीवरपिंच का परिवार का भी सदस्य माना जाता है । यह अधिकांश झुंड में रहती है । यह अधिकतम 2 मील की दूरी तय करती है । गोरैया को अंग्रेजी विज्ञान में पासर डोमेस्टिकस के नाम से बुलाए जाते हैं। इस पक्षी को अधिक तापमान अखरता है।

    मैं मोबाइल टावर की बात नहीं कर रहा, किंतु अगर लगातार मोबाइल व्यवहार से उपयोगकर्त्ता को क्षति पहुंच सकती है, तो असंख्य चालू मोबाइलों से निःसृत rays and radiation की उपस्थिति मात्र से यह छोटी चिड़िया के दियाद-गोतिया विनष्ट होने के कगार पर क्यों नहीं पहुँच सकती है, सिर्फ गोरैया की नहीं ! छोटी चिड़िया बुलबुल, रसपिया या रसपीया आदि की यही दु:स्थिति है । गाँव भी शहर बनते जा रहे है । वनों का सफाया, युवा वृक्षों की कटाई, तालाबों में मिट्टी भरकर सपाट किये जा रहे हैं, उसपर गैस गोदाम या पेट्रोल पंप बन रहे हैं । विदित हो, छोटी-छोटी पक्षियों को नदियों से जल ग्रहण करने में डर और संकोच होती है, किंतु तालाबों व पोखरों से ऐसा नहीं होती है । बहती नदियों के जलस्रोत में हिंसक जलीय जीव भी तो सकते हैं । इसके साथ ही गोरैये के डैने उतने मजबूत भी तो नहीं होते हैं । बाग-बगीचों अथवा शहरी पार्कों में मनुष्यों ने ही तो कब्जा कर रखे हैं । मिट्टी और फुस का घर गोरैयों के आवासन के लिए सबसे अनुकूल है। आकाश चूमती इमारतें और संचार-संबंधी तमाम activities उनके लिए जीवन दूभर कर दिए हैं । मोटरकारों, रेलों की पों-पों सहित प्रदूषित पर्यावरण और उद्योग-धंधों की विकास-यात्रा लिए कल-कारखानों से निकली धुंए से उनके जीवन अभिशप्त हो रहे हैं । गोरैया घास के बीजों से भी अपनी आहार चुगती है । पर्यावरणप्रेमी से लेकर पर्यावरणविद तक गोरैयों के दशा एयर दिशा को लेकर बेहद चिंतित हैं, परंतु भारत के ही नहीं, प्राय: देशों के वन और पर्यावरण मंत्रालयों का रुख इस ओर बेरुखी लिए है। कृषि में भी जैविकनाशक दवाइयों का छिड़काव बीज को विषाणु बना दे रहे हैं, हालाँकि यह मनुष्यों को सीधे तौर पर attack नहीं कर रहे हैं, किंतु गोरैयों द्वारा इन कीड़े-मकोड़े को चखने मात्र से वे असमय काल-कवलित हो रहे हैं । पतंगबाजी प्रतियोगिता, हवाईअड्डे के आसपास वाले क्षेत्र, तो चील, गिद्ध, कौवे इत्यादि झपटमार बड़े पक्षी भी उन्हें ‘चट मंगनी, पट ब्याह’ की भाँति उन्हें शीघ्र ही आहार बना लेते हैं । ज्ञात हो, पतंगों के खेल में उनके चोंच, पैर, पंख और आँख घायल हो जाया करते हैं । गोरैयों के अंडे, बच्चे व चूजे को सर्प आदि हिंसक जीव या दुष्ट प्राणी आहार बना लेते हैं । भारत में गोरैया संरक्षण के लिए नियम बनानेवाले महाराष्ट्र पहले राज्य हैं, उत्तर प्रदेश दूसरे, दिल्ली तीसरे और चौथे में बिहार आते हैं। सर्वप्रथम वर्ष 2008 में गोरैया के संरक्षण के लिए जागृति लिए चलाई गई  वैश्विक मुहिम ने रंग लाई । विश्व गोरैया दिवस 20 मार्च 2010 को पहलीबार व्यवस्थित ढंग से नेचर फाइबर सोसायटी के द्वारा मनाया गया। सनद रहे, प्राय: गोरैये का जीवन काल 11 से 13 वर्ष होता है। यह समुद्र तल से 1,500 फीट ऊपर तक पाई जाती है। गोरैया पर्यावरण में कीड़ों की संख्या को कम करने में मदद करती है।

    गोरैयों के प्रभावी चिंतक

    भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक मो. सलीम अली ने भी इस पर बेइंतहा कार्य किये हैं, वहीं लखनऊ की लेखिका श्रीमती संतोषी दास लिखती हैं कि गौरैया की चूं चूं अब चंद घरों में ही सिमट कर रह गई है। एक समय था जब उनकी आवाज़ सुबह और शाम को आंगन में सुनाई पड़ती थी। मगर आज के परिवेश में आये बदलाव के कारण वह शहर से दूर होती गई। गांव में भी उनकी संख्या कम हो रही है। आधुनिक घरों में गोरैया के रहने के लिए कोई जगह नहीं है । विदित हो, घर पर महिलाएं अब न तो गेहूं सुखाती हैं, न ही धान कूटती-पीसती हैं, जिससे उन्हें छत पर खाना नहीं मिल पाती है। घरों में टाइल्स का इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है, जिससे गोरैया को फुदकने में परेशानी हो रही है । पक्षी विज्ञानी श्री हेमंत सिंह के अनुसार, गोरैया की आबादी में 60% से 80% तक की कमी आई है। अगर इसके संरक्षण के उचित प्रयास नहीं किए गए, तो हो सकता है कि गोरैया इतिहास की चीज बन जाए और भविष्य की पीढ़ियों को यह देखने को ही न मिले। लखनऊ विश्वविद्यालय में जंतु विज्ञान विभाग की प्रो. अमिता कन्नौजिया और उनके स्टूडेंट्स ने 8 जगहों पर गौरेया की संख्या जानने के लिए गणना की। इसमें चौंकाने वाला तथ्य यह सामने आया कि जो ग्रामीण क्षेत्र थे, वहां पर गौरेया की संख्या बेहद कम पाई गई, शहरी इलाके के बनिस्पत। इसका सबसे बड़ा कारण यह माना गया कि गांव अब आधुनिक हो रहे हैं, जिससे वहाँ भी गौरेये पर संकट मंडराने लगा है। लखनऊ में 2018 में इस सर्वेक्षण के समय सिर्फ 2,767 गोरैये पाए गए। लखनऊ में सर्वेक्षण हेतु 8 स्थान रहे, यथा- इटौंजा, बीकेटी, मोहान, अमेठी, गुसाईगंज, काकोरी, मलिहाबाद और डालीगंज। यह काउंटिंग उन्होंने वैज्ञानिक मैथेड प्वाइंट काउंटिंग और लाइन ट्रासिट मैथेड से किया। इसमें सबसे चौंकाने वाली बात यह सामने आई कि गांव में गोरैया की संख्या कम थी। इस गणना से यह पता चला कि इटौंजा में सबसे कम गौरेया थी। वहां पर गणना में गोरैया की संख्या 17 पाई गई। वहीं लखनऊ शहर के डालीगंज में 927 गौरैया पाए गए। प्रो. अमिता ने बताया कि यह सर्वे गोरैया पक्षी पर Ph. D. कर रहे उनके स्टूडेंट्स द्वारा किए गए हैं। इस सर्वे में यह पता चला है कि लखनऊ में कुल 2,767 गौरैया रहे हैं, यथा- डालीगंज में 927, इटौंजा में 17, बीकेटी में 200, मोहाना में 100, अमेठी में 100, गुसाईगंज में 50, मलिहाबाद में 150 रहे।  ज्ञात हो, यह कौतूहल और समर्पण की बात है कि उत्तरप्रदेश के आलमबाग निवासी श्री सुरेंद्र प्रसाद पाण्डेय ने तो अपना पूरा घर गौरैया के नाम कर दिया है, जिन्होंने अपने बगीचे में 15 टाइप्स के मानवनिर्मित घोंसले भी बनाए, जो दाना-पानी युक्त है।

