अतीत को वर्तमान से जोड़ती है ये घुमौर होली


दुनिया भर में होली के कई रूप प्रसिद्ध हैं , चाहे ब्रज की प्रियतम को पीट कर मनाई जाने वाली लट्ठमार होली, वृन्दावन में मनाई जाने वाली फूलों की होली अथवा बनारस में लाशों के भभूत से मनाई जाने वाली मसानी होली हो| पर प्रसिद्धि की इस दौर में अगर कोई होली छूट जाती है तो वह है बनगाँव की घुमोर होली| जी हाँ| बिहार के सहरसा जिले का एक गाँव, जिसका शिक्षा और समृद्धि से गहरा नाता है| इस गाँव की कई विशेषताओं में से एक है, इसकी घुमोर होली| इस होली का स्वरूप भी ठीक फागुन की ही तरह मदमस्त और अलबेला है|

इन्टरनेट की इस दुनिया में जहाँ चहुँओर shorts और reels का छद्म आवरण है, हर जगह ही जबरन संक्रमण व्याप्त है वहीं बनगाँव की यह होली अभी भी अपनी मौलिकता से डिगे बिना मोहब्बतें के अमिताभ बच्चन की तरह ही परंपरा, प्रतिष्ठा और अनुशासन का ध्वज प्रशस्त किए हुए है| यहाँ आज भी होली अपने पौराणिक और यथार्थवादी स्वरूप में मनाई जाती है| मान्यता है कि 18 वीं सदी में मिथिला के ज्योति पुंज संत शिरोमणि लक्ष्मीनाथ गोसाईं द्वारा इस पर्व की शुरुआत की गयी थी|

घुमौर की शुरुआत कुलदेवता की पूजा एवं बड़े-बुजुर्गों से होती है| तत्पश्चात होली के हलचलियों की टोली निकलती है| अर्धनग्न अवस्था, शरीर पर तेल की चमक, चेहरे पर बसंती मुस्कान और प्रेम की प्यालियाँ लेकर एक-दूसरे के द्वार पहुँचते हैं| इस तरह जो अपनापन और एकता की रंगीन फुहारें उड़ती हैं| क्या हिन्दू- क्या मुस्लिम| सब प्रमत्त हो जाते हैं| समाज में व्याप्त इस अपनापन के संवदियों की टोली का स्वागत रंग, पानी, अबीर और मिठाई के साथ किया जाता है| नवतुरिया, प्रौढ़, बुजुर्ग सभी उस दिन एक समान जवान रहते हैं|

आजकल जहाँ समाज आर्थिक रूप से दो ध्रुवों में विभक्त प्रतीत होता है वहीं अर्धनग्न अवधूतों की टोली दोनों छोर की खाई को बंधुता और समाजिकता से भर देती है| इस तरह समूचा गाँव प्रेम की अविरल धार से सिंचित रहता है| एक विशाल जनसैलाब का सबसे विशेष स्वरूप उस समय परिलक्षित होता है, जब लोग एक दूसरे को कंधे पर उठाकर बलजोरी ‘होरी’ को प्रस्थापित करते हैं| इस तरह वे उस अंतिम सत्य का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं जिसके तहत् लोग अंतिम उस इन्सान को कन्धा देने से हिचकते नहीं हैं जिसको गिराने का प्रयास उन्होंने जीवन भर किया था| बुजुर्ग, अपने नौनिहालों को कंधे पर उठाकर उसे सामाजिक सद्भाव का पाठ पढ़ाते हैं साथ ही बताते है कि कोई इंसान बड़ा या छोटा नहीं होता अपितु उसमें मनुष्यता होनी चाहिए| वहीं दूसरी ओर नवयुवक, अपने बुजुर्गों को कंधे पर उठाकर उन्हें यह आभास करवाते हैं कि हम अपने कर्तव्यों का निर्वहन उसी शिक्षा के अनुरूप करते हैं, जो उन्हें विरासत में मिली है| कंधे पर सवार बलजोरी ‘होरी’ का यह समागम अपने आप में होली का एक अनूठा स्वरूप प्रदर्शित करता है| जनसैलाब के साथ जब धूल और मिट्टी भी साज एवं ताल के संग जोगीरा की तान छेड़ती है तो समूचा माहौल होलीमय हो जाता है| सुहागे के रूप में घुमोर होली के सूत्रधार लक्ष्मीनाथ गोसाईं द्वारा रचित फगुआ गीत भी लोगों के स्वभाव को भक्तिमय स्वरूप से सराबोर करती है|

इस होली में दो उद्घोष भी खूब प्रचलित हैं ”जे जीबे से खेले फाग” एवं “होरी है”| सही ही तो कहा गया है न कि ऐसी जीवंत होली खेलकर ही तो आप अपने जीवित होने को प्रासंगिक कर रहे हैं|

हाल के वर्षों में कुछ विकृति भी देखने को मिलती है| आजकल लोग सोशल मीडिया पर इस अपने आप को तथाकथित बुद्धिजीवी मानकर इस होरी-बलजोरी में सम्मिलित नहीं होने का प्रचार करते हैं | उनका भ्रम है कि इस तरह अपने आप को वे अभिजात्य वर्ग में शामिल कर लेंगे| खैर अब तो सोई हुई राज्य सरकार भी जागी है और पिछले वर्ष ही इसे राजकीय महोत्सव का दर्जा दिया है| पर इतना ही नहीं सरकार को चाहिए इस दुर्लभ होली की अनूठी परम्पराओं को जीवित रखने का प्रयास करें एवं प्रचारित करें|

हाँ एक और बात अगर आप बनगाँव के न हों तो होली के दिन दोपहर डेढ़ बजे तक उधर से ना गुजरें नहीं तो वह होली आप जीवनपर्यंत नहीं भूल पायेंगे| हाँ मगर एक बात और है कि अगर आप बनगाँव घुस ही चुके हैं तो बिना घबराये, बिना डरे अपने आप को गोसाईं जी के हवाले कर दीजिए| होली के पश्चात् का आतिथ्य भी आप कभी नहीं बिसर पायेंगे|

आलेख – आशीष कुमार

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