नारीवाद का प्रतीक हैं जगत जननी जानकी


सीता आत्मत्याग तथा शुद्धता का प्रतीक हैं, वह केवल गुणवान पत्नी ही नहीं बल्कि साहसी तथा बहादुर महिला हैं, वह एक निर्भीक स्त्री हैं जिन्होंने रावण का अपराजेय प्रतिरोध किया।

भारतीय संस्कृति का स्वाभिमान सीता, नारी की मनोवृत्ति की परिचायक तथा स्त्री शक्ति का प्रतीक हैं। असाधारण व्यक्तित्व की जगत जननी सीता, महाशक्ति हैं, विपरीत परिस्थितियों में सतीत्व की रक्षा करने का अदम्य साहस रखती हैं लेकिन सभी गुणों से युक्त होकर भी साधारण नारी की तरह जीवन व्यतीत कर सामान्य स्त्री के लिए आदर्श हैं।

हम जब भी आदर्श स्त्री का नाम लेते हैं तो सदैव सीता को आत्म-बलिदान तथा त्याग का प्रतीक मानते हैं। लेकिन वह एक गुणवान नारी होने के साथ एक निर्भीक तथा बहादुर स्त्री हैं जिन्होंने रावण का विरोध किया। वह एक स्वतंत्र चेतना हैं। उन्होंने अपनी जीवन में वनवास जाने का, लक्ष्मण रेखा लांघने का, हनुमान के साथ वापसी से इंकार करने का, अकेली मां के रूप वन में बच्चों के साथ रहने का तथा अंत में धरती के अंदर समाहित होने का साहिसक निर्णय लेकर सशक्त नारी का परिचय दिया जो नारीवाद का प्रतीक है।

धरती पुत्री सीता सभी विद्याओं में निपुण, प्रकृति को समझने वाली तथा उपचार की रहस्यमयी शक्ति से सम्पन्न थीं। लेकिन उसके बावजूद भी उन्होंने जीवन में विभिन्न प्रकार की कठिन परिस्थितियों का सामना किया और कभी पीछे नहीं रहीं। मां ने मिथिला से विदाई के समय सहनशक्ति की जो सीख दी थी उसका जीवन भर पालन करते हुए उन्होंने संघर्ष किया तथा अपने कर्तव्य का पालन करती रहीं।

भारत में शक्ति के अनेक रूप वर्णित हैं। उनमें सीता का स्वरूप थोड़ा अलग है। सीता वास्तव में धरती पुत्री थीं। राजा जनक को हल चलाते समय खेत में मिलीं और उन्होंने पुत्री की तरह उनका पालन किया। उसके बाद युवावस्था में श्रीराम के साथ उनका विवाह हुआ। असाधारण व्यक्तित्व वाली जानकी चौदह वर्ष के वनवास में जंगल-जंगल राम के साथ भटकती रहीं। वन में रावण द्वारा अपहरण के बाद अग्नि परीक्षा में समर्पित नारी, अयोध्या वापसी के बाद लोकापवाद से बचने के लिए राम द्वारा उनका परित्याग, दोनों पुत्रों लव-कुश को वीरता का संस्कार दे अपना दायित्व निर्वहन करना तथा राम के पश्चाताप को ठुकराकर धरती में समाहित होना उनके व्यक्तित्व के विविध पहलुओं को उजागर करता है।

सीता आदि हैं, अंत नहीं। एक बीज धरती की कोख में डाला जाता है तो उससे असंख्य बीज पैदा होते हैं और प्रकृति का यह क्रम चलता रहता है। शक्ति इसीलिए स्त्री के रूप में अथवा प्रकृति रूप में वर्णित है। सृष्टि में उसी आदि शक्ति के अनंत कण बिखरे हैं।

सीता मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की अर्धांगिनी के साथ उनकी अनुगामिनी बनीं लेकिन वह सदैव राम की शक्ति रहीं। वास्तव में सीता व राम अभिन्न तत्व हैं। दोनों एक ही दिव्य ब्रह्मज्योति सीता-राम के रूप में अभिव्यक्त हैं अत: उनका विरह संभव नहीं। ब्रह्म से शक्ति कभी अलग नहीं हो सकती। सीता जो स्वयं को अपने पति राम से उसी प्रकार अभिन्न मानती हैं जैसे प्रभा सूर्य से अलग नहीं होती।