    और अंत में

    भारत में उपलब्ध प्राचीन लेखों के अनुसार, यह पक्षी जिस भी घर में या उसके आंगन में पाई जाती है, वहाँ सुख-शांति बनी रहती है, किंतु प्रसन्नता सिर्फ पाने ने नहीं, इसे खोने में भी है ! हम विलासी बने और गोरैयों से दूर हो गए । प्राचीन हिन्दू धर्म में ऐसे और भी पक्षी हैं, जिनके धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व हैं । पक्षियों को हिंदू धर्म में देवऔर पितर माना गया है। ऐसी मान्यता है, जिस दिन आकाश में विचरते पक्षी लुप्त हो जाएंगे, उस दिन धरती से मनुष्य भी लुप्त हो जाएगा ! किसी भी पक्षी को मारना, अपने पितरों को ही मारने-जैसा है। भारतकोश में गोरैया को जंतु (Animalia), संघ- कोर्डेटा (Chordata), वर्ग- एवीज (Aves), गण- पैसरीफोर्म्स (Passeriformes), कुल- पैसरेडी (Passeridae), जाति- पैसर (Passer), प्रजाति- डोमेस्टिकस (domesticus), द्विपद नाम- पैसर डोमेस्टिकस (Passer domesticus‌) लिखा गया है। इस पक्षी की मुख्यत: 6 प्रजातियां बताई गई है। जो ऊपर वर्णित है । इसके अतिरिक्त सोमाली, पिंक बैक्ड, लागो, शेली, स्कोट्रा, कुरी, कैप, नार्दन ग्रे हैडॆड, स्वैनसन, स्वाहिल, डॆहर्ट, सुडान गोल्ड, अरैबियन गोल्ड, चेस्टनट इत्यादि नामक गोरैया विभिन्न देशों में पायी जाती है। इनके रंग-रुप, आकार- प्रकार देश-प्रदेश की जलवायु के अनुसार परिवर्तित होते रहे हैं।

    यह गल्प आख्यान हो सकती है कि सृष्टि के निर्माण के साथ ही इस धरती बनी हो ! इसके बाद वृक्ष, वन, वायु, पानी, आग, जीव-जंतु, पक्षी-कीटप्राणी भी उत्पन्न हुए । बादल-पानी, नदी-निर्झर, महानद-सागर हुए हो ! एक भाग धरती और शेष तीन भाग पानी से भर दिए हो, ताकि प्राणी जीवित रह सके ! …. और अंत में धरती को श्रृंगार रस में भिंगोने के बाद उन्होंने मानव की उत्पत्ति हुई ! सृष्टि में मानव को बुद्धि से आच्छादित की गई और तभी से सृष्टिकर्त्ता ‘मानव’ के प्रति सशंकित हो गए! सृष्टिकर्त्ता ने निर्माण कार्य छोड़ दिया, जब से मनुष्य के द्वारा निर्मित हर चीज कितना गहरा असर जन-जीवन पर डाल रही है ! मनुष्य के द्वारा निर्मित हर चीज कितना गहरा असर जन-जीवन पर डाल रही है । कई पशु-पक्षी विलुप्त हो गए । छोटी चिड़िया गोरैया भी उनमें से एक है। अमर उजाला के लिए लेखक श्री अमित शर्मा लिखते हैं कि हमारे बचपन की दोस्त गौरैया अब हमारे घर नहीं आती। अपना घर बनाने की चाहत में हमने उनसे उनका प्राकृतिक आवास और भोजन छीन लिया है। यही वजह है कि गौरैया अब हमसे लगातार दूर होती जा रही है और कई क्षेत्रों में तो अब ये देखने को भी नहीं मिलती ! पक्षीप्रेमी अर्जुन जी के हवाले कहना है कि मोबाइल टावर्स की तरंगें नहीं है समस्या। दिल्ली के चांदनी चौक के रहने वाले अर्जुन जी ने बताया कि अगर हम अपने घरों में कृत्रिम रूप से उनके लिए घोंसले बना दें, तो गौरैया को अंडे देने की जगह मिल जाएगी। अंडे देने का उनका समय अगस्त से नवंबर के बीच होता है। ऐसे में अगर हम उन्हें ‘जगह’ उपलब्ध करवा दें, तो वे हमारे पास वापस आ सकती हैं। उन्होंने बताया कि वे दिल्ली के हजारों घरों में अब तक घोंसले बना चुके हैं और इन घरों में गौरैयों को वापस आते हुए और अपने अंडों को पालते हुए देखा है। उनके आवास के लिए बॉक्स कुछ बड़े साइज में होनी चाहिए। वे बॉक्स में कुछ कॉटन और सूखी पत्तियां रख देते हैं। इस बॉक्स को जमीन से आठ से दस फीट की ऊंचाई पर रख देते हैं जहां ये सुरक्षित रह सकें। इन घोंसलों पर पानी नहीं पड़ना चाहिए। इनके आसपास थोड़ी दूर पर पीने के लिए पानी का एक पात्र भी रख देते हैं और कुछ दूर पर उनके खाने की चीजें जैसे उबले चावल, पोहा या रोटी के टुकड़े बिखेरने वाले अंदाज में रख दी जानी चाहिए। इससे गौरैयों को यह उनका प्राकृतिक आवास जैसा महसूस होता है और वे इनमें वापस आ जाती हैं।

    छोटे-छोटे दानोंवाले अनाजों की खेती न होने से गोरैया के आहार में कमी आयी है, जिससे गौरैया को खाने के लिए चीजें नहीं मिल रही हैं। गोरैया कीड़ों को भी खाना पसंद करती है, लेकिन शहरों में ढकी नालियों के चलते अब गोरैयों के लिए कीड़ों की उपलब्धता में भी भारी कमी आई है, जिससे उनका जीवन असहज हुआ है। इस पक्षी की सैकड़ों प्रजातियां दुनिया के हर कोने में पाई जाती हैं, लेकिन प्राकृतिक स्थलों के बदलाव के कारण अब इनकी संख्या में तेजी से कमी हो रही है । एक रपट के अनुसार, सिर्फ गोरैया ही नहीं, वरन दुनिया की हर 8वीं चिड़िया की प्रजाति पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। अमेरिकी संस्था ‘कार्नेल लैब’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1966 की संख्या के आधार पर गोरैया की संख्या में 84% तक की कमी आई है। ब्रिटेन में गोरैया की संख्या अब आधी से भी कम रह गई है। इस पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए ही प्रतिवर्ष 20 मार्च को विश्व गोरैया दिवस मनाया जाता है। भारत सरकार ने 2010 में गोरैया पर डाकटिकट जारी किया और दिल्ली सरकार की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने वर्ष 2012 में गौरैया को दिल्ली का राज्य पक्षी घोषित की। हमें युद्धस्तर पर इस मासूम पक्षी के संरक्षण के लिए अतुलनीय प्रयास करने ही पड़ेंगे, तभी हमारी पीढ़ी इसे देख पाएंगी!
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    संदर्भ :-
    ——–
    1. श्री प्रभुनाथ शुक्ल/आईचौक.इन/मार्च 2018
    2. सुश्री/श्री मेधाविनी मोहन/सत्याग्रह/मार्च 2018
    3. सुश्री/श्री संतोषी दास/पत्रिका/लखनऊ/प्रकाशनावधि-N.A.
    4. श्री अमित शर्मा/अमर उजाला/सितंबर 2019
    5. भारत कोश और विकिपीडिया से स्रोत-संदर्भित।
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    ● रचनाकार : डॉ. सदानंद पॉल

    ●रचनाकार परिचय :- तीन विषयों में एम.ए., नेट उत्तीर्ण, जे.आर.एफ. (Mo C), मानद डॉक्टरेट. ‘वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ लिए गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स,RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकार्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्स होल्डर सहित सर्वाधिक 300+ रिकॉर्ड्स हेतु नाम दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: ‘नेशनल अवार्ड’ प्राप्तकर्त्ता. पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 10,000 से अधिक रचनाएँ और पत्र प्रकाशित. सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में qualify. पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.

