वैश्विक चिंतन के साथ गतिमान है मैथिली साहित्य


साहित्य हमेशा मानव जाति के लिए, मानवीय कल्याण के लिए दृष्टि विस्तार की बात करता है। साहित्य लेखन को ठीक से देखा जाए तो लगेगा साहित्य समाज के लिए समालोचक की भूमिका भी निभाता है। बेपटरी हो रहे समाज को पटरी पर लाने के लिए साहित्यकार काफी प्रयास करते हैं। आज के समय में नैतिकता, सामाजिकता, परस्पर सहभागिता, अनुशासनबद्धता, मानवीयता, मानव मूल्य आदि क्षरणोन्मुख है, जिसमें साहित्य हीं भटके को सहारा देकर रास्ते पर ला सकता है ।

समय के अनुसार मनुष्य के विचार और स्वभाव में परिवर्तन होता रहता है। समाज में भी वह परिवर्तन देखा जाता है। नकारात्मक दिशा मे परिवर्तन किसी काम का नहीं हो सकता है । आज के अच्छे साहित्य को पढ़कर इस भ्रम से अपने आप को निकाला जा सकता है। इसी का परिणाम है कि साहित्य आदिकाल में जिस स्थिति में था, आज उसमें बहुत दूर तक बदलाव दिखाई पड़ता है। आज विषयवस्तु, शिल्प, शैली और तेबर में जो बदलाव हुआ है, वह समय की मांग है। पाठक-श्रोता नवीन बातों को आत्मसात करना चाहते हैं। साहित्य अपनी सार्थकता इन्हीं के बीच से ग्रहण करता है। ऐसी परिस्थिति में साहित्यकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है। युवाओं पर कोई भी देश निर्भर होता है, भारत में भी युवाओं की संख्या इस हिसाब से महत्त्वपूर्ण है। इन्हे उचित और तर्कपूर्ण साहित्य की आवश्यकता है। अन्य विधा तो बाद में भी लोग सिखते हैं, लेकिन जन्म के साथ गीत-कवित्त तो प्रायः सुनते हीं हैं। भारतीय संस्कृति में घर में कोई मांगलिक कार्य बिना गीत का संभव हीं नहीं है। दादी-नानी का खिस्सा कौन नहीं बचपन में सुनता है? इसलिए यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मनुष्यों को साहित्य के साथ जुड़ाव जन्म से हीं रहता है, और यह आवश्यक भी है । इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मनुष्य अपने विचारों-संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए साहित्य को माध्यम रूप में चयन कर अभिव्यक्त करते हैं ।

मैथिली साहित्य के श्रेष्ठ समीक्षक-आलोचक आचार्य रमानाथ झा प्रबन्ध संग्रह में लिखते हैं– “साहित्य का शरीर है भाषा । संवेगात्मक अनुभूति, जिसे साहित्य शास्त्र में रस का आख्या कहा जाता है, भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होता है । वह इसिलिए किसी साहित्य का इतिहास उस भाषा के इतिहास से संश्लिष्ट रहता है जिस भाषा मे वह साहित्य उपनिबद्ध रहता है । परन्तु भाषा का स्वरूप स्थिर नहि रहता है । विश्व इतिहास में संस्कृत हीं केवल ऐसी भाषा है जो भगवान पाणिनि के द्वारा संस्कृत होकर उस रूप में प्रतिष्ठित हुआ है जो आज तक अपने स्वरूप में सभी जगह सभी समय में स्थिर रखे हुआ है । 1 “

भारतीय साहित्य के अन्तर्गत मैथिली भाषा का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह मूल रूप से बिहार, झारखंड के कुछ भाग संथाल परगना सहित एवं नेपाल के तराई क्षेत्रों में बोली जाती है, जो मिथिला प्रदेश के नाम से जाना जाता है। मैथिली साहित्य अति प्राचीन है, जिसका आद्य उपलब्ध ग्रंथ ज्योतिरीश्वर कृत वर्णरत्नाकर है। ज्योतिरीश्वर से पूर्व भी ऐसे रचनाकार हो सकते हैं, जिनका नाम अज्ञात है, क्योंकि एकाएक किसी भाषा में इतनी सुंदर पुस्तक कैसे आ सकती है? ज्योतिरीश्वर भी इस ग्रंथ को लिखने से पहले कुछ लिखे ही होंगे, जो अज्ञात है। मैथिली साहित्य के आदिकालीन सामग्री के रूप में सिद्ध साहित्य, डाक-घाघ वचनावली, लोक गीत, प्राकृत पैंगलम, वर्ण रत्नाकर और धूर्तसमागम है। फिर युग पुरुष महाकवि विद्यापति ने अपनी रचनाओं के माध्यम से साहित्य को ऐसी ऊँचाई प्रदान की, कि उनकी रचनाएं आज भी हिंदी और मैथिली साहित्य की थाती है। शृंगारिक पदावली में शृंगार और भक्ति पदावली में भक्ति का रस उन्होंने इतना बहाया कि वे रसराज कहलाने लगे। सुकवि कवि कोकिल विद्यापति ने मैथिली साहित्य के मध्यकाल का नेतृत्व किया। लोगों के कंठ में आज भी वे बसे हुए हैं।

