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  • कोरोना से सम्बंधित वैध सुचना

    कोरोना से सम्बंधित वैध सुचना

    कोरोना मानव सभ्यता पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह् है, हमें इस विषय को गम्भीरता से लेना चाहिए, इस संकट के समय में अफवाहों से दूर रहकर हमें अपने सरकारी विश्वस्त सूत्रों एवं सुचनाओं को ही प्रसारित करनी चाहिए. भारत सरकार एवं WHO द्वारा जारी किए गए गाइडलाइन्स का अक्षरशः पालन करना ही इस वक्त हमरा मानव धर्म एवं राष्ट्र धर्म है. अपने अपने घरों में रहिए सकारात्मक सुचनाओं को अपने स्वजनों तक पहुंचाइए एवं उनका ख्याल रखिए. और इश्वर से प्रार्थना कीजिए.

     

    स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार के ऑफिसियल वेबसाइट पर अपडेटेड डाटा देखने के लिए इस लिंक को चटकाएं – [ https://www.mohfw.gov.in/ ]

    कोरोना से रिलेटेड विश्व भर की परिस्थितियों से अगर आप अवगत होना चाहते हैं तो World Health Organization WHO के ऑफिसियल वेबसाइट का लिंक चटकाएं [ https://www.who.int/ ]

    दुनियाभर में फैल रहे इस संक्रमन के ग्राफ को देखने के लिए इस लिंक को चटकाएं

    Novel Coronavirus (COVID-19) Situation

     

    covid19

  • देवी सरस्वती की विशेष पूजा अर्चना कैसे करें – मन्त्र, चालीसा एवं विधि

    देवी सरस्वती की विशेष पूजा अर्चना कैसे करें – मन्त्र, चालीसा एवं विधि

    वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है । मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं । हर साल माघ महीने में शुक्ल की पंचमी को विद्या और बुद्धि की देवी मां सरस्वती की उपासना होती है । इस पर्व को आम भाषा में वसंत पंचमी कहा जाता है । पढिये देवी सरस्वती की विशेष पूजा अर्चना कैसे करें, मन्त्र एवं विधि । (more…)

  • नव वर्ष, नया संकल्प और नया लक्ष्य

    नव वर्ष, नया संकल्प और नया लक्ष्य

    नव वर्ष, नया संकल्प और नया लक्ष्य और लक्ष्य को पाने के लिए चाहिए दृढसंकल्प. तो क्या है आपका संकल्प वर्ष 2019 के लिए. (more…)

  • अतीत को वर्तमान से जोड़ती है ये घुमौर होली

    अतीत को वर्तमान से जोड़ती है ये घुमौर होली

    दुनिया भर में होली के कई रूप प्रसिद्ध हैं , चाहे ब्रज की प्रियतम को पीट कर मनाई जाने वाली लट्ठमार होली, वृन्दावन में मनाई जाने वाली फूलों की होली अथवा बनारस में लाशों के भभूत से मनाई जाने वाली मसानी होली हो| पर प्रसिद्धि की इस दौर में अगर कोई होली छूट जाती है तो वह है बनगाँव की घुमोर होली| जी हाँ| बिहार के सहरसा जिले का एक गाँव, जिसका शिक्षा और समृद्धि से गहरा नाता है| इस गाँव की कई विशेषताओं में से एक है, इसकी घुमोर होली| इस होली का स्वरूप भी ठीक फागुन की ही तरह मदमस्त और अलबेला है|

    इन्टरनेट की इस दुनिया में जहाँ चहुँओर shorts और reels का छद्म आवरण है, हर जगह ही जबरन संक्रमण व्याप्त है वहीं बनगाँव की यह होली अभी भी अपनी मौलिकता से डिगे बिना मोहब्बतें के अमिताभ बच्चन की तरह ही परंपरा, प्रतिष्ठा और अनुशासन का ध्वज प्रशस्त किए हुए है| यहाँ आज भी होली अपने पौराणिक और यथार्थवादी स्वरूप में मनाई जाती है| मान्यता है कि 18 वीं सदी में मिथिला के ज्योति पुंज संत शिरोमणि लक्ष्मीनाथ गोसाईं द्वारा इस पर्व की शुरुआत की गयी थी|

    घुमौर की शुरुआत कुलदेवता की पूजा एवं बड़े-बुजुर्गों से होती है| तत्पश्चात होली के हलचलियों की टोली निकलती है| अर्धनग्न अवस्था, शरीर पर तेल की चमक, चेहरे पर बसंती मुस्कान और प्रेम की प्यालियाँ लेकर एक-दूसरे के द्वार पहुँचते हैं| इस तरह जो अपनापन और एकता की रंगीन फुहारें उड़ती हैं| क्या हिन्दू- क्या मुस्लिम| सब प्रमत्त हो जाते हैं| समाज में व्याप्त इस अपनापन के संवदियों की टोली का स्वागत रंग, पानी, अबीर और मिठाई के साथ किया जाता है| नवतुरिया, प्रौढ़, बुजुर्ग सभी उस दिन एक समान जवान रहते हैं|

    आजकल जहाँ समाज आर्थिक रूप से दो ध्रुवों में विभक्त प्रतीत होता है वहीं अर्धनग्न अवधूतों की टोली दोनों छोर की खाई को बंधुता और समाजिकता से भर देती है| इस तरह समूचा गाँव प्रेम की अविरल धार से सिंचित रहता है| एक विशाल जनसैलाब का सबसे विशेष स्वरूप उस समय परिलक्षित होता है, जब लोग एक दूसरे को कंधे पर उठाकर बलजोरी ‘होरी’ को प्रस्थापित करते हैं| इस तरह वे उस अंतिम सत्य का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं जिसके तहत् लोग अंतिम उस इन्सान को कन्धा देने से हिचकते नहीं हैं जिसको गिराने का प्रयास उन्होंने जीवन भर किया था| बुजुर्ग, अपने नौनिहालों को कंधे पर उठाकर उसे सामाजिक सद्भाव का पाठ पढ़ाते हैं साथ ही बताते है कि कोई इंसान बड़ा या छोटा नहीं होता अपितु उसमें मनुष्यता होनी चाहिए| वहीं दूसरी ओर नवयुवक, अपने बुजुर्गों को कंधे पर उठाकर उन्हें यह आभास करवाते हैं कि हम अपने कर्तव्यों का निर्वहन उसी शिक्षा के अनुरूप करते हैं, जो उन्हें विरासत में मिली है| कंधे पर सवार बलजोरी ‘होरी’ का यह समागम अपने आप में होली का एक अनूठा स्वरूप प्रदर्शित करता है| जनसैलाब के साथ जब धूल और मिट्टी भी साज एवं ताल के संग जोगीरा की तान छेड़ती है तो समूचा माहौल होलीमय हो जाता है| सुहागे के रूप में घुमोर होली के सूत्रधार लक्ष्मीनाथ गोसाईं द्वारा रचित फगुआ गीत भी लोगों के स्वभाव को भक्तिमय स्वरूप से सराबोर करती है|

    इस होली में दो उद्घोष भी खूब प्रचलित हैं ”जे जीबे से खेले फाग” एवं “होरी है”| सही ही तो कहा गया है न कि ऐसी जीवंत होली खेलकर ही तो आप अपने जीवित होने को प्रासंगिक कर रहे हैं|

    हाल के वर्षों में कुछ विकृति भी देखने को मिलती है| आजकल लोग सोशल मीडिया पर इस अपने आप को तथाकथित बुद्धिजीवी मानकर इस होरी-बलजोरी में सम्मिलित नहीं होने का प्रचार करते हैं | उनका भ्रम है कि इस तरह अपने आप को वे अभिजात्य वर्ग में शामिल कर लेंगे| खैर अब तो सोई हुई राज्य सरकार भी जागी है और पिछले वर्ष ही इसे राजकीय महोत्सव का दर्जा दिया है| पर इतना ही नहीं सरकार को चाहिए इस दुर्लभ होली की अनूठी परम्पराओं को जीवित रखने का प्रयास करें एवं प्रचारित करें|

    हाँ एक और बात अगर आप बनगाँव के न हों तो होली के दिन दोपहर डेढ़ बजे तक उधर से ना गुजरें नहीं तो वह होली आप जीवनपर्यंत नहीं भूल पायेंगे| हाँ मगर एक बात और है कि अगर आप बनगाँव घुस ही चुके हैं तो बिना घबराये, बिना डरे अपने आप को गोसाईं जी के हवाले कर दीजिए| होली के पश्चात् का आतिथ्य भी आप कभी नहीं बिसर पायेंगे|

    आलेख – आशीष कुमार

  • भारतीय गोरैया पक्षी : खुद में ऐतिहासिक कथा बनती जा रही !

    भारतीय गोरैया पक्षी : खुद में ऐतिहासिक कथा बनती जा रही !

    हे फुतकी गोरैया !

    गोरैया पक्षी (Sparrow Birds) की एक युगल जोड़ी सप्ताह में एक दिन कहीं से उड़ मेरे आंगन आती हैं । मेरे यहाँ कबूतर है, सोचा– वे भी कहीं न कहीं घोंसले बनाकर टिक जाएंगी । परंतु नहीं, वह कबूतर को दिए चावल के दाने चुन फुर्र उड़ जाती हैं, शायद हम मानवों से भय खाती हैं । कटिहार- मालदा रेलखंड पर कुमेदपुर रेलवे स्टेशन है, मैंने 2 साल पीछे देखा था, वहाँ हजारों की संख्या में गोरैये रह रहे हैं, अभी भी है ! भागलपुर जंक्शन में भी देखने को हमें इस फुतकी गोरैये के संरक्षण की दरकार है । सरकार के आसरे पर नहीं, अपितु सामाजिक सरोकार को जगाकर ! इसके लिए महीन दाने खेत- पथारों में कुछ यूँ छोड़ देने चाहिए व छिटने चाहिए । गोरैया में ‘गो’ शब्द का हिंदी अर्थ ‘जाना’ होता है, क्या यही हो गया ? तो हे ‘आरैया’ ! यानी ‘आ’ से आ जाओ, यहाँ मैं अकेला हो गया हूँ ! रे फुतकी गोरैया कहाँ चली गयी तू ! 20 मार्च को विश्व गोरैया दिवस रही ! जिनके लिए दिवस, वह प्राणी अल्पसंख्यक हो गए हैं ! राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में गोरैया को राज्यपक्षी का दर्जा प्राप्त है।