  • सेक्स की समस्या और समाधान

    सेक्स की समस्या और समाधान

    सेक्स की इतनी अधिक समस्याएं मनुष्य की मूढ़ता के कारण पैदा हुई हैं । बहुत ही सुगमता से इसमें प्रवेश कर इसका आनंद उठाया जा सकता है और इसके बाद इसे रूपांतरित कर उच्चतर आनंद की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है ।
          ओशो ने मनुष्य के जीवन में हर सात साल के बाद एक परिवर्तन पाया है । उसके शारीरिक-मानसिक परिवर्तन के अनुरूप ही शिक्षा-व्यवस्था होनी चाहिए । अगर ऐसा हो तो मनुष्य हर अवस्था के सुखों को भोगते हुए पचास वर्ष तक पहुंचते हुए बुद्धत्व को भी उपलब्ध हो सकता है ।
          मनुष्य का प्रथम सात वर्ष अत्यंत निर्दोष सरलता, सहजता पावनता और खेल का होता है । ऐसी शिक्षा होनी चाहिए जिससे उसके स्वाभाविक गुण निखरते चले जायं, जबकि होता इसके विपरीत ही है । अगले सात वर्षों तक उसके अंदर सेक्स के बीज अंकुरित होने लगते हैं और चौदहवें वर्ष में वे प्रत्यक्ष दिखायी पड़ने लगते हैं । 14 से लेकर 21 तक निरंतर विकसित होती हुई सेक्स- शक्ति उफान पर पहुंच जाती है । इसके बाद अगले सात साल तक वह और मजबूती को प्राप्त करती है । इसके अगले सात वर्ष स्थिर रहती है । उसके बाद ढलान शुरू होती है ।
          21 वें साल के आसपास जब सेक्स- शक्ति चरम पर होती है, उसी समय युवक-युवतियों के मिलन की व्यवस्था होनी चाहिए ।
           सेक्स जब मन को पागल बनाने लगता है तो आप यह नहीं कह सकते कि ध्यान करो, भजन-कीर्तन करो, सृजन में लग जाओ, पढ़ाई पर चित्त लगाओ । नहीं, यह गलत होगा । इस तरह की बातें अमनोवैज्ञानिक और मूढ़तापूर्ण हैं ।  यह ऐसी अवस्था है, जहाँ पहुंचने पर नारद जैसे ज्ञानी और भक्त भी कह उठते हैं —

              जप तप कछु न होइ तेहि काला ।
              हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ।।

    “इस समय जप-तप  कुछ नहीं हो सकता । हे विधाता ! किसी तरह वह कन्या मुझे मिले !”
          नारद जी की इस काम-पीड़ा को दर्शाने वाले मर्यादावादी कवि तुलसीदास जी हैं । कहा जाता है कि भगवान बुद्ध के पास ध्यान के लिए किसी भूखे को लाया गया तो भगवान ने यही कहा कि पहले इसे भरपेट खाना खिलाओ । यह कहावत तो प्रसिद्ध ही है कि ” भूखे भजन न होहिं गोपाला” ! वह भूख चाहे पेट की हो या सेक्स की, पहले उसकी पूर्ति होनी चाहिए । उसके बाद उसे रूपांतरित करने की बात सोची जानी चाहिए ।
          ऐसा नहीं होने का परिणाम है कि ऊपर-ऊपर हमारा समाज कुछ ओर है तथा भीतर कुछ और । हमारे समाज का भीतरी सच यह है — हस्तमैथुन, समलैंगिकता, बाल यौनाचार, परिवार के अंदर यौनाचार, यौन व्यापार, छेड़खानी, बलात्कार इत्यादि । सेक्स के उद्दाम वेग पर नैतिकता, मर्यादा, संस्कृति आदि के नाम पर रोक लगाने का उपर्युक्त परिणाम हमारे सामने । इसलिए सुधीजनों को शांतिपूर्वक विचार कर सेक्स को सहज सुलभ कराया जाना चाहिए ।
          इसके बाद सेक्स के ऊपर का सुख पाने का प्रयत्न होना चाहिए । इस दृष्टि से भी हमारा समाज बांझ है । सेक्स का अभाव बनाये रखने के कारण चित्त उसी पर जीवन पर्यंत लगा रहता है । उससे ऊबने का अवसर ही नहीं मिलता और बुढ़ापे तक लालसा बनी रहती है । लेकिन शक्ति क्षीण होने के कारण संताप पैदा होता है और बुढ़ापा डरावना हो जाता है, जबकि वह शांतिपूर्ण और आनंदपूर्ण हो सकता है ।
          यौन-सुख को उच्चतर सुख में रूपांतरित करने के तीन उपाय हैं — ध्यान, सृजन और प्रेम ।
          ध्यान एक चमत्कारी औषधि है । व्यक्ति-भेद के कारण इसके द्वारा जीवन में अनेक रूपांतरण घटित होते हैं । मैं अपने अनुभव की चर्चा यहाँ करूंगा ।
          मेरी सेक्स-समस्या का समाधान ओशो की शरण में जाने से हुआ । इसके पहले जितने लोगों तक मैं पहुंच सकता था, पहुंचा । किसी के पास समाधान नहीं था । न किसी विद्वान के पास, न किसी साहित्यकार के पास और न महर्षि मेंहीं के पास ।
         मैंने पहली बार ओशो की पुस्तक “ध्यानयोग : प्रथम और अंतिम मुक्ति” का पारायण किया और उसमें वर्णित सक्रिय ध्यान का प्रयोग किया । वह मेरे जीवन में क्रांतिकारी साबित हुआ । प्रथम चरण के कुछ ही मिनटों में पूरे शरीर में बिजली दौड़ गयी ! लगा कि इस करेंट से मेरी जान जा सकती है । और डर के मारे मैंने सांसों की तेज और गहरी गति को शिथिल कर दिया । इसके बाद आनंद की लहर उमड़ी । यह सब देख मैं चकित विस्मित था । इतनी छोटी-सी क्रिया और इतना बड़ा आनंद ! आश्चर्य तो यह कि यह यूनिवर्सिटी के किसी प्रोफेसर को नहीं मालूम ! निराला की कविता याद आयी —
     
              पास ही रे हीरे की खान
              खोजता फिरता कहाँ नादान ?

    मैं कहाँ भटक रहा था ! कबीर जैसा अनुभव हुआ —

         पीछे लागा जाइ था, लोक बेद के साथ
         आगैं थैं सद्गुरु मिल्या दीपक दिया हाथ

    कबीर कहते हैं कि अन्य लोगों की तरह मैं भी लोक के पीछे और शास्त्र के पीछे भटक रहा था। गुरु आगे से आकर मिले और कहा, लो यह दीपक । इसकी रोशनी में चलो ।
            तब से मैं सद्गुरु के द्वारा दिये गये ध्यान रूपी दीपक की रोशनी में ही चलता हूँ । अभी उसकी रोशनी क्षीण है । आगे तेज होगी । और भी सधे कदम उठेंगे ।
           आरंभ में देखा कि ध्यान करने से काम-भावना और प्रदीप्त हो उठी । कामरस और ज्यादा आनंददायी हो गया । स्त्रियों का सौंदर्य बढ़ गया । प्रकृति निखरी-निखरी लगने लगी ।
           धीरे-धीरे मालूम हुआ कि यह जीवन तो सांसों का खेल है ।सांस लेने के ढंग में परिवर्तन करने से जीवन में परिवर्तन आ जाता है । अशांत जीवन को सांस में परिवर्तन लाकर शांत किया जा सकता है । गरमी में शीतलता लायी जा सकती है और ठंडी में गरमी पैदा की जा सकती है । एक ढंग की सांस जीवन ऊर्जा को ऊपर उठाती है, जबकि दूसरे ढंग की सांस नीचै गिराती है । सांसों को नियंत्रित कर संभोग अवधि मनोवांछित समय तक बढ़ायी जा सकती है और पूर्ण तृप्ति पायी जा सकती है । यह तृप्ति उससे मुक्ति में सहायक बन जाती है ।
            आती-जाती सांसों का निरीक्षण हमें निर्विचार अवस्था में लेकर चला जाता है । वहीं समाधि फलित हो सकती है । कहते हैं, भगवान बुद्ध यही प्रक्रिया अपनाकर बुद्ध हो गये थे ! ध्यान से ही भौतिक ज्ञान प्राप्त होता है, ध्यान से ही आत्मिक ज्ञान प्राप्त होता है ।ध्यान को शिक्षा का अनिवार्य विषय बनाया जाना चाहिए ।
          ध्यान से हम शून्यानंद प्राप्त करते हैं । इसे पाने पर सेक्सानंद फीका हो जाता है । जिसे मानसरोवर का जल सुलभ हो वह गड्ढे का जल पीने किसलिए जायेगा ?
           सेक्स पर विजय पाने का दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग है सृजनशीलता । इसका अर्थ यह नहीं है कि कविता-कहानी लिखी और सृजनशील हो गये ! सृजनशीलता का अर्थ है कर्मलीनता । किसी भी काम में लीन होना सृजनशील होना । लीनता में हमारे अहं का विलयन हो जाता है । अहं के खोते ही आनंद उमड़ता है और कर्म में कुशलता आ जाती है । स्वभावतः हमारी ऊर्जा उसी ओर प्रवृत्त हो जाती है । जिस ऊर्जा से हम सेक्स की तरफ दौड़ते हैं, वह सृजन में लग जाती है और हमारी कामेच्छा विलीन होने लगती है ।
          सेक्स से ऊपर उठाने में प्रेम महती भूमिका अदा करता है ।  लेकिन उचित पात्र का प्रेम पाने की आशा में बैठा नहीं रहना चाहिए । जो भी मिले उसपर प्रेम लुटाने की क्षमता आ जाय तो जीवन में क्रांति आ जाती है । शर्त इतनी है कि प्रेम लुटाने में प्रतिदान की आशा नहीं रहनी चाहिए । ऐसा हो जाय तो प्रेम ब्याज सहित लौटता है । सौ गुना होकर लौटता है । प्रेमानंद बड़ा रस है । इसमें छके व्यक्ति को सेक्स की सुधि कहाँ रहती है ? वह अपने आप संतुलित हो जाता है ।
           इस तरह सेक्स की समस्याओं से बचने के लिए जो उपाय बताए गये हैं, प्रयोग कर देखना चाहिए कि इसमें सचाई है या नहीं ?