मैथिली साहित्य सभी विधाओं में विश्व साहित्य के साथ गतिमान है। प्रबंध काव्य अन्तर्गत महाकाव्य- खंडकाव्य, काव्य, कथा, नाटक, उपन्यास, निबन्ध और आलोचना-समालोचना आदि विधाओं में रचनाकारों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। महाकाव्य की बात की जाए तो ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक आदि सभी विषयों पर एक से बढ़कर एक महाकाव्य लिखे गये हैं, जिनमें मनबोध का कृष्णजन्म, कवीश्वर चंदा झा का रामायण, बदरीनाथ झा का एकावली परिणय, रघुनन्दन दास का सुभद्राहरण, सीतायन, कीचक वध आदि प्रमुख हैं। खंडकाव्य में पतन, उत्तरा, नोर, उत्त्सर्ग आदि लिखे गये हैं। इधर डॉ रमण झा “अहिरावण वध खण्डकाव्य” लिखकर इस विधा को श्रीवृद्धि किये हैं । वर्त्तमान समयमे भी कुछ महाकाव्य लिखे गये हैं जिसमें मैथिली पुत्र प्रदीप का “सीता अवतरण महाकाव्य”, अरविंद नीरज का “परमहंस गोस्वामी लक्ष्मीनाथ महाकाव्य”, विजयनाथ जी का “कन्दर्प-कानन महाकाव्य” आदि जिससे यह विधा पुनः पुनर्जीवित हुआ है। श्री बुद्धिनाथ झा ने अभी-अभी “मैथिली महाभारत” तीन खंडों में लिखकर इस विधा को सम्पोषित किया है, जो मैथिली साहित्य के लिए सुदिन से कम नहीं है । लेकिन अभी प्रबंध काव्य की तरफ लोगों की रुचि कम दिखाई दे रही है, जो चिंतनीय है।

कथा साहित्य महत्त्वपूर्ण होता है किसी भी साहित्य में। इसमें भी मैथिली साहित्य काफी फला-फूला दिखाई देता है। मिथिला आर्थिक दृष्टिकोण से अभी भी पिछड़ा है, इसलिए पलायन का शिकार सदा से रहा है। फिर भी यहाँ की शिक्षा, संस्कृति, अनुशासन, धर्म-समभाव, लोक-संवेदना, सामाजिक-सौहार्द देखने योग्य है। इसलिए यहाँ की कहानी में कई मौलिक बातें देखने को मिलती हैं। सामाजिक रूढ़ि, धार्मिक आडंबर, जातीय संघर्ष, सामाजिक विषमता पर प्रहार करते हुए कथाकारों ने कई महत्वपूर्ण रचनाओं का सृजन किया है। मैथिली में प्रथम मौलिक कहानी जनार्दन झा ‘जनसीदन’ ने लिखी, जो है “ताराक वैधव्य”। मैथिली कथाक विकास के सम्पादकीय में डॉ. बासुकीनाथ झा लिखते हैं –” मैथिली साहित्य के इतिहासकारों के हिसाब से मैथिली कहानी साहित्य का वास्तविक जन्म बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक मानते हैं, इससे पूर्व की स्थिति पृष्ठभूमि तैयार या धरातल तैयार करने की थी । 2 ” इनके बाद प्रमुख कहानीकार हैं- वैद्यनाथ मिश्र, काली कुमार दास, रास बिहारी लाल दास, कुमार गंगानन्द सिंह, श्यामानन्द झा, हरिनन्दन ठाकुर सरोज, जय नारायण मल्लिक, लक्ष्मीपति सिंह, उपेन्द्रनाथ झा व्यास, हरिमोहन झा, मनमोहन झा, योगानन्द झा, उमानाथ झा। स्वतंत्रता के बाद कुछ विलक्षण कथाकारों ने अपनी कथा से लोगों की बन्द दृष्टि को खोलने का काम बखूबी किया है, जिनमें प्रमुख हैं – शैलेंद्र मोहन झा, सुधांशु शेखर चौधरी, गोविंद झा, और मणिपद्म।

मैथिली साहित्य के कहानी में मनोवैज्ञानिक पुट भी देखने को मिलता है, साथ हीं कहानी विधा को नये टर्न देकर ऊँचाई तक पहुँचाने का कार्य करने वाले कथाकार ललित, मायानन्द मिश्र, राजकमल चौधरी, सोमदेव, धीरेंद्र, हंसराज और रामदेव झा ने तो अपनी चमात्कारित शैली से कथा साहित्य को अलग मोड़ ही दे दिया। इनकी कहानियों में समकालीन सामाजिक अभिव्यक्ति देखने, पढ़ने और समझने के लिए मिला। फिर आगे आकर जीवकांत, धूमकेतु, राजमोहन झा, रेणु, प्रभाष कुमार चौधरी, बलराम, लीली रे, सुभाषचन्द्र यादव और गंगेश गुंजन, ललितेश मिश्र आदि ने भी कथा साहित्य को काफी समृद्ध किया। वर्तमान समय में भी मैथिली कथा साहित्य का सृजन व्यापक स्तर पर हो रहा है। इस विधा में अभी महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व जो सृजनरत हैं, उनमें अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास, उषा किरण खान, विभूति आनंद, तारानंद वियोगी, विभा रानी, वीणा ठाकुर , केदार कानन, रमेश, शैलेंद्र आनन्द, प्रदीप बिहारी, अर्धनारीश्वर , सुष्मिता पाठक, नीता झा, देवशंकर नवीन, अजित आजाद , दिलीप कुमार झा , ऋषि वशिष्ठ , अनमोल झा आदि शामिल हैं। इससे भी आगे की पीढ़ी में चंदना दत्ता , अभिलाषा, शुभेंदु शेखर, अखिलेश कुमार झा, सोनू कुमार झा, आदि हैं, जो विभिन्न विषयवस्तु पर अपनी रचना से समाज को ओतप्रोत कर रहे हैं। कुछ और महत्त्वपूर्ण लेखकों का नाम लिया जा सकता है जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिख रहे हैं उसमें डॉ. चित्रलेखा अंशु, मनोज कर्ण मुन्ना, नीरज झा, रूपम झा, मनोज कुमार झा, पुतुल प्रियंवदा आदि ।