    गोरैया मूलत: दो प्रकार के होते हैं- वन्य गोरैया और घरेलू गोरैया। घरेलू गोरैया घर पर बाड़ी-झाड़ी में घोंसले बनाते हैं । अब तो शहरी या नगरीय गोरैया भी है । एशिया और यूरोप में घरेलू गोरैया रहते हैं, तो अमेरिका, अफ्रीका, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया इत्यादि जगहों में शहरी गोरैया रहते हैं । नगरी गोरैया की खासकर 6 प्रजातियाँ होती हैं, यथ – हाउस गोरैया, स्पेनिश गोरैया, सिंड गोरैया, रसेट गोरैया, डेड सी गोरैया एवं  ट्री गोरैया । सम्पूर्ण संसार के अधिकांश हिस्से में गोरैया की भागीदारी है । अगर कोई फुस आदि के घर बना रहे हैं तो गाहे-बगाहे गोरैया आ ही जाते हैं ! मूलत: जाड़े की ऋतु में इनका आवागमन होता है, किंतु अब भारत में और भारत में भी बिहार में अल्पसंख्यक हो गए यह पक्षी अन्य ऋतुओं में भी देखे जाते हैं ! यह बहुत छोटी पक्षी है, हालाँकि बुलबुल, रसप्रिया या रस पीया से कुछ बड़ी होती है । दरअसल यह पक्षी 10 से 16 सेंटीमीटर लम्बी होती है । हल्की कत्थई रंग या भूरे रंग पर सफेदी का मिक्सिंग लिए होती हैं । नर और मादा साथ चलती है, परंतु मादा के गर्भधारण पर नर अपनी मादा के लिए आहार चुग कर लेते हैं । शाकाहारी गोरैया होते हैं, तो कीड़े आदि का भी वे भक्षण करते हैं । पीले चोंची और पैर भी प्राय: पीले रंग के होते हैं । इनमें हाउस स्पैरो को गौरैया कहा जाता है। यह शहरों में ज्यादा पाई जाती हैं। आज यह विश्व में सबसे अधिक पाए जाने वाले पक्षियों में से है। लोग जहाँ भी घर बनाते हैं देर सबेर गौरैया के जोड़े वहाँ रहने पहुँच ही जाते हैं। पहाड़ी स्थानों में भी यह पक्षी रहना पसंद करती है । नर गोरैया के गले के पास काले रंग होते हैं  नर गौरैया के सिर का ऊपरी भाग, निचले भाग तथा गालों पर भूरे रंग आकारित होते हैं । आँखों पर भी काला रंग होता है । मादा गोरैया के सिर और गले पर भूरा रंग नहीं होती है । पिछले कुछ वर्षों से शहरों में ही नहीं, गाँवों में भी गोरैयों की संख्या कम होती जा रही है । गाँवों में भी अब काफी संख्या में पक्के मकान हो गए हैं । शहरों में तो बहुमंजिली भवनों में गौरैया को रहने के लिए पुराने घरों की तरह जगह नहीं मिल पाती है। मॉल आदि ने इसे जीना मुहाल कर दिया है। रंग-रौनक संस्कृति से वे खत्म ही होते जा रहे हैं । खाने में कहीं भी महीन दानों का न मिलना उनके जीवित रहने की प्रवृत्ति को दुरूह बना रहा है । मोबाइल, मोबाइल टावर, इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों से निकलनेवाली प्रकाशपुंज और प्रदूषण भी उनकी विलुप्ति का कारण है । मेरे यहाँ अंडे पर बैठी कबूतर भी तब अंडा सेवना बंद कर देती है, जब बिजली व ठनका कड़कती है । गोरैया भी ऐसा करते हैं !  सनद रहे, कबूतर की खोप में पनपनेवाली तिलचट्टे को गोरैया वैसे खोप में घुसकर निकालती है और उसके शरीर के हिस्से निकालकर फुर्र से उड़ जाती है । यह छोटे कीड़े या उनके अंडो या लार्वो पर जीवनयापन करती हैं । यह गर्मी मौसम में, पर ज्यादा ऊँचाई में नहीं, तश्तरीनुमा घोंसला बनाती है। यह तीन या चार अंडे देती है, जो ललछौंने, सफेद निलछौंने होती हैं । हालाँकि दोनों हल्के भूर रंगों के पंख लिए होते हैं । मादा गोरैया समर्पित पक्षी है, किंतु नर गोरैया चालाक होते हैं, किंतु अन्य पक्षियों जैसे चालाक नहीं !

    नर गोरैया में सेक्सकला कॉफी रोमांचित करता है । मादा को चोंच से आहार परोस कर अथवा खेत-बहियार में बिखड़े आहार को खुद के संरक्षण में नर गोरैया ‘मादा’ को खिलाने में सहयोग करते हैं ! यह मादा गोरैया को बहलाने-फुसलाने का मानवीय तरीका भी कह सकते हैं, फिर मादा समर्पित हो जाती है, नर के प्रति । मादा गोरैया शरीर को सिकोड़कर एक जगह बैठ जाती है, फिर नर गोरैया फुदक-फुदक कर मादा पर बैठते हैं, न्यूनतम 6-7 दफे और अधिकतम 22-23 दफे करते हैं, इसी क्रम में उन दोनों के बीच सहवास हो जाती है । यह फुदकती है, एतदर्थ इसे फुदकी या फुतकी चिड़िया भी कहते हैं । यह निरंतर फुदकती रहनेवाली छोटी चिड़िया है, जो झाड़ियों में निवास करती है। यह छोटे छोटे कीड़े मकोड़े उनके अंडो या लार्वो पर जीवनयापन करती है। फुदकी अप्रैल से सितंबर के बीच तीन फुट से कम की उँचाई पर छोटा प्यालानुमा घोंसला बनाती है। यह तीन या चार अंडे देती है, जो ललछौंह या नीले-सफेद और भूरे-लाल धब्बेदार होते हैं। ऐसे लक्षणों के गोरैया यूरोप और एशिया महादेश में पाए जाते हैं । वृक्षों में रहनेवाली गोरैया में हल्के हरापन रंग अनुकूलित हो जाते है, किंतु ये सुग्गे या तोते जैसे हरापन लिए नहीं होते हैं !

    कुमेदपुर रेल जंक्शन के बाद भागलपुर रेल जंक्शन के छतों के कोटरे में भी गोरैया का खोता व घोंसले दिखाई देते हैं । स्टेशन परिसर में इस नन्हें परिंदों का गुलजार है। स्टेशन पोर्टिको के ठीक सामने के एक घना पेड़ पर सैकड़ों गोरैयों का आशियाना है। सुबह-शाम सूर्यास्त की लालिमा के साथ स्टेशन कैंपस में गोरैयों के टिक-टिक से व उनके चहचहाने वातावरण में संगीत घोल देता है । स्टेशन परिसर के रहवासी रेलकर्मियों ने कहा कि स्टेशन परिसर के गार्डेन में सजावटी पेड़-पौधे लगाए गए थे, वो काफी बड़े हो गए हैं। इसके पत्ते बहुत घने हैं, उसपर अमलतास की लत्तियाँ भी चढ़ गई है, जोकि सजावटी पेड़-पौधे पर एक आवरण लिए हो गया है, यही कारण है कि गोरैया अपने घोंसले को यहाँ बनाकर ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं ! भागलपुर के पक्षी वैज्ञानिक बताते हैं, प्रत्येक शाम गोरैया आते हैं, अपने-अपने रैन-बसेरों में रात बिताते हैं, फिर सुबह भोजन-पानी के फिराक में कलरव करते हुए फुर्र उड़ जाते हैं । वहां इसलिए आती हैं कि उसे रात बिताने के लिए झाड़ीदार पेड़ चाहिए। आसपास के आम, पीपल, बबूल, जामुन इत्यादि पेड़ों पर भी गोरैया घोंसले बनाकर रहते हैं । भागलपुर जंक्शन के पीछे और दक्षिण दिशा की बस्ती में भी गोरैया की तादाद है, जहाँ पक्के मकान की संख्या कम है, जहां भी गोरैया रहते हैं और महीन दाने चुगते हैं । यदि घर में घोंसला बनाई, तो वे सहज महसूस करेंगे । खिड़कियों, छज्जे, छतों पर, आँगन, दरवाजों पर उनके लिए दाना-पानी रखने से गोरैया चिक-चिक करते आएंगे । कड़ी धूप में पानी नहीं मिलने से गोरैया मर-खप जा रही हैं । वे घर पर छज्जे में रखे पुराने जूट, कूट के डिब्बों, मिट्टी के बर्तनों, जूट के टंगे थैलों, बेकार पड़ी सूप, टोकरी इत्यादि जगहों में भी घोंसले बना लेते हैं। कटिहार, बिहार के मनिहारी, नवाबगंज में भी गोरैया देखने को मिलते हैं । एक स्थानीय पक्षीप्रेमी श्री काली प्रसाद पॉल बताते हैं कि गोरैया पालतू चिड़िया है। वे तो रोज गोरैयों को दाना-पानी देते हैं । इस माहौल में वे बड़ी शिकारी पक्षियों से खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं। वे अकसर मेरे मिट्टी और फुस के घरों के बीच बनी जगहों में अपने घोंसले बना लेती थी या आसपास के पेड़ों पर अपना ठिकाना तलाश लेती थी, किंतु अब पक्के मकानों और घटते पेड़ों के चलते उनके लिए घोंसले बनाने के लिए कोई जगह सुनिश्चित नहीं बची है।

    गोरैया : वैश्विक पक्षी

    यूएसए में कुछ भिन्न प्रकार की गोरैया रहती हैं, उनके रंग और आकार यूरेशियाई गोरैयों से भिन्न होती हैं, किंतु अंशत: ही । ऐसे गोरैये जर्मनी मूल के हैं । जो जर्मन गोरैया भी कहलाते हैं ! यह सब जर्मन प्रजाति के है , जिनकी उपजातियाँ भी है । अमेरिकी गोरैयों को स्वच्छ वातावरण चाहिए, किंतु यूरेशियाई गोरैयों को गंदे घोंसले में रहने को लेकर कोई फर्क नहीं पड़ता, वे तो वृक्षों के कोटरों में भी रैनबसेरा बना लेते हैं । मौसमी बारिश को छोड़कर मादा गोरैयों का प्रजननकाल हर मौसम में है । अगर नर-मादा में प्रफुल्लता रहे, तो मादा गोरैया अधिकतम 6 अंडे तक दे सकती है । उनके घोंसले में कुछ दूरी लिए महीन छिद्र भी होती है, जोकि अंडे को नीचे से भी वायुत्व मिले । जो अंडे सेवी जा रही हो ! उनका जीवनावधि दो वर्ष का होता है, किंतु इनसे अधिक भी जीने के प्रमाण है । मेरे घर के घोंसले में गोरैयों की जो जोड़ी रहते थे, उनमें नर गोरैया ने साढ़े तीन की जीवनावधि को पूर्ण की ! वायरस और परभक्षी हिंसक कीटों से भी उन्हें खतरा है । चींटी भी उनके कमजोर देह को काट खाते हैं, तो हरहरे जैसे सामान्य सर्पवर्ग के साँप भी उनके अंडे खा जाते हैं ! आम, जामुन, नींबू, अमरूद, अनार, बाँस, कनेर फूल, बबूल, कटहल इत्यादि पेड़ों पर भी उनके रैन-बसेरे हैं, किंतु इन पेड़ों पर लगे मंजरों को बचाने के लिए किए गए कीटनाशक व हानिकारक रसायनवाले स्प्रे के होने और इसे चखने या अन्य मेथड से शनै: शनै: गोरैये के आहारनाल प्रभावित हो रहे हैं और उनकी प्रजाति पूर्ण विनष्टता की ओर पहुँच चुकी है। इसके अतिरिक्त उसे दाना-पानी की भी समस्या उत्पन्नहो गई है । यह पक्षी प्रमुखतया ज्वार, बाजरा, पक्के धान से निकाले गए व फांके गए चावल, छोटे कीड़े-मकौड़े यानी अल्फा, कतवर्म, तिलचट्टे इत्यादि को छिन्न-भिन्न कर चुगते हैं, बच्चे को उगलकर देते हैं, कभी-कभी सीधे आहार चोंच से चोंच तक पहुंचाते हैं और अंतत: जल ग्रहण कर गोधूलि बेला में अपने प्रवास लौट जाती है । आज जलस्रोत भी विषैले और प्रदूषित हो रही है।

    यूरेशियाई गोरैया एशिया और यूरोप की विशाल आबादी से भी प्रभावित है । तभी तो विशाल आबादी के कारण यह वैश्विक स्तर पर लुप्तप पक्षियों की श्रेणी में नहीं आती है । सिर्फ दक्षिणी एशियाई क्षेत्र ही नहीं, अपितु पश्चिमी यूरोप में भी इस पक्षी की आबादी लुप्त होती जा रही है । यह शीत कृषि में कमी के कारण है । पूर्वी एशिया और पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में यह पक्षी हानिकारक जीव के रूप में देखी जाती है, तो अफ्रीका के जंगलों में हिंसक पक्षी के रूप में इनका जीवनशैली है । अध्ययन यही कहता है कि स्थानविशेष और भोजनविशेष के कारण यह भी प्राणी अनुकूलित प्राणी के संज्ञार्थ अभिहित है। ऐसे भारत में इसे कलात्मक पक्षी भी कहते हैं। भारत के महानगरों में यह पक्षी शून्यप्राय हो गए हैं। हिंदी कथाकार भीष्म साहनी जी अपनी कहानियों में गोरैया को गाथित किये हैं ! गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के समय शांति निकेतन में न सिर्फ गोरैया, अपितु कौवे और लंगड़ी मैना भी इठलाकर फुदकती थी ! आज वहाँ इस प्राणी का बसर तो है, किंतु गुरुदेव के जमाने की स्वच्छंदता लिए कहाँ ? भारत के अंग्रेजी लेखक रस्किन बांड को भी इस छोटी चिड़िया के प्रति अतिशय अनुराग है!