    आलेख : मटुकनाथ चौधरी

    ( सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष हिंदी, पटना विश्वविद्यालय )

     

  • वैश्विक चिंतन के साथ गतिमान है मैथिली साहित्य

    वैश्विक चिंतन के साथ गतिमान है मैथिली साहित्य

    साहित्य हमेशा मानव जाति के लिए, मानवीय कल्याण के लिए दृष्टि विस्तार की बात करता है। साहित्य लेखन को ठीक से देखा जाए तो लगेगा साहित्य समाज के लिए समालोचक की भूमिका भी निभाता है। बेपटरी हो रहे समाज को पटरी पर लाने के लिए साहित्यकार काफी प्रयास करते हैं। आज के समय में नैतिकता, सामाजिकता, परस्पर सहभागिता, अनुशासनबद्धता, मानवीयता, मानव मूल्य आदि क्षरणोन्मुख है, जिसमें साहित्य हीं भटके को सहारा देकर रास्ते पर ला सकता है ।

    समय के अनुसार मनुष्य के विचार और स्वभाव में परिवर्तन होता रहता है। समाज में भी वह परिवर्तन देखा जाता है। नकारात्मक दिशा मे परिवर्तन किसी काम का नहीं हो सकता है । आज के अच्छे साहित्य को पढ़कर इस भ्रम से अपने आप को निकाला जा सकता है। इसी का परिणाम है कि साहित्य आदिकाल में जिस स्थिति में था, आज उसमें बहुत दूर तक बदलाव दिखाई पड़ता है। आज विषयवस्तु, शिल्प, शैली और तेबर में जो बदलाव हुआ है, वह समय की मांग है। पाठक-श्रोता नवीन बातों को आत्मसात करना चाहते हैं। साहित्य अपनी सार्थकता इन्हीं के बीच से ग्रहण करता है। ऐसी परिस्थिति में साहित्यकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है। युवाओं पर कोई भी देश निर्भर होता है, भारत में भी युवाओं की संख्या इस हिसाब से महत्त्वपूर्ण है। इन्हे उचित और तर्कपूर्ण साहित्य की आवश्यकता है। अन्य विधा तो बाद में भी लोग सिखते हैं, लेकिन जन्म के साथ गीत-कवित्त तो प्रायः सुनते हीं हैं। भारतीय संस्कृति में घर में कोई मांगलिक कार्य बिना गीत का संभव हीं नहीं है। दादी-नानी का खिस्सा कौन नहीं बचपन में सुनता है? इसलिए यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मनुष्यों को साहित्य के साथ जुड़ाव जन्म से हीं रहता है, और यह आवश्यक भी है । इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मनुष्य अपने विचारों-संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए साहित्य को माध्यम रूप में चयन कर अभिव्यक्त करते हैं ।

    मैथिली साहित्य के श्रेष्ठ समीक्षक-आलोचक आचार्य रमानाथ झा प्रबन्ध संग्रह में लिखते हैं– “साहित्य का शरीर है भाषा । संवेगात्मक अनुभूति, जिसे साहित्य शास्त्र में रस का आख्या कहा जाता है, भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होता है । वह इसिलिए किसी साहित्य का इतिहास उस भाषा के इतिहास से संश्लिष्ट रहता है जिस भाषा मे वह साहित्य उपनिबद्ध रहता है । परन्तु भाषा का स्वरूप स्थिर नहि रहता है । विश्व इतिहास में संस्कृत हीं केवल ऐसी भाषा है जो भगवान पाणिनि के द्वारा संस्कृत होकर उस रूप में प्रतिष्ठित हुआ है जो आज तक अपने स्वरूप में सभी जगह सभी समय में स्थिर रखे हुआ है । 1 “

    भारतीय साहित्य के अन्तर्गत मैथिली भाषा का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह मूल रूप से बिहार, झारखंड के कुछ भाग संथाल परगना सहित एवं नेपाल के तराई क्षेत्रों में बोली जाती है, जो मिथिला प्रदेश के नाम से जाना जाता है। मैथिली साहित्य अति प्राचीन है, जिसका आद्य उपलब्ध ग्रंथ ज्योतिरीश्वर कृत वर्णरत्नाकर है। ज्योतिरीश्वर से पूर्व भी ऐसे रचनाकार हो सकते हैं, जिनका नाम अज्ञात है, क्योंकि एकाएक किसी भाषा में इतनी सुंदर पुस्तक कैसे आ सकती है? ज्योतिरीश्वर भी इस ग्रंथ को लिखने से पहले कुछ लिखे ही होंगे, जो अज्ञात है। मैथिली साहित्य के आदिकालीन सामग्री के रूप में सिद्ध साहित्य, डाक-घाघ वचनावली, लोक गीत, प्राकृत पैंगलम, वर्ण रत्नाकर और धूर्तसमागम है। फिर युग पुरुष महाकवि विद्यापति ने अपनी रचनाओं के माध्यम से साहित्य को ऐसी ऊँचाई प्रदान की, कि उनकी रचनाएं आज भी हिंदी और मैथिली साहित्य की थाती है। शृंगारिक पदावली में शृंगार और भक्ति पदावली में भक्ति का रस उन्होंने इतना बहाया कि वे रसराज कहलाने लगे। सुकवि कवि कोकिल विद्यापति ने मैथिली साहित्य के मध्यकाल का नेतृत्व किया। लोगों के कंठ में आज भी वे बसे हुए हैं।

    मैथिली साहित्य सभी विधाओं में विश्व साहित्य के साथ गतिमान है। प्रबंध काव्य अन्तर्गत महाकाव्य- खंडकाव्य, काव्य, कथा, नाटक, उपन्यास, निबन्ध और आलोचना-समालोचना आदि विधाओं में रचनाकारों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। महाकाव्य की बात की जाए तो ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक आदि सभी विषयों पर एक से बढ़कर एक महाकाव्य लिखे गये हैं, जिनमें मनबोध का कृष्णजन्म, कवीश्वर चंदा झा का रामायण, बदरीनाथ झा का एकावली परिणय, रघुनन्दन दास का सुभद्राहरण, सीतायन, कीचक वध आदि प्रमुख हैं। खंडकाव्य में पतन, उत्तरा, नोर, उत्त्सर्ग आदि लिखे गये हैं। इधर डॉ रमण झा “अहिरावण वध खण्डकाव्य” लिखकर इस विधा को श्रीवृद्धि किये हैं । वर्त्तमान समयमे भी कुछ महाकाव्य लिखे गये हैं जिसमें मैथिली पुत्र प्रदीप का “सीता अवतरण महाकाव्य”, अरविंद नीरज का “परमहंस गोस्वामी लक्ष्मीनाथ महाकाव्य”, विजयनाथ जी का “कन्दर्प-कानन महाकाव्य” आदि जिससे यह विधा पुनः पुनर्जीवित हुआ है। श्री बुद्धिनाथ झा ने अभी-अभी “मैथिली महाभारत” तीन खंडों में लिखकर इस विधा को सम्पोषित किया है, जो मैथिली साहित्य के लिए सुदिन से कम नहीं है । लेकिन अभी प्रबंध काव्य की तरफ लोगों की रुचि कम दिखाई दे रही है, जो चिंतनीय है।