सीता ओजस्विनी नारी का प्रतीक हैं। वह श्रीराम के प्रति अपार प्रेम करने वाली हैं। राम के प्रेम में लीन रहने वाली सीता निर्भय भी है और शत्रु के सम्मुख सच कहने का साहस भी रखती है, वह भी ऐसे समय में जब वह रावण के सम्मुख अकेली और निहत्थी है। शक्ति का अवतार होते हुए भी सीता के हाथों में उस समय कोई हथियार नहीं था, फिर भी वे रावण को खल, शठ और निर्लज्ज जैसे संबोधनों से सम्बोधित करती हैं। जगत जननी की यह निर्भीकता अनंतकाल तक स्मरणीय रहेगी।

सीता दयावान हैं तथा नारी शक्ति का सम्मान करती हैं। धरती के प्रति नर-नारी हेतु वह ममतामयी मां हैं। क्षमा पृथ्वी का गुण है और पृथ्वी की पुत्री होने के कारण सीता क्षमा की मूर्ति हैं। हनुमान रावण-वध एवं श्रीराम की विजय का शुभ समाचार देने सीता के पास आए और उनसे दुष्ट राक्षसियों के संहार की आज्ञा मांगी। तब सीता ने हनुमान को रोकते हुए कहा कि प्रभु श्रीराम के सेवक द्वारा स्त्रियों पर प्रहार करना नीति-संगत नहीं है, चाहे वे राक्षसियां अपराधिनी ही क्यों न हों।

सीता परम साध्वी एवं पतिपरायणा हैं, उनमें अपने निर्णय लेने की स्वतंत्र चेतना रही है। उन्होंने अपनी इच्छावश पति के सान्निध्य व सेवा के उद्देश्य से राज-भवन के विलासितापूर्ण जीवन को त्यागकर वनवास स्वीकार किया। उन्होंने अयोध्या में रहना और आरामदायक जीवन का परित्याग किया । इसके अलावा लंका में जब भयग्रस्त एवं कृशकाय सीता को संकट से मुक्त करने के लिए हनुमानजी ने उन्हें कंधे पर बैठाकर जी श्रीरामचंद्र के पास पहुंचा देने की आज्ञा मांगी, तब सीता ने रावण की जानकारी के बिना उन्हें उठाकर ले जाने को चोरी व बदले की कार्यवाही बताकर अनुचित ठहराया। वह लंका से हनुमान के साथ नहीं लौटीं बल्कि उन्होंने राम के लौटने का इंतजार किया। इस प्रतीक्षा में वह निर्भीक तथा निडर बन अडिग रहीं।

सीता मौन गुडि़या की तरह नहीं रहीं बल्कि वह निर्भीक तथा मुखर व्यक्तित्व की प्रतीक मानी जाती हैं। रावण द्वारा अपहरण करके ले आने पर अशोक वाटिका में अपहरणकर्ता की शक्ति की बिना परवाह किए उसे लताड़ती हैं- ‘खल सुधि नहीं रघुबीर बान की।’ साथ ही वही सीता कहती हैं- ‘सठ सूने हरि आनेहि मोही’ अर्थात रे दुष्ट, तूने सूनसान आश्रम से मेरा अपहरण कर लिया। पहले वे रावण को खल कहती हैं और बाद में शठ। रावण को इतने कठोर विशेषणों से सीता निर्भीकतापूर्वक डांटती हैं। यह उनकी चारित्रिक दृढ़ता है। वे डरती नहीं है और न ही रावण के सम्मुख गिड़गिड़ाती या रोती हैं। अन्य स्त्रियों की तरह रावण के आने पर वह लंबा घूंघट कर चेहरा नहीं छिपातीं बल्कि एक तृण को ओट बनाती हैं। यह तेजोमय भारतीय स्त्री का चेहरा है। जानकी में मर्यादा का अतिक्रमण करते ही रावण को जलाकर भस्म कर देने की शक्ति निहित है।

अंत में सीता धरती में समाहित होती हैं, यह उनका निर्णय है। सीता धरती-पुत्री हैं। सूर्य से धरती का संबंध ऊर्जा का बंधन है। इसीलिए सीता अग्नि परीक्षा में जलकर भस्म नहीं होती। ऊर्जा से ऊर्जा का मिलन होता है और वह एक अदम्य ऊर्जा के रूप में निखरकर विश्व के सामने आती हैं। सीता धरती में इसीलिए समाती हैं ताकि अनन्य ऊर्जा का स्रोत बन सके।


आलेख : डॉ. प्रज्ञा पाण्डेय
पोस्ट डॉक्टोरल फेलो (दिल्ली विश्वविद्यालय)
( हिन्दी दैनिक विराट वैभव में 20 मई 2021 को प्रकाशित)

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