    भारतीय गोरैया

    भारत के वृक्षों पर आवास करनेवाले गौरैयों में लम्बाई 12 से 14 सेंटीमीटर अर्थात 5 से 6 इंच तक, फिर उनके पंखों का व्यास 18 से 22 सेंटीमीटर अर्थात 6 से 9 इंच तक होती है, तो वज़न 20 से 25 ग्राम तक होती है। हम भले ही बड़े हो गए हैं, किंतु हम दिल से छोटे और कमजोर, बेबस और बेकस भी हो गए हैं । भारत में लगातार ही गोरैया घटती जा रही है, किंतु इसे सिर्फ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का आसरा है, जबकि ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों में यह पक्षी रेड अलर्ट लिस्ट में शामिल है । पक्षी वैज्ञानिक संवेदनशील है, किंतु अपनी ही सुख-सुविधा और विलासिता में डूबे लोग गोरैया की विलुप्तता को गाम्भीर्यमूलक नहीं लेते हैं । दरअसल, इस पक्षी के गायब होने की सही पड़ताल देश में अबतक नहीं हो पाई है । हमारी अत्याधुनिक सुविधाओं से लेश होने की प्रवृत्ति हमारी प्रकृति को ढा दे रही है। ऐसे-ऐसे मकान बना रहे हैं कि इसतरह के प्राणियों के लिए जरा-सी भी जगह नहीं छोड़ रहे हैं । इनके प्रति हमारा अनुदार रवैया यानी वे विष्ठा (शौच) न कर दे, इस लिहाज से उनके घोंसले को उजाड़ फेंकते हैं । तिनके-तिनके जोड़कर उनके नीड़ निर्माण कोह नेस्तनाबूद कर डालते हैं । दूसरी ओर घर और वृक्ष के कोटरों में रहनेवाले साँप सहित, कौवे, कागे, बिल्ली-बिल्ला, बाज़, चील्हे इत्यादि हिंसक जीवों के क्रूर रवैये से उनके अंडे तो बचते नहीं ही है, वे भी किसी न किसी रात उन हिंसक जीवन के ग्रास बन जाते हैं।

    विदित हो, जवान गोरैया के मस्तक के ऊपरी हिस्सा और गर्दन का पिछला हिस्सा गहरे भूरे रंग का होता है, यह पूरी तरह से सफ़ेद गालों पर गुर्दे के आकार का काला धब्बा होता है । दाढ़ीवाले हिस्से, गर्दन तथा गर्दन और चोंच के मध्यांश भी काले रंग का होता है। ऊपरी अंश साफ भूरे रंग के नहीं होते हैं, बल्कि यह हल्केपन लिए होते हैं और उस पर काली धारियां होती हैं, तो इनके भूरे पंखों पर दो पतली व स्पष्ट सफ़ेद पट्टियां होती हैं। इनके पैर हल्केपन लिए भूरे रंग के होते हैं और गर्मियों में इनकी चोंच का रंग नीले पारदर्शी जैसे हो जाते है , जो सर्दी पड़ते ही उनमें कृष्णसदृश्य वर्ण के सापेक्ष हो जाते हैं । अपनी बिरादरी के अंतर्गत भी गोरैया भिन्न-भिन्न होती हैं, इनमें नर और मादा के बीच पंखों में कोई अंतर नहीं होता । यह जवानी और प्रौढ़ता आयु में भी एक सदृश्य दिखते हैं, बशर्त्ते इनमें भी प्रौढ़ावस्था में कुछ-कुछ मायूसी परिलक्षित होती जाती है । हाँ, रंग फीकेपन लिए हो जाते हैं । इनके चहरे पर सरलताभाव आने लगते हैं । नर गोरैया में एक अंतर और आ जाती है, उनके धड़ पर भूरे रंग छींटे लिए आबद्ध हो जाते हैं । वे शारीरिक समृद्धि लिए हल्के मोटे भी हो सकते हैं यानी उनमें वजन या मांसल वृद्धि आने लगती है । खून में जलीय तत्व लिए सक्रिय हो जाता है । हालाँकि यह फुर्ती का सूचक नहीं, तथापि शिकारी देखते ही वह फुर्र हो जाते हैं । घर और खेत-खलिहानों में जीवन-बसर करनेवाले गोरैयों में संगीत अभिलक्षण भी आबद्ध हो जाती है, वे जब एक-दूसरे के प्रति यानी प्रेमालाप को लेकर चुहलबाजी करने लगते हैं तो उत्तेजना में आकर प्रणय-निवेदन कर बैठते हैं, जो कि उनकी भाषा ‘चि-चि’ में प्रेमालाप होता है । शुरुआत नर गोरैया करते हैं और मादा गोरैया इनमें भाव-विह्वल हो सादर समर्पित हो जाती है । गीतों में लयबद्धता या अंताक्षरी उनके ही विहित है । मनुष्यों के साथ उनके व्यवहार सार्थक हैं, तभी तो मनुष्य जहाँ-जहाँ गए, गोरैये भी उनके हमसफ़र होते चले गए।

    मूलत:, उन्हें मित्रवत जनसमूह से कोई परेशानी नहीं है, किंतु वे शीघ्र शत्रुता भाववाले जनसमूहों की शीघ्र पहचान कर लेते हैं ! पर्यावरण में शोरगुल, डीजे की आवाज, मोटर-ट्रेनों को झिकझुक-भौंभौं, मोबाइल टावरादि से निःसृत रेडिएशन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रे से उनमें भय घर जाते हैं और वे ठीक से एक-दूसरे के प्रति प्रेमालाप नहीं कर पाते हैं । वृक्षों की हरियाली भी उन्हें पसंद है । ये कमी विविधता लिए है, जिससे अंडोत्पन्न में अक्षम हो रहे हैं । उन्हें नमकीन चीजें या नमकघुली वस्तुएँ से उनकी आयु घट रही है । उन्हें ऐसे भोज्य पदार्थ प्राप्त नहीं होनी चाहिए । अंडे उत्पत्ति पर भी भय के कारण उसे सेवने में समस्या आड़े आ रही है। विश्व गोरैया दिवस पर मेधाविनी मोहन जी ने सत्याग्रह के लिए समीक्षा की है कि इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इनकी संख्या आंध्र प्रदेश में 80 फीसदी तक कम हुई है और केरल, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में इसमें 20 फीसदी तक की कमी देखी गई है । इसके अलावा तटीय क्षेत्रों में यह गिरावट निश्चित रूप से 70 से 80% तक दर्ज की गई है । विश्व भर में गोरैया की 26 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से 5 भारत में देखने को मिलती हैं । नेचर फॉरेवर सोसायटी के अध्यक्ष मोहम्मद दिलावर के विशेष प्रयासों से वर्ष 2010 में पहलीबार विश्व गौरैया दिवस मनाया गया था । तब से ही यह दिन पूरे विश्व में हर वर्ष 20 मार्च को गोरैया के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जाता है । गोरैया के जीवन संकट को देखते हुए वर्ष 2012 में उसे दिल्ली के राज्य पक्षी का दर्जा भी दिया गया था । हालात अभी भी जस के तस ही हैं. वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के सहयोग से बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी सिटीज़न स्पैरो के सर्वेक्षण में पता चला कि दिल्ली और एनसीआर दिल्ली में वर्ष 2005 से गोरैया की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है । सात बड़े शहरों में हुए इस सर्वेक्षण में सबसे ख़राब नतीजे हैदराबाद में देखने को मिले । उत्तर प्रदेश में भी तत्कालीन सरकार के समय गोरैया के संरक्षण के लिए विशेष प्रयास और जागरूकता अभियान चलाए गए थे, पर वर्तमान में सब ठप है।

    यूपी, एमपी और राजस्थान में पक्षियों के संरक्षण के लिए कार्य करनेवाली संस्था भारतीय जैव विविधता संरक्षण संस्थान की अध्यक्ष सोनिका कुशवाहा बताती है कि गोरैया के संरक्षण की प्रक्रिया में एक मुश्किल उसकी गणना में आती है, फिर भी रिहायशी और हरियाली वाले इलाकों में सर्वेक्षण और लोगों की सूचना की मदद से उसे गिनने की कोशिश की जाती है । इसके लिए हम लोगों से अपील करते हैं कि अपने आसपास दिखाई देने वाली गौरैया की संख्या की जानकारी हम तक पहुंचाइये । वर्ष 2015 की गणना के अनुसार लखनऊ में सिर्फ 5,692 और पंजाब के कुछ चयनित इलाकों में लगभग 775 गौरैया थी । वर्ष 2017 में तिरुवनंतपुरम में सिर्फ 29 गौरैया पाई गई, जो दुःखद स्थिति है।

    मानवीय विलासिता : गोरैया की विनष्टता लिए

    विज्ञान से विकास तो होती है, किंतु उसके सामने चुनौती भी आती है । विकास हमारी टेक्नोलॉजी का परिणाम है । हम आत्मनिर्भर तो होते हैं, किंतु प्रकृति से दूर होते चले जाते हैं । हमारी अपेक्षा जब महत्वाकांक्षा में तब्दील हो जाती है, तब मानवेतर प्राणियों के प्रति हम कुटिल हो जाते हैं, यह कुटिलता जटिलता के सापेक्ष हो जाता है । यह विदित हो चुका है कि गोरैया पालतू पक्षी है, किंतु उस सुग्गे की भाँति नहीं, जो सोने के पिंजरे में बंद होकर सोने की कटोरी में दूध-भात खाती हैं । उस कबूतर की भाँति भी नहीं, जो पालतू बन अपने मालिक को अपने बच्चे का भोग लगाती हैं । विकास होनी चाहिए, किंतु यह विकास विनाश नहीं बने ! जंगल की बेतहाशा कटाई न होकर उनसे परिपक्व पादपों की ही सफाई हो, तो बेहतर है ! मनुष्य के अंदर जो दिल है, दरअसल में गोरैया पक्षी उनके ही करीब है । जब मानव दुष्ट प्रवृत्ति के होते चले जायेंगे, तो गोरैया भी दिल के मरीज व हृदयाघात के शिकार होंगे ही ! यह भावनात्मक-लगाव ही है, जो गोरैया को जीवन प्रदान करता है । यह प्राणी प्रकृति और शिष्ट मनुष्यों के बीच सहचारी का कार्य करती हैं । मानवीय बच्चे इनके करीब तो हैं, किंतु ज्यों-ज्यों ये बच्चे मर्द बनते जाते हैं, उनके व्यवहार में तब्दीली आती जाती है । हमारी नई पीढ़ी इन सबके साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता है । ऐसे कितने घर हैं, जहाँ दूसरे के पशु-पक्षियों को या वन्यजीवों के लिए दरवाजे या मुंडेर पर दाना-पानी रखते हैं, उत्तर मिलेंगे- 1% से भी कम ! गोरैया मनुष्यों के प्रकृति और सदवृत्ति से जुड़ी प्राणी हैं, वे शिष्ट मनुष्यों के शुभचिन्तक हैं ! वैसे वे सभी प्रकार के मनुष्यों के शुभचिंतक हैं, किंतु अशिष्ट मनुष्यों की धूर्त्तता से उनकी प्रजाति विलुप्त होती चली जा रही है। हाँ, यह सच है कि शीशे के आगे हम मानव ही चेहरे नहीं निहारते हैं, अपितु गोरैये आदि प्राणी भी शीशे के साथ स्वयं को निहार स्वयं को दिलबाग कर बैठती हैं।