    कथा साहित्य महत्त्वपूर्ण होता है किसी भी साहित्य में। इसमें भी मैथिली साहित्य काफी फला-फूला दिखाई देता है। मिथिला आर्थिक दृष्टिकोण से अभी भी पिछड़ा है, इसलिए पलायन का शिकार सदा से रहा है। फिर भी यहाँ की शिक्षा, संस्कृति, अनुशासन, धर्म-समभाव, लोक-संवेदना, सामाजिक-सौहार्द देखने योग्य है। इसलिए यहाँ की कहानी में कई मौलिक बातें देखने को मिलती हैं। सामाजिक रूढ़ि, धार्मिक आडंबर, जातीय संघर्ष, सामाजिक विषमता पर प्रहार करते हुए कथाकारों ने कई महत्वपूर्ण रचनाओं का सृजन किया है। मैथिली में प्रथम मौलिक कहानी जनार्दन झा ‘जनसीदन’ ने लिखी, जो है “ताराक वैधव्य”। मैथिली कथाक विकास के सम्पादकीय में डॉ. बासुकीनाथ झा लिखते हैं –” मैथिली साहित्य के इतिहासकारों के हिसाब से मैथिली कहानी साहित्य का वास्तविक जन्म बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक मानते हैं, इससे पूर्व की स्थिति पृष्ठभूमि तैयार या धरातल तैयार करने की थी । 2 ” इनके बाद प्रमुख कहानीकार हैं- वैद्यनाथ मिश्र, काली कुमार दास, रास बिहारी लाल दास, कुमार गंगानन्द सिंह, श्यामानन्द झा, हरिनन्दन ठाकुर सरोज, जय नारायण मल्लिक, लक्ष्मीपति सिंह, उपेन्द्रनाथ झा व्यास, हरिमोहन झा, मनमोहन झा, योगानन्द झा, उमानाथ झा। स्वतंत्रता के बाद कुछ विलक्षण कथाकारों ने अपनी कथा से लोगों की बन्द दृष्टि को खोलने का काम बखूबी किया है, जिनमें प्रमुख हैं – शैलेंद्र मोहन झा, सुधांशु शेखर चौधरी, गोविंद झा, और मणिपद्म।

    मैथिली साहित्य के कहानी में मनोवैज्ञानिक पुट भी देखने को मिलता है, साथ हीं कहानी विधा को नये टर्न देकर ऊँचाई तक पहुँचाने का कार्य करने वाले कथाकार ललित, मायानन्द मिश्र, राजकमल चौधरी, सोमदेव, धीरेंद्र, हंसराज और रामदेव झा ने तो अपनी चमात्कारित शैली से कथा साहित्य को अलग मोड़ ही दे दिया। इनकी कहानियों में समकालीन सामाजिक अभिव्यक्ति देखने, पढ़ने और समझने के लिए मिला। फिर आगे आकर जीवकांत, धूमकेतु, राजमोहन झा, रेणु, प्रभाष कुमार चौधरी, बलराम, लीली रे, सुभाषचन्द्र यादव और गंगेश गुंजन, ललितेश मिश्र आदि ने भी कथा साहित्य को काफी समृद्ध किया। वर्तमान समय में भी मैथिली कथा साहित्य का सृजन व्यापक स्तर पर हो रहा है। इस विधा में अभी महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व जो सृजनरत हैं, उनमें अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास, उषा किरण खान, विभूति आनंद, तारानंद वियोगी, विभा रानी, वीणा ठाकुर , केदार कानन, रमेश, शैलेंद्र आनन्द, प्रदीप बिहारी, अर्धनारीश्वर , सुष्मिता पाठक, नीता झा, देवशंकर नवीन, अजित आजाद , दिलीप कुमार झा , ऋषि वशिष्ठ , अनमोल झा आदि शामिल हैं। इससे भी आगे की पीढ़ी में चंदना दत्ता , अभिलाषा, शुभेंदु शेखर, अखिलेश कुमार झा, सोनू कुमार झा, आदि हैं, जो विभिन्न विषयवस्तु पर अपनी रचना से समाज को ओतप्रोत कर रहे हैं। कुछ और महत्त्वपूर्ण लेखकों का नाम लिया जा सकता है जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिख रहे हैं उसमें डॉ. चित्रलेखा अंशु, मनोज कर्ण मुन्ना, नीरज झा, रूपम झा, मनोज कुमार झा, पुतुल प्रियंवदा आदि ।

    ऋषि वशिष्ठ कहते हैं अब साहित्य, समाज का दर्पण नहीं रहा। साहित्य अब असली आलोचक है किसी समाज का। इन्होंने ” गाम सँ जाइत रेलगाड़ी” कथा संग्रह में कथा द्वारा कुंठित व्यथा को निकालने का प्रयास किया है। “गस्सा” कथा संग्रह के द्वारा सोनू कुमार झा ने अपने भीतर चल रहे अन्तर्द्वन्द्व को बेहतरीन सूझबूझ के साथ रखने का प्रयास किया है। वे व्यथित हैं इस सामाजिक परिस्थितियों को देखकर, जिसमें अर्थ के पीछे भाग रहे लोगों के लिए संबंध कुछ भी महत्त्व नहीं रखता। वे कहते हैं जब सामाजिक-पारिवारिक संबंध नहीं, तो किस प्रकार के समाज को बनाने की कल्पना में हैं हमलोग? चंदना दत्ता ने कथा संग्रह “गंगा स्नान” मे स्त्री की उत्कर्ष की कथा लिखी है । अभिलाषा ने अपने “पह” कथा संग्रह के माध्यम से स्त्री जीवन को सकारात्मकता में जीने के लिए उत्साहित किया है। इस संग्रह में हरेक आयु वर्ग की स्त्री की बात की गई है। सभी कहानी को पढ़ते समय कहानी छोड़ने की इच्छा नहीं होती कारण सभी कहानी समृद्ध कहानी है । शुभेंदु शेखर भी इस समय के अच्छे कथाकारों में से एक हैं। उनका कथा संग्रह है – “ओकरो कहियो पाँखि हेतै”। इस संग्रह के द्वारा उन्होंने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि गाँव के परिदृश्य में भी बदलाव हुआ है। वह बदलाव उचित दिशा में आवश्यक है। गाँव के छल- छद्म से भी उन्होंने पर्दा उठाने का प्रयास किया है। “नीर भरल नयन” कथा संग्रह के लेखक अखिलेश कुमार झा ने सामाजिक पीड़ा को आत्मसात कर अपने हृदय की संवेदानाओं को कथा के माध्यम से व्यक्त किया है। इस संग्रह की कथा यथार्थ की भावभूमि पर आदर्शवाद के तरफ इशारा करती दिखाई पड़ती है। मैथिली साहित्य के कथा संग्रह की कथा विश्व साहित्य के समानांतर दिखाई दे रही है।

    साहित्य की नाटक विधा एक जीवंत साहित्य है, जिसमें समाज की सच्चाई को समाज के सामने दिखाया जाता है, साथ ही समाज में उचित बदलाव की तरफ ईशारा करता है। प्रारंभिक नाटक में प्रमुख हैं- ज्योतिरीश्वर कृत मैथिली धूर्तसमागम नाटक, विद्यापति कृत गोरक्ष विजय और मणिमंजरी, उमापति का पारिजातहरण, रत्नपाणि का उषाहरण, जगज्जोतिर्मल्लक का महाभारत और हरगौरी विवाह आदि। आधुनिक काल में जीवन झा ने मैथिली नाटक को नया मोड़ देकर इस विधा को और परिष्कृत किया। फिर आगे भी खूब नाटक लिखा गया। गुणनाथ झा, सुधांशु शेखर चौधरी, गोबिन्द झा, ईशनाथ झा, लल्लन प्रसाद ठाकुर आदि ने नाटक विधा पर काफी काम किया है। वर्तमान समय में महेन्द्र मलंगिया, अरविंद अक्कु, अशोक अविचल, रोहिणी रमण झा, कमल मोहन चुन्नू, ऋषि वशिष्ठ, आनंद कुमार झा, अशोक झा आदि नाटक लेखन में पूर्ण रूप से तल्लीन हैं। महेंद्र मलंगिया का हाल ही में एक नाटक प्रकाशित और मंचित भी हुआ है “छुतहा घैल”। छुतहा घैल नाटक में स्त्री उत्पीड़न को सशक्त ढंग से दिखाकर व्यंग्य किया गया। अशोक अविचल लिखित “हमरा देशक भाग मे” मिथिला की विभिन्न समस्याओं को दिखाया गया है। समस्या के साथ इस नाटक में समाधान भी दर्शाया गया है। “फुटानी चौक” नाटक मैथिली के विशिष्ट नाटककार अरविंद अक्कु जी का है। इसमें देश के सरकारी नियम-कानून में हो रहे परिवर्तन के बाद के परिवर्तन को दिखाया गया है। उस कानूनी परिवर्तन से समाज पर क्या असर पड़ रहा है और उसकी चर्चा गाँव के उस फुटानी चौक पर कैसे होती है, उसे दिखाने का प्रयास हुआ है । हाल हीं में कमल मोहन चुन्नू लिखित-मंचित नाटक “ऑब्जेक्सन मी लार्ड ” में फाँसी के विरुद्ध कुछ अलग विकल्पों से इस प्रकार के समस्याओं को दिखाने के लिए नये रास्ते सुझाएँ हैं, अब इस विकल्प को समाज कितने हद तक स्वीकार करेगी, यह देखने की बात है । युवा श्रेणी में साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से पुरस्कृत आनंद कुमार झा बहुत नाटक लिख चुके हैं और वे मंचित भी हुए हैं। “मुक्ति यात्रा” नाटक में स्त्री की मुक्ति कथा को उन्होंने बहुत बारीकी से उकेरा है। मैथिली साहित्य में नाटक का भी स्वाद अलग तरह का है, जो अन्य भाषाओं में यदि अनुदित होकर मंचित हो, तो इसे और विस्तृत फलक मिलेगा।