ऋषि वशिष्ठ कहते हैं अब साहित्य, समाज का दर्पण नहीं रहा। साहित्य अब असली आलोचक है किसी समाज का। इन्होंने ” गाम सँ जाइत रेलगाड़ी” कथा संग्रह में कथा द्वारा कुंठित व्यथा को निकालने का प्रयास किया है। “गस्सा” कथा संग्रह के द्वारा सोनू कुमार झा ने अपने भीतर चल रहे अन्तर्द्वन्द्व को बेहतरीन सूझबूझ के साथ रखने का प्रयास किया है। वे व्यथित हैं इस सामाजिक परिस्थितियों को देखकर, जिसमें अर्थ के पीछे भाग रहे लोगों के लिए संबंध कुछ भी महत्त्व नहीं रखता। वे कहते हैं जब सामाजिक-पारिवारिक संबंध नहीं, तो किस प्रकार के समाज को बनाने की कल्पना में हैं हमलोग? चंदना दत्ता ने कथा संग्रह “गंगा स्नान” मे स्त्री की उत्कर्ष की कथा लिखी है । अभिलाषा ने अपने “पह” कथा संग्रह के माध्यम से स्त्री जीवन को सकारात्मकता में जीने के लिए उत्साहित किया है। इस संग्रह में हरेक आयु वर्ग की स्त्री की बात की गई है। सभी कहानी को पढ़ते समय कहानी छोड़ने की इच्छा नहीं होती कारण सभी कहानी समृद्ध कहानी है । शुभेंदु शेखर भी इस समय के अच्छे कथाकारों में से एक हैं। उनका कथा संग्रह है – “ओकरो कहियो पाँखि हेतै”। इस संग्रह के द्वारा उन्होंने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि गाँव के परिदृश्य में भी बदलाव हुआ है। वह बदलाव उचित दिशा में आवश्यक है। गाँव के छल- छद्म से भी उन्होंने पर्दा उठाने का प्रयास किया है। “नीर भरल नयन” कथा संग्रह के लेखक अखिलेश कुमार झा ने सामाजिक पीड़ा को आत्मसात कर अपने हृदय की संवेदानाओं को कथा के माध्यम से व्यक्त किया है। इस संग्रह की कथा यथार्थ की भावभूमि पर आदर्शवाद के तरफ इशारा करती दिखाई पड़ती है। मैथिली साहित्य के कथा संग्रह की कथा विश्व साहित्य के समानांतर दिखाई दे रही है।

साहित्य की नाटक विधा एक जीवंत साहित्य है, जिसमें समाज की सच्चाई को समाज के सामने दिखाया जाता है, साथ ही समाज में उचित बदलाव की तरफ ईशारा करता है। प्रारंभिक नाटक में प्रमुख हैं- ज्योतिरीश्वर कृत मैथिली धूर्तसमागम नाटक, विद्यापति कृत गोरक्ष विजय और मणिमंजरी, उमापति का पारिजातहरण, रत्नपाणि का उषाहरण, जगज्जोतिर्मल्लक का महाभारत और हरगौरी विवाह आदि। आधुनिक काल में जीवन झा ने मैथिली नाटक को नया मोड़ देकर इस विधा को और परिष्कृत किया। फिर आगे भी खूब नाटक लिखा गया। गुणनाथ झा, सुधांशु शेखर चौधरी, गोबिन्द झा, ईशनाथ झा, लल्लन प्रसाद ठाकुर आदि ने नाटक विधा पर काफी काम किया है। वर्तमान समय में महेन्द्र मलंगिया, अरविंद अक्कु, अशोक अविचल, रोहिणी रमण झा, कमल मोहन चुन्नू, ऋषि वशिष्ठ, आनंद कुमार झा, अशोक झा आदि नाटक लेखन में पूर्ण रूप से तल्लीन हैं। महेंद्र मलंगिया का हाल ही में एक नाटक प्रकाशित और मंचित भी हुआ है “छुतहा घैल”। छुतहा घैल नाटक में स्त्री उत्पीड़न को सशक्त ढंग से दिखाकर व्यंग्य किया गया। अशोक अविचल लिखित “हमरा देशक भाग मे” मिथिला की विभिन्न समस्याओं को दिखाया गया है। समस्या के साथ इस नाटक में समाधान भी दर्शाया गया है। “फुटानी चौक” नाटक मैथिली के विशिष्ट नाटककार अरविंद अक्कु जी का है। इसमें देश के सरकारी नियम-कानून में हो रहे परिवर्तन के बाद के परिवर्तन को दिखाया गया है। उस कानूनी परिवर्तन से समाज पर क्या असर पड़ रहा है और उसकी चर्चा गाँव के उस फुटानी चौक पर कैसे होती है, उसे दिखाने का प्रयास हुआ है । हाल हीं में कमल मोहन चुन्नू लिखित-मंचित नाटक “ऑब्जेक्सन मी लार्ड ” में फाँसी के विरुद्ध कुछ अलग विकल्पों से इस प्रकार के समस्याओं को दिखाने के लिए नये रास्ते सुझाएँ हैं, अब इस विकल्प को समाज कितने हद तक स्वीकार करेगी, यह देखने की बात है । युवा श्रेणी में साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से पुरस्कृत आनंद कुमार झा बहुत नाटक लिख चुके हैं और वे मंचित भी हुए हैं। “मुक्ति यात्रा” नाटक में स्त्री की मुक्ति कथा को उन्होंने बहुत बारीकी से उकेरा है। मैथिली साहित्य में नाटक का भी स्वाद अलग तरह का है, जो अन्य भाषाओं में यदि अनुदित होकर मंचित हो, तो इसे और विस्तृत फलक मिलेगा।

