हम सबकी शर्म गाथा के रूप में है फ़िल्म ‘कसाई’


कुछ दिन पहले हमने गजेंद्र श्रोत्रिय की फिल्म देखी थी ‘कसाई’। इस तरह की फिल्में देखने या साहित्य पढ़ने के तुरंत बाद उस पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दे पाती। ‘कसाई’ शीर्षक से शिवमूर्ति जी की कहानी और बाद में उसपर आधारित नाटक ‘कसाईबाड़ा’ का याद आना स्वाभाविक है। कुछ नाम की समानता के कारण और कुछ इस रूप में कि इस नाटक के कलकत्ता और दिल्ली में हुए मंचनों में मैं शामिल थी।

बहुत पहले महमूद साहब ने अपनी एक फिल्म में यह गीत गाया था ‘ना बीवी ना बच्चा, ना बाप बड़ा ना मैंया, द होल थिंग इज दैट कि भैया सबसे बड़ा रुपैया’। अब यह चीज रुपए- पैसे से उतर कर राजनीति पर आ गई है। किसी फिल्म का यह संवाद राजनीति के लिए बेहद मौजू है कि ‘राजनीति से भी बड़ा कोई बिजनेस हो तो बता दो। मैं वही कर लेता हूं।’ सचमुच! जिंदगी में हर पल हम तथाकथित राजनीति या पॉलिटिक्स से दो-चार होते रहते हैं। लेकिन एक्टिव पॉलिटिक्स के भीतर जो गुफाएं और खाइयाँ हैं, उनको गहरे से देखने, समझने के लिए इस तरह की फिल्में देखना बेहद जरूरी है, जिसमें ऊपर से राजनीति नहीं दिखती, ऊपर से मनुष्य, समाज, घर, परिवार, रिश्ते सब दिखते हैं। लेकिन भीतर ही भीतर राजनीति का करंट ऐसा बहता है कि जो सबको दागता और मारता चला जाता है।

मैंने गजेंद्र श्रोत्रिय की इसके पहले वाली फिल्म ‘भोभर’ भी देखी है, जो हिंदी के चर्चित पत्रकार, लेखक और अब ‘जेड प्लस’, ‘सरकार2’, जैसी फिल्मों के और अभी ‘एक सुपरस्टार की मौत’ किताब से बेहद चर्चित रामकुमार सिंह की कहानी पर आधारित है। मुझे यह देख कर हमेशा हैरानी होती रही है कि हमारा समाज जिस भारतीय मिथक और संस्कृति पर लहालोट होता रहा है, उसी भारतीय संस्कृति के अच्छे तत्वों को कसाई के रूप में परिवर्तित करने से जरा भी नहीं चूकता- वह भी भारतीय संस्कृति के नाम पर।

गजेंद्र श्रोत्रिय की पहली फिल्म ‘भोभर’ में जहां स्त्रियों के नाचने पर पाबंदी है, वहीं इनकी दूसरी फिल्म ‘कसाई’ में प्रेम पर। समाज के पहरुए हर स्त्री आवाज को दबाने और प्रेम के भाव को खत्म करने पर तुले रहते हैं। जाने कौन सी प्रतिष्ठा का पाग हमारे समाज के माथे पर टंगा रहता है और वह इतना कमजोर रहता है कि स्त्री स्वर के उठने और कोमल मन के प्रेम से विचलित हो जाता है, गिर जाता है, धूल धूसरित हो जाता है। और फिर शुरू होता है राजनीति का वह खेल, जिसमें कभी भी किसी का सामाजिक या आत्मिक भला नहीं होता है। स्वार्थ की सिद्धि हो जाती है। व्यक्ति विशेष के अपने हित पूरे हो जाते हैं, लेकिन वे सब मानव मूल्यों पर कलंक छोड़ के चले जाते हैं।