    आज उनके संरक्षण की महती आवश्यकता है । दुनिया भर में 20 मार्च को गोरैया संरक्षण दिवस के रूप में मनाकर हम उसके प्रति सहानुभूति दिखाते हैं । सिर्फ एक दिन ही क्यों ? बाकी 364 दिन क्यों नहीं ? ध्यातव्य है, यह दिवस पहलीबार 2010 में मनाई गई थी । लेखक प्रभुनाथ शुक्ल ने  प्रसिद्ध पर्यावरणविद मो. ई. दिलावर के प्रयासों को नमन किया है ।आदरणीय पर्यावरणविद के बहाने उन्होंने लिखा है कि गोरैया का संरक्षण हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। मो. ई. दिलावर नासिक से हैं। वह बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़े हैं। उन्होंने यह मुहिम 2008 से शुरु की थी। आज यह दुनिया के पचासाधिक देशों तक पहुंच गयी है । गोरैया के संरक्षण के लिए सरकारों की तरफ से कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखती है। पर्यावरणविद मोहम्मद ई. दिलावर ने कहा कि लोगों में गौरैया को लेकर जागरूकता पैदा किए जाने की जरूरत है क्योंकि कई बार लोग अपने घरों में इस पक्षी के घोंसले को बसने से पहले ही उजाड़ देते हैं। कई बार बच्चे इन्हें पकड़कर पहचान के लिए इनके पैर में धागा बांधकर इन्हें छोड़ देते हैं। इससे कई बार किसी पेड़ की टहनी या शाखाओं में अटक कर इस पक्षी की जान चली जाती है। पर्यावरणविद दिलावर के विचार में गोरैया संरक्षण के लिए लकड़ी के बुरादे से छोटे-छोटे घर बनाए जाय और उसमें खाने की भी सुविधा हो। उनके विचार में मोर (मयूर) की मौत का समाचार मीडिया की सुर्खियां बनती है, लेकिन गोरैया को कहीं भी जगह नहीं मिलती है। वह आगे  कहते हैं कि अमेरिका और अन्य विकसित देशों में गोरैयों सहित सभी पक्षियों के ब्यौरे भी रखे हैं । उन्होंने पक्षियों के संरक्षण के लिए कॉमन बर्ड मॉनिटरिंग आफ इंडिया के नामक् वेबसाइट भी बनायी है, जिसपर कोई भी पक्षियों से संबंधी जानकारी और आंकड़ा निकाल सकते हैं। यह संस्था स्पैरो अवार्ड्स भी देती है। ज्ञातव्य है, आंध्र यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में गोरैया की आबादी में 60 फीसदी से अधिक की कमी आयी है। ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसाइटी आफ प्रोटेक्शन आफ बर्डस‘ ने विलुप्ति के कारण इस चुलबुली और चंचल पक्षी को ‘रेड लिस्ट‘ में डाला है । दुनिया भर में ग्रामीण और शहरी इलाकों में गौरैया की आबादी घटी है । गोरैया पासेराडेई परिवार की सदस्य है, लेकिन इसे वीवरपिंच का परिवार का भी सदस्य माना जाता है । यह अधिकांश झुंड में रहती है । यह अधिकतम 2 मील की दूरी तय करती है । गोरैया को अंग्रेजी विज्ञान में पासर डोमेस्टिकस के नाम से बुलाए जाते हैं। इस पक्षी को अधिक तापमान अखरता है।

    मैं मोबाइल टावर की बात नहीं कर रहा, किंतु अगर लगातार मोबाइल व्यवहार से उपयोगकर्त्ता को क्षति पहुंच सकती है, तो असंख्य चालू मोबाइलों से निःसृत rays and radiation की उपस्थिति मात्र से यह छोटी चिड़िया के दियाद-गोतिया विनष्ट होने के कगार पर क्यों नहीं पहुँच सकती है, सिर्फ गोरैया की नहीं ! छोटी चिड़िया बुलबुल, रसपिया या रसपीया आदि की यही दु:स्थिति है । गाँव भी शहर बनते जा रहे है । वनों का सफाया, युवा वृक्षों की कटाई, तालाबों में मिट्टी भरकर सपाट किये जा रहे हैं, उसपर गैस गोदाम या पेट्रोल पंप बन रहे हैं । विदित हो, छोटी-छोटी पक्षियों को नदियों से जल ग्रहण करने में डर और संकोच होती है, किंतु तालाबों व पोखरों से ऐसा नहीं होती है । बहती नदियों के जलस्रोत में हिंसक जलीय जीव भी तो सकते हैं । इसके साथ ही गोरैये के डैने उतने मजबूत भी तो नहीं होते हैं । बाग-बगीचों अथवा शहरी पार्कों में मनुष्यों ने ही तो कब्जा कर रखे हैं । मिट्टी और फुस का घर गोरैयों के आवासन के लिए सबसे अनुकूल है। आकाश चूमती इमारतें और संचार-संबंधी तमाम activities उनके लिए जीवन दूभर कर दिए हैं । मोटरकारों, रेलों की पों-पों सहित प्रदूषित पर्यावरण और उद्योग-धंधों की विकास-यात्रा लिए कल-कारखानों से निकली धुंए से उनके जीवन अभिशप्त हो रहे हैं । गोरैया घास के बीजों से भी अपनी आहार चुगती है । पर्यावरणप्रेमी से लेकर पर्यावरणविद तक गोरैयों के दशा एयर दिशा को लेकर बेहद चिंतित हैं, परंतु भारत के ही नहीं, प्राय: देशों के वन और पर्यावरण मंत्रालयों का रुख इस ओर बेरुखी लिए है। कृषि में भी जैविकनाशक दवाइयों का छिड़काव बीज को विषाणु बना दे रहे हैं, हालाँकि यह मनुष्यों को सीधे तौर पर attack नहीं कर रहे हैं, किंतु गोरैयों द्वारा इन कीड़े-मकोड़े को चखने मात्र से वे असमय काल-कवलित हो रहे हैं । पतंगबाजी प्रतियोगिता, हवाईअड्डे के आसपास वाले क्षेत्र, तो चील, गिद्ध, कौवे इत्यादि झपटमार बड़े पक्षी भी उन्हें ‘चट मंगनी, पट ब्याह’ की भाँति उन्हें शीघ्र ही आहार बना लेते हैं । ज्ञात हो, पतंगों के खेल में उनके चोंच, पैर, पंख और आँख घायल हो जाया करते हैं । गोरैयों के अंडे, बच्चे व चूजे को सर्प आदि हिंसक जीव या दुष्ट प्राणी आहार बना लेते हैं । भारत में गोरैया संरक्षण के लिए नियम बनानेवाले महाराष्ट्र पहले राज्य हैं, उत्तर प्रदेश दूसरे, दिल्ली तीसरे और चौथे में बिहार आते हैं। सर्वप्रथम वर्ष 2008 में गोरैया के संरक्षण के लिए जागृति लिए चलाई गई  वैश्विक मुहिम ने रंग लाई । विश्व गोरैया दिवस 20 मार्च 2010 को पहलीबार व्यवस्थित ढंग से नेचर फाइबर सोसायटी के द्वारा मनाया गया। सनद रहे, प्राय: गोरैये का जीवन काल 11 से 13 वर्ष होता है। यह समुद्र तल से 1,500 फीट ऊपर तक पाई जाती है। गोरैया पर्यावरण में कीड़ों की संख्या को कम करने में मदद करती है।

    गोरैयों के प्रभावी चिंतक

    भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक मो. सलीम अली ने भी इस पर बेइंतहा कार्य किये हैं, वहीं लखनऊ की लेखिका श्रीमती संतोषी दास लिखती हैं कि गौरैया की चूं चूं अब चंद घरों में ही सिमट कर रह गई है। एक समय था जब उनकी आवाज़ सुबह और शाम को आंगन में सुनाई पड़ती थी। मगर आज के परिवेश में आये बदलाव के कारण वह शहर से दूर होती गई। गांव में भी उनकी संख्या कम हो रही है। आधुनिक घरों में गोरैया के रहने के लिए कोई जगह नहीं है । विदित हो, घर पर महिलाएं अब न तो गेहूं सुखाती हैं, न ही धान कूटती-पीसती हैं, जिससे उन्हें छत पर खाना नहीं मिल पाती है। घरों में टाइल्स का इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है, जिससे गोरैया को फुदकने में परेशानी हो रही है । पक्षी विज्ञानी श्री हेमंत सिंह के अनुसार, गोरैया की आबादी में 60% से 80% तक की कमी आई है। अगर इसके संरक्षण के उचित प्रयास नहीं किए गए, तो हो सकता है कि गोरैया इतिहास की चीज बन जाए और भविष्य की पीढ़ियों को यह देखने को ही न मिले। लखनऊ विश्वविद्यालय में जंतु विज्ञान विभाग की प्रो. अमिता कन्नौजिया और उनके स्टूडेंट्स ने 8 जगहों पर गौरेया की संख्या जानने के लिए गणना की। इसमें चौंकाने वाला तथ्य यह सामने आया कि जो ग्रामीण क्षेत्र थे, वहां पर गौरेया की संख्या बेहद कम पाई गई, शहरी इलाके के बनिस्पत। इसका सबसे बड़ा कारण यह माना गया कि गांव अब आधुनिक हो रहे हैं, जिससे वहाँ भी गौरेये पर संकट मंडराने लगा है। लखनऊ में 2018 में इस सर्वेक्षण के समय सिर्फ 2,767 गोरैये पाए गए। लखनऊ में सर्वेक्षण हेतु 8 स्थान रहे, यथा- इटौंजा, बीकेटी, मोहान, अमेठी, गुसाईगंज, काकोरी, मलिहाबाद और डालीगंज। यह काउंटिंग उन्होंने वैज्ञानिक मैथेड प्वाइंट काउंटिंग और लाइन ट्रासिट मैथेड से किया। इसमें सबसे चौंकाने वाली बात यह सामने आई कि गांव में गोरैया की संख्या कम थी। इस गणना से यह पता चला कि इटौंजा में सबसे कम गौरेया थी। वहां पर गणना में गोरैया की संख्या 17 पाई गई। वहीं लखनऊ शहर के डालीगंज में 927 गौरैया पाए गए। प्रो. अमिता ने बताया कि यह सर्वे गोरैया पक्षी पर Ph. D. कर रहे उनके स्टूडेंट्स द्वारा किए गए हैं। इस सर्वे में यह पता चला है कि लखनऊ में कुल 2,767 गौरैया रहे हैं, यथा- डालीगंज में 927, इटौंजा में 17, बीकेटी में 200, मोहाना में 100, अमेठी में 100, गुसाईगंज में 50, मलिहाबाद में 150 रहे।  ज्ञात हो, यह कौतूहल और समर्पण की बात है कि उत्तरप्रदेश के आलमबाग निवासी श्री सुरेंद्र प्रसाद पाण्डेय ने तो अपना पूरा घर गौरैया के नाम कर दिया है, जिन्होंने अपने बगीचे में 15 टाइप्स के मानवनिर्मित घोंसले भी बनाए, जो दाना-पानी युक्त है।

    और अंत में

    भारत में उपलब्ध प्राचीन लेखों के अनुसार, यह पक्षी जिस भी घर में या उसके आंगन में पाई जाती है, वहाँ सुख-शांति बनी रहती है, किंतु प्रसन्नता सिर्फ पाने ने नहीं, इसे खोने में भी है ! हम विलासी बने और गोरैयों से दूर हो गए । प्राचीन हिन्दू धर्म में ऐसे और भी पक्षी हैं, जिनके धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व हैं । पक्षियों को हिंदू धर्म में देवऔर पितर माना गया है। ऐसी मान्यता है, जिस दिन आकाश में विचरते पक्षी लुप्त हो जाएंगे, उस दिन धरती से मनुष्य भी लुप्त हो जाएगा ! किसी भी पक्षी को मारना, अपने पितरों को ही मारने-जैसा है। भारतकोश में गोरैया को जंतु (Animalia), संघ- कोर्डेटा (Chordata), वर्ग- एवीज (Aves), गण- पैसरीफोर्म्स (Passeriformes), कुल- पैसरेडी (Passeridae), जाति- पैसर (Passer), प्रजाति- डोमेस्टिकस (domesticus), द्विपद नाम- पैसर डोमेस्टिकस (Passer domesticus‌) लिखा गया है। इस पक्षी की मुख्यत: 6 प्रजातियां बताई गई है। जो ऊपर वर्णित है । इसके अतिरिक्त सोमाली, पिंक बैक्ड, लागो, शेली, स्कोट्रा, कुरी, कैप, नार्दन ग्रे हैडॆड, स्वैनसन, स्वाहिल, डॆहर्ट, सुडान गोल्ड, अरैबियन गोल्ड, चेस्टनट इत्यादि नामक गोरैया विभिन्न देशों में पायी जाती है। इनके रंग-रुप, आकार- प्रकार देश-प्रदेश की जलवायु के अनुसार परिवर्तित होते रहे हैं।