    विस्तार से किसी विषय को समाज तक पहुँचाने के लिए उपयुक्त विधा है उपन्यास। विषय पौराणिक हो, ऐतिहासिक हो या समसामायिक, उस विषय के अनुरूप समाज को संदेश देने का काम करते हैं उपन्यासकार। मैथिली उपन्यास के सम्बन्ध में डॉ. दिनेश कुमार झा अपने पुस्तक मैथिली साहित्यक आलोचनात्मक इतिहास में लिखते है — ” मैथिली का सर्वप्रथम मौलिक उपन्यास है — मिथिला मिहिर में धारावाहिक रूप में प्रकाशित होने वाला तुलापति सिंह का ‘मदनराज चरित उपन्यास’ । 3″ आज विभिन्न विषयों पर उपन्यास लिखा जा रहा है, जिसे पाठक हाथों-हाथ खरीद कर पढ़ रहे हैं। मैथिली में भी काफी उपन्यास लेखन हुआ है। प्रारंभिक समय के उपन्यासकार हैं – जनार्दन झा जनसीदन, रासबिहारी लाल दास, पुण्यानंद झा, भोल झा, कुमार गंगानन्द सिंह आदि। फिर इस विधा पर हरिमोहन झा ने काम करते हुए कन्यादान और द्विरागमन लिखकर उपन्यास विधा को और अधिक प्रतिष्ठित किया। उपेंद्रनाथ झा व्यास, योगानन्द झा, शैलेंद्रमोहन झा आदि ने भी अपनी विशिष्ट दृष्टि से इस विधा को मैथिली साहित्य में विशिष्टता प्रदान की। मणिपद्म उपन्यास में ऐतिहासिक कार्य कर गये। राजकमल, मायानंद मिश्र और ललित ने मैथिली साहित्य को श्रेष्ठ उपन्यास दिये। बाद में जीवकांत ने भी इस विधा में काफी काम किया। यात्री जी ने पारो, नवतुरिया और बलचनमा लिख कर परिवर्तनशील समाज को नवीन अभिव्यक्ति दी। प्रमुख उपन्यासकार जिनका भी नामोल्लेख आवश्यक है, उनमें सोमदेव, धीरेंद्र, रमानन्द रेणु, शैलेंद्र मोहन झा, हेतुकर झा आदि शामिल हैं। वर्तमान समय में उषा किरण खान, विद्यानाथ झा विदित, रामदेव झा, मधुकांत झा, सुभाषचंद्र यादव, मंत्रेश्वर झा, जगदीश प्रसाद मंडल, श्याम दरिहरे, चन्द्रमणि, प्रदीप बिहारी, पंकज पराशर, दिलीप कुमार झा, ज्योति रमण झा, अमलेंदु शेखर पाठक, ऋषि बशिष्ठ, सुरेंद्रनाथ, कमलेश प्रेमेन्द्र आदि इस विधा को और पुष्ट कर रहे हैं। अमलेंदु शेखर पाठक ने बाल उपन्यास “लाल गाछी” लिखा है। इसमें प्रकृति से लगाव, सांस्कृतिक चिंतन और अंधविश्वास के प्रति जागरूकता लाने का प्रयास किया गया। बच्चों को जिज्ञासु बनाने के लिए भी इस उपन्यास में कई छोटी-छोटी कथा समाहित हैं। “पपुआ ढपुआ सनपटुआ” उपन्यास कुमार पद्मनाभ लिखित है, जो अपने में खास तरह का है। दिलीप कुमार झा द्वारा लिखित उपन्यास “दू धाप आगाँ” में शिक्षा और वास्तविक शिक्षा को नजदीक से दिखाया गया है। कमलेश प्रेमेन्द्र ने अपने उपन्यास “पाथर सन करेज” में बाल मजदूरी का विरोध किया है। बाल मजदूरों को भी पढ़ा-लिखाकर, उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़कर एक सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। ” जेहने करनी तेहने भरनी ” बाल उपन्यास के उपन्यासकार हैं – डॉ अजित मिश्र । बैज्ञानिक ढ़ंग से रहस्यमयी है यह बाल उपन्यास । जिसमें मनुष्य और वास्तविक मनुष्य होने की कथा कही गई है । बच्चों के लिए यह उपयोगी उपन्यास है । चन्द्रमणि का बाल उपन्यास” गुलरी” बच्चों के मन की बात करता है ।

    साहित्य में निबंध विधा का एक अलग महत्त्व है। किसी विषय को नियोजित ढंग से लिखने के लिए व्यापक स्तर पर लेखन कार्य निबन्ध में ही संभव है। इस विधा में पूर्व में भी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य हुए हैं। सम्पादकीय भूमिका, ललित निबन्ध, आलेख-निबन्ध, समीक्षा-समालोचना-आलोचना इसके अन्तर्गत व्याख्यातित होता है । निबन्ध विधा के सम्बन्ध में विमर्श पुस्तक में डॉ. भीमनाथ झा लिखते हैं –” निबन्ध विधा भानुमती का पेटार है । वाङ्मय के खजाना में हाथ दिजिये, जो रत्न मुट्ठी में आएगा, वह निबन्ध है । 4″ मैथिली में महत्वपूर्ण कार्य किये हैं – सर गंगानाथ झा, अमरनाथ झा, सुरेंद्र झा सुमन, रमानाथ झा, दुर्गानाथ झा श्रीश , जयकांत मिश्र, दिनेश कुमार झा, बाल गोविंद झा व्यथित, मुरलीधर झा, परमेश्वर झा, शिवाकांत पाठक और देवकांत झा, शैलेंद्र मोहन झा आदि । इस विधा के अन्तर्गत धीरेंद्र नाथ मिश्र, वीणा ठाकुर, नीता झा, उषा चौधरी आदि ने भी सराहनीय कार्य किये हैं ।

    आलोचना साहित्य में कार्य करने वाले नाम के रूप में देखा जा सकता है – रमानाथ झा, प्रेमशंकर सिंह, मोहन भारद्वाज, अमरेश पाठक, जयधारी सिंह आदि । वर्तमान समय में मैथिली साहित्य के निबंध एवं समीक्षा विधा में डॉ भीमनाथ झा, डॉ रामदेव झा, डॉ रमानन्द झा रमण, डॉ केष्कर ठाकुर, डॉ अरूणा चौधरी, तारानंद वियोगी, रमेश, डॉ नारायण झा , डॉ अशोक कुमार मेहता, डॉ दमन कुमार झा, डॉ अजीत मिश्र, डॉ कमल मोहन चुन्नु, पंचानन मिश्र, डॉ महेन्द्र नारायण राम, श्रीपति सिंह, शिव कुमार झा टिल्लू , मेधाकर झा, सत्यनारायण प्रसाद यादव, रितेश पाठक, विनीत उत्पल आदि निरंतरता के साथ गतिमान हैं। डॉ रमानन्द झा रमण ने हाल में हीं “बेराएल” समीक्षा संग्रह लिखा है, जिसमें उन्होंने विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखे हैं। “मैथिली साहित्य विमर्श” में पं. गोविंद झा ने सम्पूर्ण मैथिली साहित्य को ध्यान में रख कर आलोचनात्मक आलेख लिखे हैं, जो विशेष उपयोगी हैं। पंचानन मिश्र ने लोक विमर्श में लोक साहित्य और इसके परिधिगत आने वाले तथ्यों पर आलेख लिखे हैं। “निनाद” नाटक पर समीक्षा पुस्तक डॉ कमल मोहन चुन्नु ने हाल ही में लिखी है। नाटक को जानने-परखने के लिए यह खास किस्म की पुस्तक उपयोगी है। “निकती” रमेश द्वारा लिखित मैथिली में समकालीन कविता पर समीक्षा पुस्तक है, जो मैथिली कविता के प्रतिनिधि स्वर पर लिखी गयी है। हास्य-व्यंग्य ललित निबंध संग्रह के रूप में रूपेश त्योंथ का “खुरचनभाइक कछमच्छी” बेस्ट सेलर बुक श्रेणी में परिगणित होने योग्य है। इस संग्रह में समाज के नकारात्मक पक्षों को हास्य-व्यंग्य के माध्यम से सामने लाया गया है, जिससे कि लोगों में सोचने की छटपटाहट उत्पन्न हो सके।