विस्तार से किसी विषय को समाज तक पहुँचाने के लिए उपयुक्त विधा है उपन्यास। विषय पौराणिक हो, ऐतिहासिक हो या समसामायिक, उस विषय के अनुरूप समाज को संदेश देने का काम करते हैं उपन्यासकार। मैथिली उपन्यास के सम्बन्ध में डॉ. दिनेश कुमार झा अपने पुस्तक मैथिली साहित्यक आलोचनात्मक इतिहास में लिखते है — ” मैथिली का सर्वप्रथम मौलिक उपन्यास है — मिथिला मिहिर में धारावाहिक रूप में प्रकाशित होने वाला तुलापति सिंह का ‘मदनराज चरित उपन्यास’ । 3″ आज विभिन्न विषयों पर उपन्यास लिखा जा रहा है, जिसे पाठक हाथों-हाथ खरीद कर पढ़ रहे हैं। मैथिली में भी काफी उपन्यास लेखन हुआ है। प्रारंभिक समय के उपन्यासकार हैं – जनार्दन झा जनसीदन, रासबिहारी लाल दास, पुण्यानंद झा, भोल झा, कुमार गंगानन्द सिंह आदि। फिर इस विधा पर हरिमोहन झा ने काम करते हुए कन्यादान और द्विरागमन लिखकर उपन्यास विधा को और अधिक प्रतिष्ठित किया। उपेंद्रनाथ झा व्यास, योगानन्द झा, शैलेंद्रमोहन झा आदि ने भी अपनी विशिष्ट दृष्टि से इस विधा को मैथिली साहित्य में विशिष्टता प्रदान की। मणिपद्म उपन्यास में ऐतिहासिक कार्य कर गये। राजकमल, मायानंद मिश्र और ललित ने मैथिली साहित्य को श्रेष्ठ उपन्यास दिये। बाद में जीवकांत ने भी इस विधा में काफी काम किया। यात्री जी ने पारो, नवतुरिया और बलचनमा लिख कर परिवर्तनशील समाज को नवीन अभिव्यक्ति दी। प्रमुख उपन्यासकार जिनका भी नामोल्लेख आवश्यक है, उनमें सोमदेव, धीरेंद्र, रमानन्द रेणु, शैलेंद्र मोहन झा, हेतुकर झा आदि शामिल हैं। वर्तमान समय में उषा किरण खान, विद्यानाथ झा विदित, रामदेव झा, मधुकांत झा, सुभाषचंद्र यादव, मंत्रेश्वर झा, जगदीश प्रसाद मंडल, श्याम दरिहरे, चन्द्रमणि, प्रदीप बिहारी, पंकज पराशर, दिलीप कुमार झा, ज्योति रमण झा, अमलेंदु शेखर पाठक, ऋषि बशिष्ठ, सुरेंद्रनाथ, कमलेश प्रेमेन्द्र आदि इस विधा को और पुष्ट कर रहे हैं। अमलेंदु शेखर पाठक ने बाल उपन्यास “लाल गाछी” लिखा है। इसमें प्रकृति से लगाव, सांस्कृतिक चिंतन और अंधविश्वास के प्रति जागरूकता लाने का प्रयास किया गया। बच्चों को जिज्ञासु बनाने के लिए भी इस उपन्यास में कई छोटी-छोटी कथा समाहित हैं। “पपुआ ढपुआ सनपटुआ” उपन्यास कुमार पद्मनाभ लिखित है, जो अपने में खास तरह का है। दिलीप कुमार झा द्वारा लिखित उपन्यास “दू धाप आगाँ” में शिक्षा और वास्तविक शिक्षा को नजदीक से दिखाया गया है। कमलेश प्रेमेन्द्र ने अपने उपन्यास “पाथर सन करेज” में बाल मजदूरी का विरोध किया है। बाल मजदूरों को भी पढ़ा-लिखाकर, उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़कर एक सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। ” जेहने करनी तेहने भरनी ” बाल उपन्यास के उपन्यासकार हैं – डॉ अजित मिश्र । बैज्ञानिक ढ़ंग से रहस्यमयी है यह बाल उपन्यास । जिसमें मनुष्य और वास्तविक मनुष्य होने की कथा कही गई है । बच्चों के लिए यह उपयोगी उपन्यास है । चन्द्रमणि का बाल उपन्यास” गुलरी” बच्चों के मन की बात करता है ।