    यह गल्प आख्यान हो सकती है कि सृष्टि के निर्माण के साथ ही इस धरती बनी हो ! इसके बाद वृक्ष, वन, वायु, पानी, आग, जीव-जंतु, पक्षी-कीटप्राणी भी उत्पन्न हुए । बादल-पानी, नदी-निर्झर, महानद-सागर हुए हो ! एक भाग धरती और शेष तीन भाग पानी से भर दिए हो, ताकि प्राणी जीवित रह सके ! …. और अंत में धरती को श्रृंगार रस में भिंगोने के बाद उन्होंने मानव की उत्पत्ति हुई ! सृष्टि में मानव को बुद्धि से आच्छादित की गई और तभी से सृष्टिकर्त्ता ‘मानव’ के प्रति सशंकित हो गए! सृष्टिकर्त्ता ने निर्माण कार्य छोड़ दिया, जब से मनुष्य के द्वारा निर्मित हर चीज कितना गहरा असर जन-जीवन पर डाल रही है ! मनुष्य के द्वारा निर्मित हर चीज कितना गहरा असर जन-जीवन पर डाल रही है । कई पशु-पक्षी विलुप्त हो गए । छोटी चिड़िया गोरैया भी उनमें से एक है। अमर उजाला के लिए लेखक श्री अमित शर्मा लिखते हैं कि हमारे बचपन की दोस्त गौरैया अब हमारे घर नहीं आती। अपना घर बनाने की चाहत में हमने उनसे उनका प्राकृतिक आवास और भोजन छीन लिया है। यही वजह है कि गौरैया अब हमसे लगातार दूर होती जा रही है और कई क्षेत्रों में तो अब ये देखने को भी नहीं मिलती ! पक्षीप्रेमी अर्जुन जी के हवाले कहना है कि मोबाइल टावर्स की तरंगें नहीं है समस्या। दिल्ली के चांदनी चौक के रहने वाले अर्जुन जी ने बताया कि अगर हम अपने घरों में कृत्रिम रूप से उनके लिए घोंसले बना दें, तो गौरैया को अंडे देने की जगह मिल जाएगी। अंडे देने का उनका समय अगस्त से नवंबर के बीच होता है। ऐसे में अगर हम उन्हें ‘जगह’ उपलब्ध करवा दें, तो वे हमारे पास वापस आ सकती हैं। उन्होंने बताया कि वे दिल्ली के हजारों घरों में अब तक घोंसले बना चुके हैं और इन घरों में गौरैयों को वापस आते हुए और अपने अंडों को पालते हुए देखा है। उनके आवास के लिए बॉक्स कुछ बड़े साइज में होनी चाहिए। वे बॉक्स में कुछ कॉटन और सूखी पत्तियां रख देते हैं। इस बॉक्स को जमीन से आठ से दस फीट की ऊंचाई पर रख देते हैं जहां ये सुरक्षित रह सकें। इन घोंसलों पर पानी नहीं पड़ना चाहिए। इनके आसपास थोड़ी दूर पर पीने के लिए पानी का एक पात्र भी रख देते हैं और कुछ दूर पर उनके खाने की चीजें जैसे उबले चावल, पोहा या रोटी के टुकड़े बिखेरने वाले अंदाज में रख दी जानी चाहिए। इससे गौरैयों को यह उनका प्राकृतिक आवास जैसा महसूस होता है और वे इनमें वापस आ जाती हैं।

    छोटे-छोटे दानोंवाले अनाजों की खेती न होने से गोरैया के आहार में कमी आयी है, जिससे गौरैया को खाने के लिए चीजें नहीं मिल रही हैं। गोरैया कीड़ों को भी खाना पसंद करती है, लेकिन शहरों में ढकी नालियों के चलते अब गोरैयों के लिए कीड़ों की उपलब्धता में भी भारी कमी आई है, जिससे उनका जीवन असहज हुआ है। इस पक्षी की सैकड़ों प्रजातियां दुनिया के हर कोने में पाई जाती हैं, लेकिन प्राकृतिक स्थलों के बदलाव के कारण अब इनकी संख्या में तेजी से कमी हो रही है । एक रपट के अनुसार, सिर्फ गोरैया ही नहीं, वरन दुनिया की हर 8वीं चिड़िया की प्रजाति पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। अमेरिकी संस्था ‘कार्नेल लैब’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1966 की संख्या के आधार पर गोरैया की संख्या में 84% तक की कमी आई है। ब्रिटेन में गोरैया की संख्या अब आधी से भी कम रह गई है। इस पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए ही प्रतिवर्ष 20 मार्च को विश्व गोरैया दिवस मनाया जाता है। भारत सरकार ने 2010 में गोरैया पर डाकटिकट जारी किया और दिल्ली सरकार की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने वर्ष 2012 में गौरैया को दिल्ली का राज्य पक्षी घोषित की। हमें युद्धस्तर पर इस मासूम पक्षी के संरक्षण के लिए अतुलनीय प्रयास करने ही पड़ेंगे, तभी हमारी पीढ़ी इसे देख पाएंगी!
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    संदर्भ :-
    ——–
    1. श्री प्रभुनाथ शुक्ल/आईचौक.इन/मार्च 2018
    2. सुश्री/श्री मेधाविनी मोहन/सत्याग्रह/मार्च 2018
    3. सुश्री/श्री संतोषी दास/पत्रिका/लखनऊ/प्रकाशनावधि-N.A.
    4. श्री अमित शर्मा/अमर उजाला/सितंबर 2019
    5. भारत कोश और विकिपीडिया से स्रोत-संदर्भित।
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    ● रचनाकार : डॉ. सदानंद पॉल

    ●रचनाकार परिचय :- तीन विषयों में एम.ए., नेट उत्तीर्ण, जे.आर.एफ. (Mo C), मानद डॉक्टरेट. ‘वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ लिए गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स,RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकार्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्स होल्डर सहित सर्वाधिक 300+ रिकॉर्ड्स हेतु नाम दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: ‘नेशनल अवार्ड’ प्राप्तकर्त्ता. पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 10,000 से अधिक रचनाएँ और पत्र प्रकाशित. सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में qualify. पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.

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    कोरोना महामारी ने हर किसी को परेशान किया है। तमाम लोग, खासकर महिलाएं अवसाद का शिकार होने लगी हैं। लेकिन महात्मा बुद्ध के संदेश हमें अवसाद पर जीत दिला सकते हैं। (more…)

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    सीता आत्मत्याग तथा शुद्धता का प्रतीक हैं, वह केवल गुणवान पत्नी ही नहीं बल्कि साहसी तथा बहादुर महिला हैं, वह एक निर्भीक स्त्री हैं जिन्होंने रावण का अपराजेय प्रतिरोध किया। (more…)

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    अपनी इम्युनिटी मजबूत कैसे करें

    इम्यूनिटी अर्थात प्रतिरोधक क्षमता हमारे शरीर का वह कवच होता है जो बैक्टीरिया, वायरस और अनेकों बीमारियों से हमारे शरीर की रक्षा करता है. इम्यूनिटी कमजोर होने से बीमारियां शरीर पर धावा बोल देती है. यदि आपके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता हमेशा मजबूत रहे तो आप ज्यादातर बीमारियों से बचे रह सकते हैं और एक स्वस्थ जीवन जी सकते हैं. (more…)

  • हम सबकी शर्म गाथा के रूप में है फ़िल्म ‘कसाई’

    हम सबकी शर्म गाथा के रूप में है फ़िल्म ‘कसाई’

    कुछ दिन पहले हमने गजेंद्र श्रोत्रिय की फिल्म देखी थी ‘कसाई’। इस तरह की फिल्में देखने या साहित्य पढ़ने के तुरंत बाद उस पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दे पाती। ‘कसाई’ शीर्षक से शिवमूर्ति जी की कहानी और बाद में उसपर आधारित नाटक ‘कसाईबाड़ा’ का याद आना स्वाभाविक है। कुछ नाम की समानता के कारण और कुछ इस रूप में कि इस नाटक के कलकत्ता और दिल्ली में हुए मंचनों में मैं शामिल थी।

    बहुत पहले महमूद साहब ने अपनी एक फिल्म में यह गीत गाया था ‘ना बीवी ना बच्चा, ना बाप बड़ा ना मैंया, द होल थिंग इज दैट कि भैया सबसे बड़ा रुपैया’। अब यह चीज रुपए- पैसे से उतर कर राजनीति पर आ गई है। किसी फिल्म का यह संवाद राजनीति के लिए बेहद मौजू है कि ‘राजनीति से भी बड़ा कोई बिजनेस हो तो बता दो। मैं वही कर लेता हूं।’ सचमुच! जिंदगी में हर पल हम तथाकथित राजनीति या पॉलिटिक्स से दो-चार होते रहते हैं। लेकिन एक्टिव पॉलिटिक्स के भीतर जो गुफाएं और खाइयाँ हैं, उनको गहरे से देखने, समझने के लिए इस तरह की फिल्में देखना बेहद जरूरी है, जिसमें ऊपर से राजनीति नहीं दिखती, ऊपर से मनुष्य, समाज, घर, परिवार, रिश्ते सब दिखते हैं। लेकिन भीतर ही भीतर राजनीति का करंट ऐसा बहता है कि जो सबको दागता और मारता चला जाता है।

    मैंने गजेंद्र श्रोत्रिय की इसके पहले वाली फिल्म ‘भोभर’ भी देखी है, जो हिंदी के चर्चित पत्रकार, लेखक और अब ‘जेड प्लस’, ‘सरकार2’, जैसी फिल्मों के और अभी ‘एक सुपरस्टार की मौत’ किताब से बेहद चर्चित रामकुमार सिंह की कहानी पर आधारित है। मुझे यह देख कर हमेशा हैरानी होती रही है कि हमारा समाज जिस भारतीय मिथक और संस्कृति पर लहालोट होता रहा है, उसी भारतीय संस्कृति के अच्छे तत्वों को कसाई के रूप में परिवर्तित करने से जरा भी नहीं चूकता- वह भी भारतीय संस्कृति के नाम पर।

    गजेंद्र श्रोत्रिय की पहली फिल्म ‘भोभर’ में जहां स्त्रियों के नाचने पर पाबंदी है, वहीं इनकी दूसरी फिल्म ‘कसाई’ में प्रेम पर। समाज के पहरुए हर स्त्री आवाज को दबाने और प्रेम के भाव को खत्म करने पर तुले रहते हैं। जाने कौन सी प्रतिष्ठा का पाग हमारे समाज के माथे पर टंगा रहता है और वह इतना कमजोर रहता है कि स्त्री स्वर के उठने और कोमल मन के प्रेम से विचलित हो जाता है, गिर जाता है, धूल धूसरित हो जाता है। और फिर शुरू होता है राजनीति का वह खेल, जिसमें कभी भी किसी का सामाजिक या आत्मिक भला नहीं होता है। स्वार्थ की सिद्धि हो जाती है। व्यक्ति विशेष के अपने हित पूरे हो जाते हैं, लेकिन वे सब मानव मूल्यों पर कलंक छोड़ के चले जाते हैं।

    गजेंद्र श्रोत्रिय की ताजा फिल्म ‘कसाई’ राजस्थान के ही एक और मशहूर लेखक चरण सिंह पथिक की इसी शीर्षक से।लिखी गई कहानी पर है। चरण सिंह पथिक की कहानी पर आप सब ने ‘पटाखा’ फिल्म देखी होगी- विशाल भारद्वाज के निर्देशन में। वह एक बड़े बजट की फिल्म थी। ‘कसाई’ उसकी तुलना में छोटे बजट की फिल्म है। फिल्म छोटे बजट की क्यों बनती है, यह कोई अज्ञात कारण नहीं है। वैसे यह जानने और समझने वाली बात है कि छोटी फिल्म से मकसद हमारा उसके सिर्फ कमर्शियल पक्ष से होता है, जिसके कारण फिल्म मेकर बड़े कलाकारों जिनके नाम और कमर्शियल बड़े होते हैं, उनको नहीं ले पाते हैं। लेकिन इससे फिल्म का कद छोटा नहीं हो जाता, क्योंकि बाकी जो कलाकार इन फिल्मों में आते हैं, वे अपना सर्वोत्तम देते हैं, जो फिल्म के कद को कई गुना ऊंचा कर जाती है- कहावत ‘जहां चाह वहां राह’ की तरह। अगर ‘मन में हो लगन तो कहीं ना कहीं से एक चिंगारी की मिल जाती है अगन’! और उस आग की एक चिंगारी धीरे-धीरे सुलगते हुए सभी तक फैलती है और एक महत्वपूर्ण कृति का निर्माण कर जाती है।