    मैथिली साहित्य में अनुवाद कर्म भी जिम्मेदारीपूर्ण ढंग से हो रहा है। शब्द, भाषा और बिंब का विस्मयपूर्ण सरोकार गढ़नेवाले वरिष्ठ कवि हरेकृष्ण झा ने वाल्ट विटमन की कई कविताओं का अनुवाद कर मैथिली में अनुवाद कर्म को विशिष्टता प्रदान की है। उनका अनुवादित कविता संग्रह “ई थिक जीवन” अनुभूति का विस्तृत आकाश गढ़ता है। अनुवाद कार्य के लिए अजित आजाद, अशोक अविचल, शंकरदेव, सदरे आलम गौहर, इन्द्रकांत झा, रमाकांत राय रमा, योगानंद झा, अमलेंदु शेखर पाठक, नरेंद्र नाथ झा, पंकज पराशर, भैरव लाल दास सहित अन्य कई साहित्यकारों का नाम भी इस कड़ी में प्रमुखता से लिया जा सकता है।

    किसी भी भाषा में कविता सबसे अधिक लिखी जाती है और पढ़ी भी जाती है। उसी प्रकार मैथिली भाषा में भी कविता अधिक लिखी और पढ़ी जाती है। आदिकाल और मध्यकाल पर विमर्श करना यहाँ संभव नहीं है। फिर भी कविता के लिए जो फाउंडेशन का कार्य किये हैं, उनका नाम संक्षिप्त में भी लेना आवश्यक है, वे हैं – विद्यापति, गोविंद दास, मनबोध, चंदा झा, सीताराम झा, भुवन जी, यात्री जी, राजकमल, मायानन्द मिश्र, धुमकेतु, राघवाचार्य शास्त्री जी, मधुप जी, सुमन जी, आरसी जी, धीरेंद्र, हंसराज, रमानन्द रेणु जी, रविन्द्रनाथ ठाकुर, प्रवासी जी, उपेंद्र दोषी, किशुन जी, किरण जी, तंत्रनाथ झा, अमर जी, सोमदेव, कीर्त्ति नारायण मिश्र, कुलानन्द मिश्र, भीमनाथ झा, उदयचन्द्र झा विनोद, गंगेश गुंजन, महाप्रकाश, फजलुर रहमान हासमी, विभूति आनंद, हरेकृष्ण झा, ज्योत्सना चन्द्रम, रामलोचन ठाकुर, सरस जी, देवशंकर नवीन, केदार कानन, नारायणजी, हरिश्चंद्र हरित, शैलेंद्र आनंद । इसलिए आधुनिक काल की इक्कीसवीं सदी के वर्तमान परिदृश्य पर दृष्टिपात करते हैं। वर्तमान लेखन मैथिली कविता में संतोष देने वाला है। वर्तमान समय में अपनी कविता के माध्यम से मैथिली साहित्य का प्रतिनिधित्व करनेवालों विशिष्ट कवियों के श्रेणी में एक हैं – अजित आजाद। इनका पूर्व में बहुत सारा पुस्तक प्रकाशित हैं, एक हाल हीं में कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है – “पेन ड्राइव मे पृथ्वी” । यह संग्रह वर्तमान समय का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इस संग्रह की एक कविता में कवि कहते हैं – “जहिया नहि रहत कतहुँ किछु/पृथ्वी भए गेल रहत तहस-नहस पूर्णरूपेण/तहिया भेटत एकटा सुन्दर पृथ्वी/पेन-ड्राइव मे सुरक्षित/बुद्धक विचार जकाँ/मुदा ई पेन-ड्राइव/राखब हम कतय जोगाकए”। कवि वर्तमान समय के आधुनिकीकरण से त्रस्त हैं। हम आधुनिकीकरण की होड़ में स्वयं को बर्बाद करने में लगे हैं। पृथ्वी, प्रकृति, वायु, जल के बिना हम रहेंगे कैसे, इस पर कवि चिंतित हैं। पृथ्वी से पेन ड्राइव तक के सफर में इस पृथ्वी को पेन ड्राइव में समेटने का प्रयास कर रहे हैं हमलोग। लेकिन उस पेन ड्राइव को भी रखने के लिए पहले पृथ्वी पर पेन ड्राइव भर की जगह तो चाहिए। नारायणजी समकालीन कविता में विशिष्टता दिखा रहे हैं। वे गाँव में रहकर गाँव के शब्द और बिम्ब से देश-विदेश की यात्रा अपनी कविता में कराते हैं। “धरती पर देखू” कविता संग्रह अन्तर्गत “गाछी” कविता में वे कहते हैं – “अपना केँ जोति दैत छी/आर कतेको धुनि मे/बजार सँ अबैत अछि स्वर/ललिचगर अछि/बढ़ैत अछि डेग/आर डेग संग व्यस्त छी/ की देखबा मे व्यस्त छी।” वे कहना चाहते हैं कि आधुनिक बातों को स्वीकार करना चाहिए, लेकिन अपने घरों की वस्तु को भी खोजना आवश्यक है। “ग्लोबल गाम सँ अबैत हकार” कविता संग्रह के कवि हैं-कृष्ण मोहन झा मोहन। गंभीर मानवीय चिंता और चेतना की बातें इस संग्रह में बखूबी की गई हैं। शीर्षक “समयान्तर” में-अबैत-अबैत/एकटा समय एलै/जखन बाबूक आस्था/हमरा अनसोहाँत लागए लागल/हिनक स्त्रोत-पाठ/आ परातीक तान सेहो हमरा/ठिठुरैत रातुक लाचारी लागए लागल।” हम सभी पुरानी चीजें को छोड़ रहे हैं, पुराने विचारों को छोड़ रहे हैं। परिवर्तन संसार का नियम है। परिवर्तन होना भी चाहिए, लेकिन ठीक और उचित दिशा में हो। प्रगतिशील होने का अर्थ यह नहीं कि हम अपने माता-पिता, संस्कृति और संस्कार को छोड़ दें। कवि अपने संस्कार और संस्कृति को संभालते हुए प्रगति के मार्ग पर बढ़ने के लिए आग्रह करते हैं। कविता संग्रह “खण्ड-खण्ड मे बँटैत स्त्री” मे कवयित्री कामिनी ने स्त्री विमर्श आधारित कविता लिखकर नारी की चेतना को परिभाषित करने और उसे जगाने का प्रयास किया है। वे कहती हैं कि स्त्री मात्र भोग के लिए नहीं है, बल्कि स्त्री समाज में पुरुषों के बराबर चलने के काबिल है। शीर्षक अग्नि परीक्षा मे लिखी है – सीता आब नहि देती अग्नि परीक्षा / जँ देबाक होनि तँ देथुन राम / । “अपना केँ अकानैत” कविता संग्रह धीरेंद्र कुमार झा लिखित है। इस कविता संग्रह में विभिन्न भाव की कविता है। विषय-विस्तार के दृष्टिकोण से यह संग्रह महत्त्वपूर्ण है। कवि कहते हैं-सभहक किछु अर्थे होइ, एहेन बात नै छै/बाकी सभ व्यर्थे होइ, एहेन बात नै छै। सही बात है, सभी बातों का सीधा अर्थ लगाना संभव नहीं है। मनोज साण्डिल्य अपनी कविता में कहते हैं – समयक विशाल चक्र/दुराचारक कुचक्र/चलबे करतै/चलिते रहतै/तेँ की/विश्वास त्यागि/न्याय-विवेक सँ भागि/ बैसि रहत/ठुट्ठ गाछक तअड़? इस जीवन को आशावादी विचार से सींचते रहना चाहिए, ऐसा कवि आग्रह कर रहे हैं। “ई कोना हेतै” डॉ वैद्यनाथ झा लिखित कविता संग्रह है, जिसकी सभी रचनाएं जीवन के इर्द-गिर्द घूमकर सचेत करने के लिए आतुर दिखाई दे रही हैं। कवि लिखते हैं- भाइ/बड्ड विकट/परिस्थिति सँ/गुजरि रहल छी आइ/किछु नहि फुराइत अछि/ सभ उमेदक सीर/सुखा गेल अछि। युवा कवि अरुणाभ सौरभ “एतबे टा नहि” कविता संग्रह में विविध विषय वस्तु के अन्तर्गत ग्राम्य बोध की कविताओं से अधिक जगह गांवों के प्रति मोह दिखाते हैं। लोगों का पलायन देखकर वे विहवल हो उठते हैं और कहते हैं : चलू गाम मे गूंजल कोयलीक तान छै/मजरल जे आम-पात हरियर मखान छै/हरियर धरती माय केर नव मुस्कान छै/चलू जतय मास नव फागुन महान छै। युवा कवि चंदन कुमार झा कविता संग्रह “धरती सँ अकास धरि” में एक नया वितान रचते हैं। वे कविता के माध्यम से कहते हैं : समय चक्र केर बाँहि पकड़ि कए/ दिन-राति ससरैत रहैत छैक/ससरि-ससरि कए सकल धरा पर/नवके किछु सिरजैत रहैत छैक/ जीवन कथा कहैत रहैत छैक। कवि के अनुसार इस जीवन में नया करते रहना ही मनुष्य की सार्थकता है। गोपाल झा अभिषेक अपने सूक्ष्म भावों को कविता द्वारा व्यक्त करते हैं। वे प्रतिरोध को आवश्यक बताते हुए कविता संग्रह “कइएक अर्थ मे” में कहते हैं – युग धर्म अछि प्रतिरोध/युग कर्म अछि प्रतिरोध/प्रतिरोध सँ विरोध निस्तेज करैए/धेड़िआ-धसानक हेंज बन्हैए। युवा लेखन में मैथिल प्रशांत का लेखन आश्वस्तिदायक है। इन्होंने ” समयक धाह पर” कविता संग्रह अंतर्गत “विचारधारा” कविता में कहा है – ककरा लेल/ याज्ञवल्क्य, जनकक विचार/ककरा लेल/मार्क्स-लेनिनक विचार/ककरा लेल रचल गेलै/वेद-पुराण/ आ कि दास कैपिटल/किनसाइत मनुक्खे लेल तँ नहि। विचारधारा की जंजीर में जकड़ कर कविता लिखना मेरे ख्याल से उचित नहीं है। कविता तो स्वयं विचारधारा है, जो सम्प्रेषित होती चली चाती है। नेपाल के धरती जो वास्तविक में मिथिला क्षेत्र हीं कहलाती है, वहाँ से आती हैं कवियत्री बिजेता चौधरी । हाल हीं में एक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ ” धाराक विरूद्ध”, जिस काव्य संग्रह के कविता शीर्षक आवरण में लिखती है — रंग बदलैत ई दुनिया देखि/नै पुछू कतेक बदलि गेलहुँ/ओ जे रंग छल खांटी/से उतरि गेल कहिया ने/ई जे छैक नव रंग /नै जानि कतएसँ चढ़ि गेल । आधुनिक युग के परिवर्तन में लोग अच्छे संस्कारों भी कैसे भुला कर नये संस्कार को आवरण के रूप में कैसे चढ़ा रहै हैं, इस बातों से दुखी होकर शब्दों के माध्यम से कही है । “प्रथम प्रणय” कविता संग्रह के साथ कवियत्री आभा झा जी का मैथिली साहित्य में उदय होता है जो इस समय में कुछ अलग तुकबंदी में लिखे गये कविताओं का संग्रह है । विभिन्न विषयों को अपने क्षमता से काव्य-कौशल दिखाई है कवियत्री आभा झा । प्रणव प्रियदर्शी एक ऐसे कवि हैं जो समान रूप से मैथिली-हिन्दी में लिख रहे हैं । उनके द्वारा रचित एक काव्यांश देखा जाए– जिनका किछु छुबैत नहि छैन्ह/ओ कोना जिबैत छथि/से ओ अपन जानौथ/हम अपन जनैत छी/। कवि स्पष्ट रूप से मानवीय संवेदनशीलता पर वकालत कर काव्य भंगिमा को दिखाये हैं । प्रवीण कश्यप का ” विषदंतिक वरमाल कालक रति ” , निशाकर का ” ककबा करैए प्रेम , दीप नारायण विद्यार्थी का ” जे कहि नहि सकलहुँ ” , प्रणव नार्मदेय का कविता संग्रह “विसर्ग होइत स्वर”, निवेदिता झा का “स्त्रीक मोन” , खुशबू मिश्रा का ” एक मिसिया इजोत ” , स्वाती शाकंभरी का पूर्वागमन , अंशुमान सत्यकेतु का ” एखन धरि ” , डॉ सत्येंद्र कुमार झा का ” स्वप्न मे इन्द्रधनुष ” , महेश डखरामी का ” महेश मंजरी , सारस्वत का “अपराजिता ” , रोमिशा का ” फूजल आँखिक स्वप्न”, गुफरान जिलानी का ” लाल ओसक बुन्न” , रघुनाथ मुखिया का “झुझुआन होइत गाम” , विजेता चौधरी का “धाराक विरुद्ध” , गुंजन श्री का “तरहत्थी पर समय” आज के समय में पठनीय है। गीत लेखन में भी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य पूर्व से हीं होते रहे हैं । अभी भी गीत लेखन में मैथिलीपुत्र प्रदीप , डॉ चन्द्रमणि , अरविंद अक्कु , कमल मोहन चुन्नू , अजित आजाद , शिव कुमार झा टिल्लू , अमित मिश्र , अमित पाठक , मैथिल प्रशांत , अक्षय आनंद सन्नी , प्रदीप पुष्प , मनीष कुमार झा बौआभाइ आदि पूर्ण रूप से सक्रिय हैं । नयी पीढ़ियों में विभिन्न शैक्षणिक और रोजगारपरक पृष्ठभूमि से जुड़े बहुत सारे ऐसे युवा लेखक सामने आ रहे हैं, जिनकी पुस्तक प्रकाशित नहीं है, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति भावों का नया संसार रच रही है। उनकी दृष्टि का पैनापन कविता को नये कथ्य, नवीन चिंतन, नये शिल्प और नये तेवर से संपृक्त कर रहा है। उनमें से कुछ नामोल्लेख आवश्यक है – शंकर मधुपांश, अवधेश अनल, राजीव रंजन झा, डॉ अनिल ठाकुर, डॉ संजीव समाँ, डॉ रामसेवक झा, रूपम कुमारी, विकास वत्सनाभ, बालमुकुंद पाठक, पंकज कुमार, सुमित मिश्र गुंजन, प्रियरंजन, अनुराग, मलयनाथ मिश्र , प्रीतम निषाद, डॉ संजित झा सरस, श्याम झा, आभा झा ( त्रय ), पूजा श्री, सोनी नीलू झा , पुतुल प्रियंवदा , पूनम झा सुधा , समता मिश्रा , जयंती कुमारी, रूपा ठाकुर , सुशांत अवलोकित, अम्बिकेश मिश्र, आनंद मोहन झा , रेखा कुमार, अरूण लाल दास, रामप्रीत पासवान, विद्याचन्द्र बमबम, मुक्तार आलम, नीरज झा, धर्मवीर भारती, रजनीश प्रियदर्शी, सान्त्वना मिश्रा, भावना मिश्रा । कुछ ऐसे युवा कवि भी हैं, जो हिंदी और मैथिली में समान रूप से सृजनरत हैं और अपनी प्रतिभा से नवीन आशाओं का संचार कर रहे हैं । समग्रतापूर्वक यह कहा जा सकता है कि मैथिली साहित्य हरेक दृष्टिकोण से संतुलित और संतुष्टिदायक है।