साहित्य में निबंध विधा का एक अलग महत्त्व है। किसी विषय को नियोजित ढंग से लिखने के लिए व्यापक स्तर पर लेखन कार्य निबन्ध में ही संभव है। इस विधा में पूर्व में भी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य हुए हैं। सम्पादकीय भूमिका, ललित निबन्ध, आलेख-निबन्ध, समीक्षा-समालोचना-आलोचना इसके अन्तर्गत व्याख्यातित होता है । निबन्ध विधा के सम्बन्ध में विमर्श पुस्तक में डॉ. भीमनाथ झा लिखते हैं –” निबन्ध विधा भानुमती का पेटार है । वाङ्मय के खजाना में हाथ दिजिये, जो रत्न मुट्ठी में आएगा, वह निबन्ध है । 4″ मैथिली में महत्वपूर्ण कार्य किये हैं – सर गंगानाथ झा, अमरनाथ झा, सुरेंद्र झा सुमन, रमानाथ झा, दुर्गानाथ झा श्रीश , जयकांत मिश्र, दिनेश कुमार झा, बाल गोविंद झा व्यथित, मुरलीधर झा, परमेश्वर झा, शिवाकांत पाठक और देवकांत झा, शैलेंद्र मोहन झा आदि । इस विधा के अन्तर्गत धीरेंद्र नाथ मिश्र, वीणा ठाकुर, नीता झा, उषा चौधरी आदि ने भी सराहनीय कार्य किये हैं ।

आलोचना साहित्य में कार्य करने वाले नाम के रूप में देखा जा सकता है – रमानाथ झा, प्रेमशंकर सिंह, मोहन भारद्वाज, अमरेश पाठक, जयधारी सिंह आदि । वर्तमान समय में मैथिली साहित्य के निबंध एवं समीक्षा विधा में डॉ भीमनाथ झा, डॉ रामदेव झा, डॉ रमानन्द झा रमण, डॉ केष्कर ठाकुर, डॉ अरूणा चौधरी, तारानंद वियोगी, रमेश, डॉ नारायण झा , डॉ अशोक कुमार मेहता, डॉ दमन कुमार झा, डॉ अजीत मिश्र, डॉ कमल मोहन चुन्नु, पंचानन मिश्र, डॉ महेन्द्र नारायण राम, श्रीपति सिंह, शिव कुमार झा टिल्लू , मेधाकर झा, सत्यनारायण प्रसाद यादव, रितेश पाठक, विनीत उत्पल आदि निरंतरता के साथ गतिमान हैं। डॉ रमानन्द झा रमण ने हाल में हीं “बेराएल” समीक्षा संग्रह लिखा है, जिसमें उन्होंने विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखे हैं। “मैथिली साहित्य विमर्श” में पं. गोविंद झा ने सम्पूर्ण मैथिली साहित्य को ध्यान में रख कर आलोचनात्मक आलेख लिखे हैं, जो विशेष उपयोगी हैं। पंचानन मिश्र ने लोक विमर्श में लोक साहित्य और इसके परिधिगत आने वाले तथ्यों पर आलेख लिखे हैं। “निनाद” नाटक पर समीक्षा पुस्तक डॉ कमल मोहन चुन्नु ने हाल ही में लिखी है। नाटक को जानने-परखने के लिए यह खास किस्म की पुस्तक उपयोगी है। “निकती” रमेश द्वारा लिखित मैथिली में समकालीन कविता पर समीक्षा पुस्तक है, जो मैथिली कविता के प्रतिनिधि स्वर पर लिखी गयी है। हास्य-व्यंग्य ललित निबंध संग्रह के रूप में रूपेश त्योंथ का “खुरचनभाइक कछमच्छी” बेस्ट सेलर बुक श्रेणी में परिगणित होने योग्य है। इस संग्रह में समाज के नकारात्मक पक्षों को हास्य-व्यंग्य के माध्यम से सामने लाया गया है, जिससे कि लोगों में सोचने की छटपटाहट उत्पन्न हो सके।

मैथिली साहित्य में अनुवाद कर्म भी जिम्मेदारीपूर्ण ढंग से हो रहा है। शब्द, भाषा और बिंब का विस्मयपूर्ण सरोकार गढ़नेवाले वरिष्ठ कवि हरेकृष्ण झा ने वाल्ट विटमन की कई कविताओं का अनुवाद कर मैथिली में अनुवाद कर्म को विशिष्टता प्रदान की है। उनका अनुवादित कविता संग्रह “ई थिक जीवन” अनुभूति का विस्तृत आकाश गढ़ता है। अनुवाद कार्य के लिए अजित आजाद, अशोक अविचल, शंकरदेव, सदरे आलम गौहर, इन्द्रकांत झा, रमाकांत राय रमा, योगानंद झा, अमलेंदु शेखर पाठक, नरेंद्र नाथ झा, पंकज पराशर, भैरव लाल दास सहित अन्य कई साहित्यकारों का नाम भी इस कड़ी में प्रमुखता से लिया जा सकता है।