    ‘कसाई’ फिल्म एक प्रेम के विरोधी समाज की कहानी है, साथ ही पितृसत्तात्मक समाज में पिता की निरंकुशता की भी कहानी है, जिसके सामने अपनी संतान का कोई महत्व नहीं होता। संतानों की इच्छा, आकांक्षाओं की तो बात जाने ही दीजिए। पिता की पगड़ी में ही सबकुछ समाया रहता है। ‘कसाई’ में भी यही बात होती है। बेटे के प्रेम के विरोध में पिता अपने पुत्र की हत्या कर देता है। शायद हत्या करना उसका मकसद नहीं था। लेकिन पिटाई इतनी होती है कि वह कोमल बालक उस पिटाई को झेल नहीं पाता और दम तोड़ देता है।

    बस कहानी यहीं से शुरू होती है शायद इस दर्शन के तहत कि जो चला गया, वह तो चला गया। जो सामने है, उसे बचा लो। और पिता को बचाने की कवायद शुरू हो जाती है। लेकिन मां, जिसके लिए उसकी संतान उसके अपने रक्त और मज्जा का हिस्सा होती है, जिसके लिए अपने बाल- बच्चों की खुशी उसकी अपनी खुशियों से कई गुना अधिक होती है, इन बातों को सहज रूप से नहीं ले पाती। लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है! उसी तरह से आज भी स्त्रियों की आवाज कौन सुनता है! बहुत पहले मुग़ल-ए-आज़म फिल्म में अकबर जोधा बाई से कहते हैं- ‘औलाद चाहिए या सुहाग?’ लेकिन यहां ‘कसाई’ की यह मां सुहाग के बदले औलाद को चुनना पसंद करती है। और यहीं से उसके ऊपर दमन शुरू होता है और जो चरम तक पहुंचता है। किसी भी स्त्री को डायन बता देना, उसकी तार्किक बातों को तथाकथित धर्म की आड़ में छुपा कर उसे खलनायिका और दुष्ट आत्मा बता देना हमारे तथाकथित ढोंगी पंडित और बाबा लोग बहुत आसानी से करना जानते हैं और आसपास के लोगों को भरमाना भी उतनी ही कुशलता से जानते हैं। इस प्रवृत्ति को भी इस फिल्म में दिखाया गया है। हम समझते हैं, लेकिन हमारा समाज इसे समझने से इंकार कर देता है। गजब है यह समाज कि वह एक ओर स्त्री को दुर्गा, काली बनाकर पूजता है, लेकिन दूसरी ओर उसी स्त्री को डायन, रंडी, दासी और जाने क्या-क्या बना कर उसे पद दलित करता है, मारता है, उसकी हत्या करता है। और इन सब के पीछे स्वार्थ की राजनीति ऐसी छुपी हुई रहती है जिसके सामने आने से आपकी सांस जमी की जमी रह जाती है।

    ‘कसाई’ फिल्म प्रेम के विरोधी समाज की कहानी है, साथ ही पितृ सत्तात्मक समाज में पिता की निरंकुशता की भी कहानी कहती है, जिसके सामने अपनी संतान का कोई महत्व नहीं होता। संतानों की इच्छा, आकांक्षा की तो बात जाने ही दीजिए। आखिर कौन है यह समाज? हम ही तो हैं, जो दूसरी जगह की खबर पाकर अफसोस जाहिर करते हैं और अपने समाज में मौन धारण कर लेते हैं यह कहकर कि यह उनका मामला है। जब तक हम ‘उनका मामला’ करके खुद को बचाते रहेंगे, तब तक ‘कसाई’ जैसी घटनाएं होती रहेंगी और वे सब फिल्म और कला के दूसरे माध्यमों के साथ हमारे सामने हमारे मन मस्तिष्क पर चोट करने के लिए आते रहेंगे।

    चरण सिंह पथिक की कहानी पर बनी गजेंद्र श्रोत्रीय की यह फिल्म आप सांस रोककर और पलक झपकाए बिना देख सकते हैं। यह फ़िल्म हिंदी साहित्य में फैली हुई इस अवधारणा और दुराग्रह को भी तोड़ता है कि साहित्यिक रचनाओं पर फिल्में नहीं बन सकतीं। गजेंद्र श्रोत्रिय का ‘भोभर’ और ‘कसाई’ दोनों ही साहित्यिक कृतियों पर है। मां के रूप में मीता वशिष्ठ और पिता के रूप में रवि झाँकल, सरपंच के रूप में वीके शर्मा और विरोधी के रूप में अशोक बांठिया ने उल्लेखनीय कार्य किया है। मयूर मवरे, ऋचा मीणा ने प्रेमी युगल की भूमिका निभाई है। इनके काम को देखते हुए आप कह सकते हैं कि ये अभिनय नहीं कर रहे, बल्कि अपने चरित्र को जी रहे हैं। भाषा पूर्वी राजस्थानी है। फिल्म निर्माण में आई तमाम दिक्कतों को पार करते हुए ‘कसाई’ बेहद अच्छी और संवेदनशील फिल्म बनी है, जिसके लिए कहानीकार के रूप में चरण सिंह पथिक और फिल्म निर्माता के रूप में गजेंद्र श्रोत्रीय तथा उनकी पूरी टीम सचमुच बधाई के पात्र हैं। गजेंद्र श्रोत्रीय जी ने कहा है कि वे आगे भी इस तरह की फिल्में बनाते रहेंगे। हम आशा भरी नजरों से उनकी ओर देख सकते हैं कि हमें इस तरह के समाज के कड़वे यथार्थ से रूबरू कराती फिल्में इनके माध्यम से मिलती रहेंगी। अच्छे कलाकारों के साथ शायद फलक भी आगे बड़ा हो जाए, यह मेरी शुभकामना भी रहेगी।

    और अब आखिरी बात! हम दर्शक के रूप में कहते हैं अक्सर कि अच्छी फॉमें नहीं आतीं। अच्छी फिल्में आती हैं। हमारी ड्यूटी है कि हम इस तरह की सार्थक फिल्मों को देखें। फिल्मों को केवल मनोरंजन और टाइम पास का हिस्सा न मानें। शेमारू मी पर यह फ़िल्म है। फ़िल्म को और बेहतर तरीके से समझने के लिए आप #cenemahaul के दो एपिसोड्स भी देख सकते हैं, जिनमें एक पर फ़िल्म की समीक्षा है और दूसरे में गजेंद्र श्रोत्रिय से बातचीत। लिंक्स यहां हैं।

    -विभा रानी 

  • सेक्स की समस्या और समाधान

    सेक्स की समस्या और समाधान

    सेक्स की इतनी अधिक समस्याएं मनुष्य की मूढ़ता के कारण पैदा हुई हैं । बहुत ही सुगमता से इसमें प्रवेश कर इसका आनंद उठाया जा सकता है और इसके बाद इसे रूपांतरित कर उच्चतर आनंद की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है ।
          ओशो ने मनुष्य के जीवन में हर सात साल के बाद एक परिवर्तन पाया है । उसके शारीरिक-मानसिक परिवर्तन के अनुरूप ही शिक्षा-व्यवस्था होनी चाहिए । अगर ऐसा हो तो मनुष्य हर अवस्था के सुखों को भोगते हुए पचास वर्ष तक पहुंचते हुए बुद्धत्व को भी उपलब्ध हो सकता है ।
          मनुष्य का प्रथम सात वर्ष अत्यंत निर्दोष सरलता, सहजता पावनता और खेल का होता है । ऐसी शिक्षा होनी चाहिए जिससे उसके स्वाभाविक गुण निखरते चले जायं, जबकि होता इसके विपरीत ही है । अगले सात वर्षों तक उसके अंदर सेक्स के बीज अंकुरित होने लगते हैं और चौदहवें वर्ष में वे प्रत्यक्ष दिखायी पड़ने लगते हैं । 14 से लेकर 21 तक निरंतर विकसित होती हुई सेक्स- शक्ति उफान पर पहुंच जाती है । इसके बाद अगले सात साल तक वह और मजबूती को प्राप्त करती है । इसके अगले सात वर्ष स्थिर रहती है । उसके बाद ढलान शुरू होती है ।
          21 वें साल के आसपास जब सेक्स- शक्ति चरम पर होती है, उसी समय युवक-युवतियों के मिलन की व्यवस्था होनी चाहिए ।
           सेक्स जब मन को पागल बनाने लगता है तो आप यह नहीं कह सकते कि ध्यान करो, भजन-कीर्तन करो, सृजन में लग जाओ, पढ़ाई पर चित्त लगाओ । नहीं, यह गलत होगा । इस तरह की बातें अमनोवैज्ञानिक और मूढ़तापूर्ण हैं ।  यह ऐसी अवस्था है, जहाँ पहुंचने पर नारद जैसे ज्ञानी और भक्त भी कह उठते हैं —

              जप तप कछु न होइ तेहि काला ।
              हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ।।

    “इस समय जप-तप  कुछ नहीं हो सकता । हे विधाता ! किसी तरह वह कन्या मुझे मिले !”
          नारद जी की इस काम-पीड़ा को दर्शाने वाले मर्यादावादी कवि तुलसीदास जी हैं । कहा जाता है कि भगवान बुद्ध के पास ध्यान के लिए किसी भूखे को लाया गया तो भगवान ने यही कहा कि पहले इसे भरपेट खाना खिलाओ । यह कहावत तो प्रसिद्ध ही है कि ” भूखे भजन न होहिं गोपाला” ! वह भूख चाहे पेट की हो या सेक्स की, पहले उसकी पूर्ति होनी चाहिए । उसके बाद उसे रूपांतरित करने की बात सोची जानी चाहिए ।
          ऐसा नहीं होने का परिणाम है कि ऊपर-ऊपर हमारा समाज कुछ ओर है तथा भीतर कुछ और । हमारे समाज का भीतरी सच यह है — हस्तमैथुन, समलैंगिकता, बाल यौनाचार, परिवार के अंदर यौनाचार, यौन व्यापार, छेड़खानी, बलात्कार इत्यादि । सेक्स के उद्दाम वेग पर नैतिकता, मर्यादा, संस्कृति आदि के नाम पर रोक लगाने का उपर्युक्त परिणाम हमारे सामने । इसलिए सुधीजनों को शांतिपूर्वक विचार कर सेक्स को सहज सुलभ कराया जाना चाहिए ।
          इसके बाद सेक्स के ऊपर का सुख पाने का प्रयत्न होना चाहिए । इस दृष्टि से भी हमारा समाज बांझ है । सेक्स का अभाव बनाये रखने के कारण चित्त उसी पर जीवन पर्यंत लगा रहता है । उससे ऊबने का अवसर ही नहीं मिलता और बुढ़ापे तक लालसा बनी रहती है । लेकिन शक्ति क्षीण होने के कारण संताप पैदा होता है और बुढ़ापा डरावना हो जाता है, जबकि वह शांतिपूर्ण और आनंदपूर्ण हो सकता है ।
          यौन-सुख को उच्चतर सुख में रूपांतरित करने के तीन उपाय हैं — ध्यान, सृजन और प्रेम ।
          ध्यान एक चमत्कारी औषधि है । व्यक्ति-भेद के कारण इसके द्वारा जीवन में अनेक रूपांतरण घटित होते हैं । मैं अपने अनुभव की चर्चा यहाँ करूंगा ।
          मेरी सेक्स-समस्या का समाधान ओशो की शरण में जाने से हुआ । इसके पहले जितने लोगों तक मैं पहुंच सकता था, पहुंचा । किसी के पास समाधान नहीं था । न किसी विद्वान के पास, न किसी साहित्यकार के पास और न महर्षि मेंहीं के पास ।
         मैंने पहली बार ओशो की पुस्तक “ध्यानयोग : प्रथम और अंतिम मुक्ति” का पारायण किया और उसमें वर्णित सक्रिय ध्यान का प्रयोग किया । वह मेरे जीवन में क्रांतिकारी साबित हुआ । प्रथम चरण के कुछ ही मिनटों में पूरे शरीर में बिजली दौड़ गयी ! लगा कि इस करेंट से मेरी जान जा सकती है । और डर के मारे मैंने सांसों की तेज और गहरी गति को शिथिल कर दिया । इसके बाद आनंद की लहर उमड़ी । यह सब देख मैं चकित विस्मित था । इतनी छोटी-सी क्रिया और इतना बड़ा आनंद ! आश्चर्य तो यह कि यह यूनिवर्सिटी के किसी प्रोफेसर को नहीं मालूम ! निराला की कविता याद आयी —
     
              पास ही रे हीरे की खान
              खोजता फिरता कहाँ नादान ?