गजेंद्र श्रोत्रिय की ताजा फिल्म ‘कसाई’ राजस्थान के ही एक और मशहूर लेखक चरण सिंह पथिक की इसी शीर्षक से।लिखी गई कहानी पर है। चरण सिंह पथिक की कहानी पर आप सब ने ‘पटाखा’ फिल्म देखी होगी- विशाल भारद्वाज के निर्देशन में। वह एक बड़े बजट की फिल्म थी। ‘कसाई’ उसकी तुलना में छोटे बजट की फिल्म है। फिल्म छोटे बजट की क्यों बनती है, यह कोई अज्ञात कारण नहीं है। वैसे यह जानने और समझने वाली बात है कि छोटी फिल्म से मकसद हमारा उसके सिर्फ कमर्शियल पक्ष से होता है, जिसके कारण फिल्म मेकर बड़े कलाकारों जिनके नाम और कमर्शियल बड़े होते हैं, उनको नहीं ले पाते हैं। लेकिन इससे फिल्म का कद छोटा नहीं हो जाता, क्योंकि बाकी जो कलाकार इन फिल्मों में आते हैं, वे अपना सर्वोत्तम देते हैं, जो फिल्म के कद को कई गुना ऊंचा कर जाती है- कहावत ‘जहां चाह वहां राह’ की तरह। अगर ‘मन में हो लगन तो कहीं ना कहीं से एक चिंगारी की मिल जाती है अगन’! और उस आग की एक चिंगारी धीरे-धीरे सुलगते हुए सभी तक फैलती है और एक महत्वपूर्ण कृति का निर्माण कर जाती है।

‘कसाई’ फिल्म एक प्रेम के विरोधी समाज की कहानी है, साथ ही पितृसत्तात्मक समाज में पिता की निरंकुशता की भी कहानी है, जिसके सामने अपनी संतान का कोई महत्व नहीं होता। संतानों की इच्छा, आकांक्षाओं की तो बात जाने ही दीजिए। पिता की पगड़ी में ही सबकुछ समाया रहता है। ‘कसाई’ में भी यही बात होती है। बेटे के प्रेम के विरोध में पिता अपने पुत्र की हत्या कर देता है। शायद हत्या करना उसका मकसद नहीं था। लेकिन पिटाई इतनी होती है कि वह कोमल बालक उस पिटाई को झेल नहीं पाता और दम तोड़ देता है।

बस कहानी यहीं से शुरू होती है शायद इस दर्शन के तहत कि जो चला गया, वह तो चला गया। जो सामने है, उसे बचा लो। और पिता को बचाने की कवायद शुरू हो जाती है। लेकिन मां, जिसके लिए उसकी संतान उसके अपने रक्त और मज्जा का हिस्सा होती है, जिसके लिए अपने बाल- बच्चों की खुशी उसकी अपनी खुशियों से कई गुना अधिक होती है, इन बातों को सहज रूप से नहीं ले पाती। लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है! उसी तरह से आज भी स्त्रियों की आवाज कौन सुनता है! बहुत पहले मुग़ल-ए-आज़म फिल्म में अकबर जोधा बाई से कहते हैं- ‘औलाद चाहिए या सुहाग?’ लेकिन यहां ‘कसाई’ की यह मां सुहाग के बदले औलाद को चुनना पसंद करती है। और यहीं से उसके ऊपर दमन शुरू होता है और जो चरम तक पहुंचता है। किसी भी स्त्री को डायन बता देना, उसकी तार्किक बातों को तथाकथित धर्म की आड़ में छुपा कर उसे खलनायिका और दुष्ट आत्मा बता देना हमारे तथाकथित ढोंगी पंडित और बाबा लोग बहुत आसानी से करना जानते हैं और आसपास के लोगों को भरमाना भी उतनी ही कुशलता से जानते हैं। इस प्रवृत्ति को भी इस फिल्म में दिखाया गया है। हम समझते हैं, लेकिन हमारा समाज इसे समझने से इंकार कर देता है। गजब है यह समाज कि वह एक ओर स्त्री को दुर्गा, काली बनाकर पूजता है, लेकिन दूसरी ओर उसी स्त्री को डायन, रंडी, दासी और जाने क्या-क्या बना कर उसे पद दलित करता है, मारता है, उसकी हत्या करता है। और इन सब के पीछे स्वार्थ की राजनीति ऐसी छुपी हुई रहती है जिसके सामने आने से आपकी सांस जमी की जमी रह जाती है।