किसी भी भाषा में कविता सबसे अधिक लिखी जाती है और पढ़ी भी जाती है। उसी प्रकार मैथिली भाषा में भी कविता अधिक लिखी और पढ़ी जाती है। आदिकाल और मध्यकाल पर विमर्श करना यहाँ संभव नहीं है। फिर भी कविता के लिए जो फाउंडेशन का कार्य किये हैं, उनका नाम संक्षिप्त में भी लेना आवश्यक है, वे हैं – विद्यापति, गोविंद दास, मनबोध, चंदा झा, सीताराम झा, भुवन जी, यात्री जी, राजकमल, मायानन्द मिश्र, धुमकेतु, राघवाचार्य शास्त्री जी, मधुप जी, सुमन जी, आरसी जी, धीरेंद्र, हंसराज, रमानन्द रेणु जी, रविन्द्रनाथ ठाकुर, प्रवासी जी, उपेंद्र दोषी, किशुन जी, किरण जी, तंत्रनाथ झा, अमर जी, सोमदेव, कीर्त्ति नारायण मिश्र, कुलानन्द मिश्र, भीमनाथ झा, उदयचन्द्र झा विनोद, गंगेश गुंजन, महाप्रकाश, फजलुर रहमान हासमी, विभूति आनंद, हरेकृष्ण झा, ज्योत्सना चन्द्रम, रामलोचन ठाकुर, सरस जी, देवशंकर नवीन, केदार कानन, नारायणजी, हरिश्चंद्र हरित, शैलेंद्र आनंद । इसलिए आधुनिक काल की इक्कीसवीं सदी के वर्तमान परिदृश्य पर दृष्टिपात करते हैं। वर्तमान लेखन मैथिली कविता में संतोष देने वाला है। वर्तमान समय में अपनी कविता के माध्यम से मैथिली साहित्य का प्रतिनिधित्व करनेवालों विशिष्ट कवियों के श्रेणी में एक हैं – अजित आजाद। इनका पूर्व में बहुत सारा पुस्तक प्रकाशित हैं, एक हाल हीं में कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है – “पेन ड्राइव मे पृथ्वी” । यह संग्रह वर्तमान समय का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इस संग्रह की एक कविता में कवि कहते हैं – “जहिया नहि रहत कतहुँ किछु/पृथ्वी भए गेल रहत तहस-नहस पूर्णरूपेण/तहिया भेटत एकटा सुन्दर पृथ्वी/पेन-ड्राइव मे सुरक्षित/बुद्धक विचार जकाँ/मुदा ई पेन-ड्राइव/राखब हम कतय जोगाकए”। कवि वर्तमान समय के आधुनिकीकरण से त्रस्त हैं। हम आधुनिकीकरण की होड़ में स्वयं को बर्बाद करने में लगे हैं। पृथ्वी, प्रकृति, वायु, जल के बिना हम रहेंगे कैसे, इस पर कवि चिंतित हैं। पृथ्वी से पेन ड्राइव तक के सफर में इस पृथ्वी को पेन ड्राइव में समेटने का प्रयास कर रहे हैं हमलोग। लेकिन उस पेन ड्राइव को भी रखने के लिए पहले पृथ्वी पर पेन ड्राइव भर की जगह तो चाहिए। नारायणजी समकालीन कविता में विशिष्टता दिखा रहे हैं। वे गाँव में रहकर गाँव के शब्द और बिम्ब से देश-विदेश की यात्रा अपनी कविता में कराते हैं। “धरती पर देखू” कविता संग्रह अन्तर्गत “गाछी” कविता में वे कहते हैं – “अपना केँ जोति दैत छी/आर कतेको धुनि मे/बजार सँ अबैत अछि स्वर/ललिचगर अछि/बढ़ैत अछि डेग/आर डेग संग व्यस्त छी/ की देखबा मे व्यस्त छी।” वे कहना चाहते हैं कि आधुनिक बातों को स्वीकार करना चाहिए, लेकिन अपने घरों की वस्तु को भी खोजना आवश्यक है। “ग्लोबल गाम सँ अबैत हकार” कविता संग्रह के कवि हैं-कृष्ण मोहन झा मोहन। गंभीर मानवीय चिंता और चेतना की बातें इस संग्रह में बखूबी की गई हैं। शीर्षक “समयान्तर” में-अबैत-अबैत/एकटा समय एलै/जखन बाबूक आस्था/हमरा अनसोहाँत लागए लागल/हिनक स्त्रोत-पाठ/आ परातीक तान सेहो हमरा/ठिठुरैत रातुक लाचारी लागए लागल।” हम सभी पुरानी चीजें को छोड़ रहे हैं, पुराने विचारों को छोड़ रहे हैं। परिवर्तन संसार का नियम है। परिवर्तन होना भी चाहिए, लेकिन ठीक और उचित दिशा में हो। प्रगतिशील होने का अर्थ यह नहीं कि हम अपने माता-पिता, संस्कृति और संस्कार को छोड़ दें। कवि अपने संस्कार और संस्कृति को संभालते हुए प्रगति के मार्ग पर बढ़ने के लिए आग्रह करते हैं। कविता संग्रह “खण्ड-खण्ड मे बँटैत स्त्री” मे कवयित्री कामिनी ने स्त्री विमर्श आधारित कविता लिखकर नारी की चेतना को परिभाषित करने और उसे जगाने का प्रयास किया है। वे कहती हैं कि स्त्री मात्र भोग के लिए नहीं है, बल्कि स्त्री समाज में पुरुषों के बराबर चलने के काबिल है। शीर्षक अग्नि परीक्षा मे लिखी है – सीता आब नहि देती अग्नि परीक्षा / जँ देबाक होनि तँ देथुन राम / । “अपना केँ अकानैत” कविता संग्रह धीरेंद्र कुमार झा लिखित है। इस कविता संग्रह में विभिन्न भाव की कविता है। विषय-विस्तार के दृष्टिकोण से यह संग्रह महत्त्वपूर्ण है। कवि कहते हैं-सभहक किछु अर्थे होइ, एहेन बात नै छै/बाकी सभ व्यर्थे होइ, एहेन बात नै छै। सही बात है, सभी बातों का सीधा अर्थ लगाना संभव नहीं है। मनोज साण्डिल्य अपनी कविता में कहते हैं – समयक विशाल चक्र/दुराचारक कुचक्र/चलबे करतै/चलिते रहतै/तेँ की/विश्वास त्यागि/न्याय-विवेक सँ भागि/ बैसि रहत/ठुट्ठ गाछक तअड़? इस जीवन को आशावादी विचार से सींचते रहना चाहिए, ऐसा कवि आग्रह कर रहे हैं। “ई कोना हेतै” डॉ वैद्यनाथ झा लिखित कविता संग्रह है, जिसकी सभी रचनाएं जीवन के इर्द-गिर्द घूमकर सचेत करने के लिए आतुर दिखाई दे रही हैं। कवि लिखते हैं- भाइ/बड्ड विकट/परिस्थिति सँ/गुजरि रहल छी आइ/किछु नहि फुराइत अछि/ सभ उमेदक सीर/सुखा गेल अछि। युवा कवि अरुणाभ सौरभ “एतबे टा नहि” कविता संग्रह में विविध विषय वस्तु के अन्तर्गत ग्राम्य बोध की कविताओं से अधिक जगह गांवों के प्रति मोह दिखाते हैं। लोगों का