    मैं कहाँ भटक रहा था ! कबीर जैसा अनुभव हुआ —

         पीछे लागा जाइ था, लोक बेद के साथ
         आगैं थैं सद्गुरु मिल्या दीपक दिया हाथ

    कबीर कहते हैं कि अन्य लोगों की तरह मैं भी लोक के पीछे और शास्त्र के पीछे भटक रहा था। गुरु आगे से आकर मिले और कहा, लो यह दीपक । इसकी रोशनी में चलो ।
            तब से मैं सद्गुरु के द्वारा दिये गये ध्यान रूपी दीपक की रोशनी में ही चलता हूँ । अभी उसकी रोशनी क्षीण है । आगे तेज होगी । और भी सधे कदम उठेंगे ।
           आरंभ में देखा कि ध्यान करने से काम-भावना और प्रदीप्त हो उठी । कामरस और ज्यादा आनंददायी हो गया । स्त्रियों का सौंदर्य बढ़ गया । प्रकृति निखरी-निखरी लगने लगी ।
           धीरे-धीरे मालूम हुआ कि यह जीवन तो सांसों का खेल है ।सांस लेने के ढंग में परिवर्तन करने से जीवन में परिवर्तन आ जाता है । अशांत जीवन को सांस में परिवर्तन लाकर शांत किया जा सकता है । गरमी में शीतलता लायी जा सकती है और ठंडी में गरमी पैदा की जा सकती है । एक ढंग की सांस जीवन ऊर्जा को ऊपर उठाती है, जबकि दूसरे ढंग की सांस नीचै गिराती है । सांसों को नियंत्रित कर संभोग अवधि मनोवांछित समय तक बढ़ायी जा सकती है और पूर्ण तृप्ति पायी जा सकती है । यह तृप्ति उससे मुक्ति में सहायक बन जाती है ।
            आती-जाती सांसों का निरीक्षण हमें निर्विचार अवस्था में लेकर चला जाता है । वहीं समाधि फलित हो सकती है । कहते हैं, भगवान बुद्ध यही प्रक्रिया अपनाकर बुद्ध हो गये थे ! ध्यान से ही भौतिक ज्ञान प्राप्त होता है, ध्यान से ही आत्मिक ज्ञान प्राप्त होता है ।ध्यान को शिक्षा का अनिवार्य विषय बनाया जाना चाहिए ।
          ध्यान से हम शून्यानंद प्राप्त करते हैं । इसे पाने पर सेक्सानंद फीका हो जाता है । जिसे मानसरोवर का जल सुलभ हो वह गड्ढे का जल पीने किसलिए जायेगा ?
           सेक्स पर विजय पाने का दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग है सृजनशीलता । इसका अर्थ यह नहीं है कि कविता-कहानी लिखी और सृजनशील हो गये ! सृजनशीलता का अर्थ है कर्मलीनता । किसी भी काम में लीन होना सृजनशील होना । लीनता में हमारे अहं का विलयन हो जाता है । अहं के खोते ही आनंद उमड़ता है और कर्म में कुशलता आ जाती है । स्वभावतः हमारी ऊर्जा उसी ओर प्रवृत्त हो जाती है । जिस ऊर्जा से हम सेक्स की तरफ दौड़ते हैं, वह सृजन में लग जाती है और हमारी कामेच्छा विलीन होने लगती है ।
          सेक्स से ऊपर उठाने में प्रेम महती भूमिका अदा करता है ।  लेकिन उचित पात्र का प्रेम पाने की आशा में बैठा नहीं रहना चाहिए । जो भी मिले उसपर प्रेम लुटाने की क्षमता आ जाय तो जीवन में क्रांति आ जाती है । शर्त इतनी है कि प्रेम लुटाने में प्रतिदान की आशा नहीं रहनी चाहिए । ऐसा हो जाय तो प्रेम ब्याज सहित लौटता है । सौ गुना होकर लौटता है । प्रेमानंद बड़ा रस है । इसमें छके व्यक्ति को सेक्स की सुधि कहाँ रहती है ? वह अपने आप संतुलित हो जाता है ।
           इस तरह सेक्स की समस्याओं से बचने के लिए जो उपाय बताए गये हैं, प्रयोग कर देखना चाहिए कि इसमें सचाई है या नहीं ?


    आलेख : मटुकनाथ चौधरी

    ( सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष हिंदी, पटना विश्वविद्यालय )

     

  • सौराठ : मिथिला की एक सांस्कृतिक स्थल

    सौराठ : मिथिला की एक सांस्कृतिक स्थल

    सौराठ मिथिला (उत्तर बिहार) के मधुबनी जिले में स्थित एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक गाँव है। यह मिथिला के उन गांवों में से एक है, जो मिथिला के सांस्कृतिक इतिहास में अपने विशाल योगदान के लिए जाना जाता है। यह एक प्राचीन स्थान है, जहाँ खुदाई किये गए कुछ टीले पाए गए हैं, जो संभवतः इसके ऐतिहासिक महत्व की अपार जानकारी को अपने गर्भ में गोपन किया हुआ है। ब्रिटिश- भारत सरकार के पुरातत्व सर्वेक्षक अलेक्जेंडर कनिंघम ने उन्नीसवीं  सदी के आठवें दशक में इस गांव का सर्वेक्षण ओईनवार वंशीय  राजा शिव सिंह के एक शिलालेख की एक छाप या फोटोग्राफी लेने के लिए किया , जो 14 वी सदी से संबंधित है, प्रकृतः यह एक दान अभिलेख है जो रजा ने विद्यापति को प्रदान किया था। इस ताम्रपत्र अभिलेख की जानकारी उनके साथ दरभंगा के  बाबू लाल नामक एक स्थानीय पंडित ने साझा की थी।

    कनिंघम लिखते हैं कि पंडित बहुत बुद्धिमान और विद्वान था, और उन्हीं से  सौराठ के बारे में  महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त  हुई थी। 1880-81 ई. में अपनी पुरात्त्विक सर्वेक्षण यात्रा के बाद उन्होंने इस प्राचीन ग्राम की प्रशंसा में निम्नलिखित लिखा है: “इस ब्राह्मणवादी गाँव की एंटिक्विटी पर थोड़ा संदेह हो सकता है, और यद्यपि  मूल ताम्रपत्र अभिलेख से किसी तरह का  स्टाम्प या संस्करण हासिल न करने पर गंभीरता से निराश होना पड़ा, मुझे सौराठ के जाने का दुख नहीं था।”

    कनिंघम ने उल्लेख किया है कि यह शिलालेख नान्हू ठाकुर के कब्जे में था और उन्होंने लगभग 20 साल पहले सरकार को तांबे की प्लेट का शिलालेख प्रस्तुत किया था। अन्य गाँव के पंडितों के साथ ठाकुर ने अधिक जानकारी एकत्र करने में उनकी मदद की। उस समय कनिंघम सौराठ में दो डीह को देख सकते थे, जो लगभग एक मील पर अलग था। उस सतह पर कोई पुरातात्विक अवशेष नहीं खोज सका, इसलिए खुदाई की स्थल तय करना मुश्किल था। प्रख्यात सर्वेक्षक लिखते हैं कि ग्रामीण उन टीलों अथवा अवशेषों को प्राचीन नगर या बस्ती का अवशेष मानते हैं और वें उन लोगों के विचार से सहमत भी हैं। उन्होंने बड़े डीह में कुछ सतही खुदाई की जिसमें कुछ ईंटें और मिट्टी की कई गेंदें जिसके केंद्र में छिद्र मिलीं, संभवतः जिसका प्रयोग कताई (spinning weights) के लिए किया जाता था।

    इस गाँव का मूल संस्कृत नाम “सौराष्ट्र” है। लोक दर्शन अथवा परंपरा में इस नाम की उत्पत्ति दो प्रकारों से वर्णित है। पहली दंत कथा (anecdote) बताती है कि यह गाँव रामायण काल ​​से पहले का है और रामायण काल ​​में यह सौ छोटे देशों के समूह का मुख्यालय था। हालांकि यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि रामायण की कुछ घटनाएं सौराठ गाँव के आसपास के कुछ स्थानों से भी जुड़ी हुई हैं, जैसे सतालखा, मंगरौनी और कनैल। इस जनश्रुति के आधार पर स्थानीय इतिहासकार इज़हार अहमद ने ग्राम जगतपुर की पहचान की है जो सौराठ के पूर्व में मिथिलापुरी, विदेह साम्राज्य की राजधानी के रूप में स्थित है। यह वहीं स्थल है जहाँ पर राजा जनक की सभा में वाद-विवाद/शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य ने कई विद्वानों को हराया। इस क्षेत्र में टीलों की खुदाई से रामायण की कलाकृतियों तथा रामायणकालीन संस्कृति कि पुरातत्विक साक्ष्य को खोजने की संभावना है, जो भविष्य में मिथिला के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को एक नया दृष्टि प्रदान कर सकती हैं।

    सौराष्ट्र/ सौराठ के नामकरण से संबंधित दूसरे उपाख्यान के अनुसार जब 1025 ईस्वी में महमूद गजनी ने गुजरात राज्य अंतर्गत सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का लूट पाट किया और ज्योतिर्लिंग को तोड़ा तब सौराठ ग्राम के दो ब्राह्मण भाई भागीरतदत्त और गंगादत्त को भगवान् आशुतोष का स्वप्न आया और महादेव ने उन्हें ज्योतिर्लिंग को कहीं और सुरक्षित स्थान उपलब्ध कराने के लिए कहा और वे शिवलिंग को इस गांव में ले आए। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जब राजा हरिसिंहदेव ने चौदहवीं शताब्दी ई. (1309-24) के पहले चरण में मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों का पंजीकरण(genealogical accounts of the region maintained by hereditary record keepers) शुरू किया था, उस समय सौराठ नाम की कोई उत्पत्ति या मूल नाम की कोई शाखा नहीं थी। इससे पता चलता है की उस समय गांव में ब्राह्मणों और कायस्थों का निवास नहीं था।

    सौराठ मैथिल ब्राह्मणों के वैवाहिक मिलन केंद्र के लिए प्रसिद्ध रहा है, जिसे लोकप्रिय रूप में सौराठ सभा के रूप में जाना जाता है। सभा-गाछी विवाह मिथिला के सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है जो देश में कहीं भी समानांतर नहीं है। सांस्कृतिक गांव सौराठ में सभा की संस्था ने पूर्व -आधुनिक मिथिला में संवेग प्राप्त किया। राज्य एवं स्थानीय लोगों की देख रेख में प्रतिवर्ष सौराठ सभा का आयोजन इस गांव के बाहरी इलाके से गुजरने वालीं जयनगर- मधुबनी मार्ग के निकट स्थित सभागाछी में आयोजित किया जाता था। जिस स्थान पर लोग इकट्ठा होते थे वह स्थल तपती सूरज से सुरक्षा प्रदान करने वाले पीपल, बरगद, पाकुड़ और आम आदि के पेड़ों से घिरा हुआ था (अभी भी सभा स्थल पेड़ों से घिरा हुआ है), जिन्हें मैथिली में सभा गाछी कहा जाता है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में इस वैवाहिक सभा की प्रासंगिकता वैश्वीकरण की सांस्कृतिक अस्त्र पश्चिमीकरण के आगमन के साथ घटती गई और यह घटना व्यावहारिक उपयोग से बदलकर सामाजिक परंपरा की सांस्कृतिक वर्षगांठ के रूप में बदल गई है।

    Thousands of people present in the sabha gachhi
    सभा गाछी में हजारों लोगों की उपस्थिति |  स्रोत: इंडिया टुडे/गूगल

    यह सभा हिंदू कैलेंडर के ज्येष्ठ-आषाढ़ महीनों में आयोजित होने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम था। ऐसा कहा जाता है की लाखों लोग यहाँ आते थे। वर और वधु दोनों पक्ष घटक, पंजीकार, रिश्तेदार या परिचितों के साथ इस मिलन सभा में एकत्रित होते थे। हालांकि यह एक खुला वैवाहिक आयोजन था लेकिन जाति/वर्ण की स्थिति को बनाए रखा गया था। इस सभा को आयोजित करने का आदेश स्थानीय खंडवाल राजाओं  ने पंजिकारों को दिया था और उन्होंने इसका आयोजन और संचालन किया। सौराठ सभा में विभिन्न गाँवों के रजिस्ट्रार / पंजिकार अपनी-अपनी पंजी प्रबंधों ( के साथ बैठते थे। धीरे-धीरे कई प्रसिद्ध पंजिकार / वंशावली परिवारों ने गाँव में बसने का फैसला किया और उनमें से कुछ अभी भी वहाँ हैं। सौराठ सभा की उत्पत्ति से पहले इस तरह की बैठकें समौल और अक्सर पिलखवाड़ (दोनों मधुबनी जिले में स्थित ग्राम हैं) में होती थीं। किसी समय, इस तरह की बैठकें मिथिला के विभिन्न क्षेत्रों में चौदह स्थानों पर होती थी जिनमें सौराठ और समौल प्रमुखता से शामिल हैं।