    सन्दर्भ ग्रन्थ —

    1. आचार्य रमानाथ झा रचनावली — आचार्य रमानाथ झा — वाणी प्रकाशन, पटना — पेज न. – 24-25
    2. मैथिली कथाक विकास — सं. – डॉ. बासुकीनाथ झा — साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली– प्रस्तावना पेज
    3. मैथिली साहित्यक आलोचनात्मक इतिहास — डॉ. दिनेश कुमार झा– मैथिली अकादमी, पटना– पेज न. — 130
    4. विमर्श – डॉ. भीमनाथ झा — जखन-तखन, दरभंगा – पेज न. – 31

    लेखक : नारायण झा

    संप्रति : राजकीय मध्य विद्यालय रहुआ-संग्राम में शिक्षक रूप में कार्यरत ।

    पता : ग्राम-पोस्ट– रहुआ-संग्राम, प्रखंड — मधेपुर, जिला– मधुबनी, पिन कोड : 847408 ( बिहार) ईमेल : narayanjha1980@gmail.com , मो : 8051417051

    शिक्षा : नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी से एमए मैथिली ( गोल्डमेडेलिस्ट ) तथा मैथिली विषय से यूजीसी नेट परीक्षा भी उत्तीर्ण। अभी मैथिली विषय अन्तर्गत पीएचडी कार्य में संलग्न ।

    लेखकीय उपलब्धियाँ : तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं। “प्रतिवादी हम” मैथिली कविता संग्रह पर साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार 2015 ई. प्राप्त है। दूसरा वर्ष 2017 ई. में “अविरल-अविराम” मैथिली कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है। तीसरा “मैथिली निबन्ध मालिका” निबन्ध संग्रह वर्ष 2018 ई. में प्रकाशित हुआ और पुनर्मुद्रण 2019 ई. में हुआ है । कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।

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