पलायन देखकर वे विहवल हो उठते हैं और कहते हैं : चलू गाम मे गूंजल कोयलीक तान छै/मजरल जे आम-पात हरियर मखान छै/हरियर धरती माय केर नव मुस्कान छै/चलू जतय मास नव फागुन महान छै। युवा कवि चंदन कुमार झा कविता संग्रह “धरती सँ अकास धरि” में एक नया वितान रचते हैं। वे कविता के माध्यम से कहते हैं : समय चक्र केर बाँहि पकड़ि कए/ दिन-राति ससरैत रहैत छैक/ससरि-ससरि कए सकल धरा पर/नवके किछु सिरजैत रहैत छैक/ जीवन कथा कहैत रहैत छैक। कवि के अनुसार इस जीवन में नया करते रहना ही मनुष्य की सार्थकता है। गोपाल झा अभिषेक अपने सूक्ष्म भावों को कविता द्वारा व्यक्त करते हैं। वे प्रतिरोध को आवश्यक बताते हुए कविता संग्रह “कइएक अर्थ मे” में कहते हैं – युग धर्म अछि प्रतिरोध/युग कर्म अछि प्रतिरोध/प्रतिरोध सँ विरोध निस्तेज करैए/धेड़िआ-धसानक हेंज बन्हैए। युवा लेखन में मैथिल प्रशांत का लेखन आश्वस्तिदायक है। इन्होंने ” समयक धाह पर” कविता संग्रह अंतर्गत “विचारधारा” कविता में कहा है – ककरा लेल/ याज्ञवल्क्य, जनकक विचार/ककरा लेल/मार्क्स-लेनिनक विचार/ककरा लेल रचल गेलै/वेद-पुराण/ आ कि दास कैपिटल/किनसाइत मनुक्खे लेल तँ नहि। विचारधारा की जंजीर में जकड़ कर कविता लिखना मेरे ख्याल से उचित नहीं है। कविता तो स्वयं विचारधारा है, जो सम्प्रेषित होती चली चाती है। नेपाल के धरती जो वास्तविक में मिथिला क्षेत्र हीं कहलाती है, वहाँ से आती हैं कवियत्री बिजेता चौधरी । हाल हीं में एक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ ” धाराक विरूद्ध”, जिस काव्य संग्रह के कविता शीर्षक आवरण में लिखती है — रंग बदलैत ई दुनिया देखि/नै पुछू कतेक बदलि गेलहुँ/ओ जे रंग छल खांटी/से उतरि गेल कहिया ने/ई जे छैक नव रंग /नै जानि कतएसँ चढ़ि गेल । आधुनिक युग के परिवर्तन में लोग अच्छे संस्कारों भी कैसे भुला कर नये संस्कार को आवरण के रूप में कैसे चढ़ा रहै हैं, इस बातों से दुखी होकर शब्दों के माध्यम से कही है । “प्रथम प्रणय” कविता संग्रह के साथ कवियत्री आभा झा जी का मैथिली साहित्य में उदय होता है जो इस समय में कुछ अलग तुकबंदी में लिखे गये कविताओं का संग्रह है । विभिन्न विषयों को अपने क्षमता से काव्य-कौशल दिखाई है कवियत्री आभा झा । प्रणव प्रियदर्शी एक ऐसे कवि हैं जो समान रूप से मैथिली-हिन्दी में लिख रहे हैं । उनके द्वारा रचित एक काव्यांश देखा जाए– जिनका किछु छुबैत नहि छैन्ह/ओ कोना जिबैत छथि/से ओ अपन जानौथ/हम अपन जनैत छी/। कवि स्पष्ट रूप से मानवीय संवेदनशीलता पर वकालत कर काव्य भंगिमा को दिखाये हैं । प्रवीण कश्यप का ” विषदंतिक वरमाल कालक रति ” , निशाकर का ” ककबा करैए प्रेम , दीप नारायण विद्यार्थी का ” जे कहि नहि सकलहुँ ” , प्रणव नार्मदेय का कविता संग्रह “विसर्ग होइत स्वर”, निवेदिता झा का “स्त्रीक मोन” , खुशबू मिश्रा का ” एक मिसिया इजोत ” , स्वाती शाकंभरी का पूर्वागमन , अंशुमान सत्यकेतु का ” एखन धरि ” , डॉ सत्येंद्र कुमार झा का ” स्वप्न मे इन्द्रधनुष ” , महेश डखरामी का ” महेश मंजरी , सारस्वत का “अपराजिता ” , रोमिशा का ” फूजल आँखिक स्वप्न”, गुफरान जिलानी का ” लाल ओसक बुन्न” , रघुनाथ मुखिया का “झुझुआन होइत गाम” , विजेता चौधरी का “धाराक विरुद्ध” , गुंजन श्री का “तरहत्थी पर समय” आज के समय में पठनीय है। गीत लेखन में भी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य पूर्व से हीं होते रहे हैं । अभी भी गीत लेखन में मैथिलीपुत्र प्रदीप , डॉ चन्द्रमणि , अरविंद अक्कु , कमल मोहन चुन्नू , अजित आजाद , शिव कुमार झा टिल्लू , अमित मिश्र , अमित पाठक , मैथिल प्रशांत , अक्षय आनंद सन्नी , प्रदीप पुष्प , मनीष कुमार झा बौआभाइ आदि पूर्ण रूप से सक्रिय हैं । नयी पीढ़ियों में विभिन्न शैक्षणिक और रोजगारपरक पृष्ठभूमि से जुड़े बहुत सारे ऐसे युवा लेखक सामने आ रहे हैं, जिनकी पुस्तक प्रकाशित नहीं है, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति भावों का नया संसार रच रही है। उनकी दृष्टि का पैनापन कविता को नये कथ्य, नवीन चिंतन, नये शिल्प और नये तेवर से संपृक्त कर रहा है। उनमें से कुछ नामोल्लेख आवश्यक है – शंकर मधुपांश, अवधेश अनल, राजीव रंजन झा, डॉ अनिल ठाकुर, डॉ संजीव समाँ, डॉ रामसेवक झा, रूपम कुमारी, विकास वत्सनाभ, बालमुकुंद पाठक, पंकज कुमार, सुमित मिश्र गुंजन, प्रियरंजन, अनुराग, मलयनाथ मिश्र , प्रीतम निषाद, डॉ संजित झा सरस, श्याम झा, आभा झा ( त्रय ), पूजा श्री, सोनी नीलू झा , पुतुल प्रियंवदा , पूनम झा सुधा , समता मिश्रा , जयंती कुमारी, रूपा ठाकुर , सुशांत अवलोकित, अम्बिकेश मिश्र, आनंद मोहन झा , रेखा कुमार, अरूण लाल दास, रामप्रीत पासवान, विद्याचन्द्र बमबम, मुक्तार आलम, नीरज झा, धर्मवीर भारती, रजनीश प्रियदर्शी, सान्त्वना मिश्रा, भावना मिश्रा । कुछ ऐसे युवा कवि भी हैं, जो हिंदी और मैथिली में समान रूप से सृजनरत हैं और अपनी प्रतिभा से नवीन आशाओं का संचार कर रहे हैं । समग्रतापूर्वक यह कहा जा सकता है कि मैथिली साहित्य हरेक दृष्टिकोण से संतुलित और संतुष्टिदायक है।