‘कसाई’ फिल्म प्रेम के विरोधी समाज की कहानी है, साथ ही पितृ सत्तात्मक समाज में पिता की निरंकुशता की भी कहानी कहती है, जिसके सामने अपनी संतान का कोई महत्व नहीं होता। संतानों की इच्छा, आकांक्षा की तो बात जाने ही दीजिए। आखिर कौन है यह समाज? हम ही तो हैं, जो दूसरी जगह की खबर पाकर अफसोस जाहिर करते हैं और अपने समाज में मौन धारण कर लेते हैं यह कहकर कि यह उनका मामला है। जब तक हम ‘उनका मामला’ करके खुद को बचाते रहेंगे, तब तक ‘कसाई’ जैसी घटनाएं होती रहेंगी और वे सब फिल्म और कला के दूसरे माध्यमों के साथ हमारे सामने हमारे मन मस्तिष्क पर चोट करने के लिए आते रहेंगे।

चरण सिंह पथिक की कहानी पर बनी गजेंद्र श्रोत्रीय की यह फिल्म आप सांस रोककर और पलक झपकाए बिना देख सकते हैं। यह फ़िल्म हिंदी साहित्य में फैली हुई इस अवधारणा और दुराग्रह को भी तोड़ता है कि साहित्यिक रचनाओं पर फिल्में नहीं बन सकतीं। गजेंद्र श्रोत्रिय का ‘भोभर’ और ‘कसाई’ दोनों ही साहित्यिक कृतियों पर है। मां के रूप में मीता वशिष्ठ और पिता के रूप में रवि झाँकल, सरपंच के रूप में वीके शर्मा और विरोधी के रूप में अशोक बांठिया ने उल्लेखनीय कार्य किया है। मयूर मवरे, ऋचा मीणा ने प्रेमी युगल की भूमिका निभाई है। इनके काम को देखते हुए आप कह सकते हैं कि ये अभिनय नहीं कर रहे, बल्कि अपने चरित्र को जी रहे हैं। भाषा पूर्वी राजस्थानी है। फिल्म निर्माण में आई तमाम दिक्कतों को पार करते हुए ‘कसाई’ बेहद अच्छी और संवेदनशील फिल्म बनी है, जिसके लिए कहानीकार के रूप में चरण सिंह पथिक और फिल्म निर्माता के रूप में गजेंद्र श्रोत्रीय तथा उनकी पूरी टीम सचमुच बधाई के पात्र हैं। गजेंद्र श्रोत्रीय जी ने कहा है कि वे आगे भी इस तरह की फिल्में बनाते रहेंगे। हम आशा भरी नजरों से उनकी ओर देख सकते हैं कि हमें इस तरह के समाज के कड़वे यथार्थ से रूबरू कराती फिल्में इनके माध्यम से मिलती रहेंगी। अच्छे कलाकारों के साथ शायद फलक भी आगे बड़ा हो जाए, यह मेरी शुभकामना भी रहेगी।

और अब आखिरी बात! हम दर्शक के रूप में कहते हैं अक्सर कि अच्छी फॉमें नहीं आतीं। अच्छी फिल्में आती हैं। हमारी ड्यूटी है कि हम इस तरह की सार्थक फिल्मों को देखें। फिल्मों को केवल मनोरंजन और टाइम पास का हिस्सा न मानें। शेमारू मी पर यह फ़िल्म है। फ़िल्म को और बेहतर तरीके से समझने के लिए आप #cenemahaul के दो एपिसोड्स भी देख सकते हैं, जिनमें एक पर फ़िल्म की समीक्षा है और दूसरे में गजेंद्र श्रोत्रिय से बातचीत। लिंक्स यहां हैं।

-विभा रानी 

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