    महामहोपाध्याय परमेश्वर झा के अनुसार, खंडवाला राजा राघव सिंह(1703- 1739 ई.) ने समौल गांव के पास सभा का आयोजन शुरू किया। सभा में पंजिकार दोनों पक्षों के मध्य विवाह ठीक हो जाने पर ताड़-पत्र पर लिखकर सिद्धांत पत्र देते थे। सिद्धांत पत्र विवाह के लिए स्वीकृति होती है जो यह जाँचने के बाद जारी किया जाता था (अभी भी कुछ लोग विवाह की इस पारंपरिक-साइंटिफिक पद्दति के द्वारा विवाह करते हैं) की सात पीढ़ियों से वर-वधू पक्ष के बीच कोई खून- सम्बन्ध(blood-relation) नहीं था। परमेश्वर झा लिखते हैं की समौल में सभा के लिए नियुक्त रजिस्ट्रार/पंजीकार पर किसी कारणवश ग्रामीणों द्वारा एक बार अत्याचार किया गया था और उन्होंने उस गाँव से पलायन करने का फैसला किया और अंततः सौराठ में बस गए, जहाँ पंजीकारों ने सभा / सभा का गंतव्य चुनने के लिए तरौनी (दरभंगा जिला ) के होराइ झा की सहायता प्राप्त की। राजा माधव सिंह ने इस सभा में शामिल होने के लिए बाहर से आने वाले लोगों की सुविधा के लिए एक सभागृह, मंदिर (माधवेश्वर शिवालय), मंदिर के चारों दिशा में विशाल धर्मशाला और मंदिर के इशान कोण में एक बड़ा पोखर का निर्माण शुरू किया। छत्र सिंह के समय में निर्माण कार्य 1832-33 ई. में पूरा हुआ। निर्माण कार्य से सम्बंधित उपरोक्त वृत्तांत माधवेश्वर मंदिर के कीर्तिशिला में उल्लेखित है। दुर्भाग्य से अभिलेख का दूसरा भाग अब स्पष्ट दिखाई नहीं देता है, इसको पुरातत्विक ढंग से साफ करके पढने की आवश्यकता है। कीर्तिशिलालेख  का प्रथम भाग :

    The inscription is inscribed on the wall outside the sanctum sanctorum of the Madhveshwara temple sabha gachi
    अभिलेख माधवेश्वर मंदिर के गर्भगृह के बाहर वाले दीवार पर अंकित है। फोटो साभार : लेखक स्वयं

    इस प्रकार सौराठ मिथिला की एक सांस्कृतिक-ऐतिहासिक स्थल है। सोमनाथ मंदिर सहित गाँव में कई मंदिर हैं जो एक आधुनिक वास्तुकला के साथ विराजमान हैं जहाँ लोग बड़ी आस्था के साथ पूजा करने जाते हैं। जैसा की पूर्व उल्लेखित है मिथिला के शासक द्वारा निर्मित सभागाछी में माधवेश्वर मंदिर नाम का एक बड़ा शिव मंदिर है। मंदिर का एक बड़ा हरा-भरा परिसर है, जिसके आंगन में श्रदालु-आश्रय के लिए एक इमारत है, जिसके निकट ही एक बड़ा पोखर है और पक्का घाट बना हुआ है। अब, इस स्थल का रखरखाव नहीं किया जाता है, कोई भी इसकी बर्बाद स्थिति को देखते हुए इस पोखर में स्नान नहीं करना चाहता है। कुछ पंजिकार अभी भी हैं, उनका घर भी सभा गाछी के परिसर में ही है। वें वहां नित्य अपने सम्पत्ति/विरासत पंजी-प्रबंध के साथ बैठते हैं और समुदाय के सदस्यों के लंबे वंशावली इतिहास को बनाए रखते हैं।

    sabha gachhi panting
    फोटो साभार : मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल


    साभार : सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ ट्रेडिशन एंड सिस्टम्स

    लेखक : रिपुंजय कुमार ठाकुर, इतिहास विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

    अनुवादक : मोहिनी किशोर, कला इतिहास विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय

    ( प्रस्तुत आलेख के मूल स्वरूप की भाषा अंग्रेजी है और यह शोध लेख लोकप्रिय पुस्तक ‘मड़बा’ में प्रकाशित है )


     Bibliography :

    Ahmad, Izhar, Madhubani Through the Ages: A Regional History of Madhubani, Delhi: Image Impressions, 2007.

    Choudhary, Radha Krishna, Select Inscriptions of Bihar, Saharsa: Shanti Devi, 1958.

    Cunningham, Alexander, Archaeological Survey of India Report, Vol. XVI, 1880-1881.

    Jayaswal, K. P. and  A. Banerji Shastri, Descriptive Catalogue of Manuscripts in Mithila, Patna: Bihar Research Society, 1927.

    Jha, Parmeshwar, Mithila-Tattva-Vimarsh, Patna: Maithili Akademi, 2013(edition).

    Journal of the Bihar and Orissa Research Society, Patna, Vol. III.

    Thakur, Upendra, History of Mithila, Darbhanga: Mithila Institute of Post-Graduate Studies and Research in Sanskrit Learning, 1988(edition).

    Thakur, Vijay Kumar, Mithila-Maithili : A Historical Analysis, Patna: Maithili Akademi, 2016(edition).

    Thakur, Manindra Nath, Savita, Ripunjay Kumar Thakur, Madba (मड़बा), New Delhi: Indica Infomedia, 2020.

  • रक्तांचल : कहाँ आ पाया वो स्वाद ?

    रक्तांचल : कहाँ आ पाया वो स्वाद ?

    ऐसा कहना बिल्कुल अतिश्योक्ति नहीं होगी कि और जो भी हो मगर ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ जैसी दमदार क्राईम-थ्रिलर फिल्मों से लोगों का टेस्ट जरूर बदल गया है। जिसका प्रमाण आपके सामने है कि मिर्जापुर, पाताल लोक जैसी वेब सीरीज इतनी लोकप्रिय हो रही है। अभी हाल में ही एम एक्स प्लेयर पर रिलीज हुई नई वेब सीरीज “रक्तांचल’ भी लगभग उसी जेनर की है।

    अस्सी की दशक में उत्तरप्रदेश के माफिया राज, राजनीतिक हालात को बखूबी दिखाया गया है, कहानी की शुरुआत एक सामान्य परिवार में जन्म लेने वाले लड़के (विजय सिंह) से होती है, जो पूर्वांचल के अन्य छात्रों की तरह आई. ए. एस बनने का सपना देख रहा होता है। मगर पिता की निर्मम हत्या उसके सामने ही वसीम खान के गुंडे कर देते हैं, जिससे विजय की जिंदगी में एक तूफान सा खड़ा हो जाता है, अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए सारा पढ़ाई-लिखाई छोड़कर वह जुर्म की दुनिया में कदम रख देता है, समय का ऐसा चक्र की देखते ही देखते वह इस दुनिया का बादशाह बन जाता है जो वसीम खान से दो-दो हाथ करने को उतावला रहता है। दोनों गैंग के बीच होने वाली मुठभेड़ से आये दिन पूर्वांचल में खून की होली खेली जाती है।

    पूरी सीरीज में ‘बाटला हाउस’ एवं ‘धोनी द अनटोल्ड स्टोरी के साथ और भी कई लोकप्रिय एवं दमदार फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाने वाले अभिनेता ‘क्रांति प्रकाश झा’ (विजय सिंह) यहाँ भी अपने अभिनय का छाप छोड़ जाते है, अपनी डायलॉग डिलीवरी देते हुए अनायास रणदीप हुड्डा की याद दिला देते हैं। विलेन के रुप में निकितन धीर (वसीम खान) को थोड़ी और मेहनत करने की जरूरत थी क्योंकि खास कर विलेन में जब कोई सपाट रूप से अपनी बातों को रखता है तो बेमजा हो जाता है, उसमें भी जब आप पूर्वांचल से हो तो वह बात यहाँ आनी चाहिए थी। अगर इन दोनों के अलावा अन्य की बात की जाए तो विक्रम कोचर (सनकी) ने दिल जीता है। भूपेश सिंह (इरशाद) ने अपने काम को अच्छा अंजाम दिया है, जितना करवाया गया है, उन्होंने उसे बखूबी निभाया है। साहेब सिंह के  रूप में मजे हुए कलाकार दयाशंकर पांडे से और आउटपुट लिया जा सकता था। पुजारी सिंह (रवि खान विलकर) एवं प्रमोद पाठक (त्रिपुरारी) ने कमोवेश अच्छा काम किया है। रोंजिनी चक्रवर्ती (सीमा) और कृष्णा बिष्ट (कट्टा) की एंट्री भले ही बाद में हुई हो लेकिन इन दोनों ने लगभग एक सपाट होती हुई कहानी में जान डालने का काम किया है।

    रक्तांचल का निर्देशन रीतम श्रीवास्तव ने किया है जबकि इसकी पटकथा को संजीव, सर्वेश, शशांक ने संयुक्त रूप से लिखा है। वेबसीरीज की कहानी में अन्य कई फिल्मों का छाप भी थोड़ा खटकता है जो कहीं ना कहीं इसे प्रभावहीन बना देती है। अगर इसके अन्य पहलुओं पर गौर करेंगे तो साफ पता चल जाएगा कि वही घिसा-पीटा साम्प्रदायिक दंगों को दिखाकर आप कौतुहल बना कर रखना चाहते हैं, मगर क्या अब इस आधुनिक दौड़ में दर्शक को बाँधे रखना क्या इतना आसान है ? बिल्कुल नहीं, क्योंकि अभी संसाधन की कमी नहीं है और तो और उनके पास स्कीप करने का ऑप्शन ओपन रहता है। ऐसी स्थिति में पूरी तरह से जब तक आप प्रभावित नहीं कर पायेंगे, उनको चैनल बदलने में बिल्कुल समय नहीं लगता है। कुछेक जगह को अगर छोड़ दिया जाय तो ऐसा लग रहा है मानो कुछ भी काम चलाऊ चीज परोस दिया गया हो। अरे भई, आपको सोचना चाहिए था जब लोगों के पास इतना समय है, कोई बंधन नहीं है तब वह बिरयानी छोड़कर आपके खिचड़ी को नहीं हजम कर पायेगा।

    अगर अगली सीरीज बनानी ही थी तो और बहुत काम शेष था, जैसे विजय सिंह की प्रेम कहानी, क्लाइमेक्स आदि पर बेहतर काम किया जा सकता था। आइटम सॉन्ग तो बस ऐसा लगा जैसे चिपका दिया गया हो। अगर कुछ तथ्यों पर ध्यान दिया जाए तो अगली सीरीज बेहतर बन सकती है। कहने का तात्पर्य है कि पूर्वांचल को पूरी तरह ध्यान में रखा जाय क्योंकि अभी भी यहाँ सरसो वाली बैगन की सब्जी पसन्द की जाती है, टमाटर का क्या भरोसा? कुल मिलाकर अगर क्राइम और थ्रिलर की बात करें तो कुछ हद तक यह एक सफल वेबसीरीज है, एक बार देखी जा सकती है। रक्तांचल की पूरी टीम को मेरी शुभकामनाएं।


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    लेखक : पंकज कुमार

    संप्रति : टाटा स्टील, अंगुल, उड़िसा में विद्युत अभियंता के रूप में कार्यरत।

    पता : ग्राम-पोस्ट– मधेपुर, जिला– मधुबनी, पिन कोड : 847408 ( बिहार), ईमेल : kumar.pankaj525@gmail.com , मोबाईल : 9658135262

    शिक्षा : विद्युत अभियंत्रण में स्नातक। वर्तमान में मैथिली विषय अन्तर्गत परास्नातक में अध्ययनरत।