सन्दर्भ ग्रन्थ —

  1. आचार्य रमानाथ झा रचनावली — आचार्य रमानाथ झा — वाणी प्रकाशन, पटना — पेज न. – 24-25
  2. मैथिली कथाक विकास — सं. – डॉ. बासुकीनाथ झा — साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली– प्रस्तावना पेज
  3. मैथिली साहित्यक आलोचनात्मक इतिहास — डॉ. दिनेश कुमार झा– मैथिली अकादमी, पटना– पेज न. — 130
  4. विमर्श – डॉ. भीमनाथ झा — जखन-तखन, दरभंगा – पेज न. – 31

लेखक : नारायण झा

संप्रति : राजकीय मध्य विद्यालय रहुआ-संग्राम में शिक्षक रूप में कार्यरत ।

पता : ग्राम-पोस्ट– रहुआ-संग्राम, प्रखंड — मधेपुर, जिला– मधुबनी, पिन कोड : 847408 ( बिहार) ईमेल : narayanjha1980@gmail.com , मो : 8051417051

शिक्षा : नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी से एमए मैथिली ( गोल्डमेडेलिस्ट ) तथा मैथिली विषय से यूजीसी नेट परीक्षा भी उत्तीर्ण। अभी मैथिली विषय अन्तर्गत पीएचडी कार्य में संलग्न ।

लेखकीय उपलब्धियाँ : तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं। “प्रतिवादी हम” मैथिली कविता संग्रह पर साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार 2015 ई. प्राप्त है। दूसरा वर्ष 2017 ई. में “अविरल-अविराम” मैथिली कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है। तीसरा “मैथिली निबन्ध मालिका” निबन्ध संग्रह वर्ष 2018 ई. में प्रकाशित हुआ और पुनर्मुद्रण 2019 ई. में हुआ है । कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।

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