सीता आत्मत्याग तथा शुद्धता का प्रतीक हैं, वह केवल गुणवान पत्नी ही नहीं बल्कि साहसी तथा बहादुर महिला हैं, वह एक निर्भीक स्त्री हैं जिन्होंने रावण का अपराजेय प्रतिरोध किया। (more…)
Category: अध्यात्म
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क्या राम सामाजिक भेदभाव के पक्षधर थे ?
वर्तमान मान्यताओं के अनुसार राम के होने का कालखण्ड आज से करीबन नौ-दस हजार वर्ष पूर्व पर जाकर ठहरता है. यद्यपि भारतीय पौराणिक मान्यताओं से देखेंगे तो यह कालावधि और भी बहुत पीछे जाएगी तथापि हम यदि दस हजार वर्ष को ही आधार मानें तो भी एक बड़ा कालखण्ड मर्यादा पुरुषोत्तम को इस धरती पर आए बीत चुका है. परन्तु, यह राम का हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों पर प्रभाव ही है कि लोग आज भी बात-बात में उनके सामाजिक दृष्टिकोण को उदाहरण की तरह प्रस्तुत करते हैं. आधुनिक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था जो स्वयं को अत्यंत प्रगतिशील मानती है, उसकी कसौटियों पर भी दस हजार वर्ष पूर्व के राम न केवल प्रासंगिक, अपितु पुरुषोत्तम भी सिद्ध होते हैं. काल का ये बहाव राम की तेजोमय छवि को टस से मस भी नहीं कर सका है.
परन्तु, इस विशाल समयांतराल में एक दृष्टि यह भी विकसित हुई है कि राम सामाजिक भेदभाव के पक्षधर थे. इस मत के पक्ष में राम के जीवन से सम्बंधित ‘शम्बूक वध’ नामक प्रसंग को मुख्य आधार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. परन्तु हम केवल शम्बूक वध की बात करने की बजाय राम की पूरी जीवन-यात्रा को शुरू से देखते हुए उनके सामाजिक दृष्टिकोण को परखने का प्रयत्न करेंगे और इसी क्रम में शम्बूक वध पर भी बात की जाएगी.
राम की वास्तविक जीवन-यात्रा का आरम्भ तब होता है, जब वे मुनि विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा के लिए उनके साथ जाते हैं. यज्ञ-रक्षा के उपरान्त मिथिला गमन के मार्ग में शापग्रस्त अहल्या जिनका पति सहित पूरे समाज द्वारा अनुचित बहिष्कार कर दिया गया है, का आतिथ्य ग्रहण कर इस बहिष्कृत अवस्था से उनका उद्धार करते हैं. यह भ्रम है कि राम ने चरणों से छूकर शिला अहल्या का उद्धार किया था. वाल्मीकि की कथा में अहल्या के शिला होने की बात नहीं है और यहाँ राम उन्हें चरण से भी नहीं छूते, अपितु उनके चरण छूकर उन्हें उनका यथोचित सम्मान देते हैं. राम का यह कर्म समाज को चुनौती है कि तुमने जिसे त्यागा मैं उसे अपना रहा हूँ, जिसमें सामर्थ्य हो वो रोक ले.
अयोध्याकाण्ड में वनगमन के पश्चात मार्ग में राम अपने पुराने सखा निषादराज गुह से मिलना नहीं भूलते. यहाँ उनके सामाजिक दृष्टिकोण के एक नवीन पक्ष का उदघाटन होता है. आर्यावर्त के चक्रवर्ती सम्राट के सामर्थ्यशाली पुत्र की एक आदिवासी भील से मित्रता न केवल हमें चकित करती है बल्कि उसके प्रति स्नेह और सौहार्द्र की भावना को देख हम मुग्ध भी हो जाते हैं. यहाँ कोई सामाजिक भेदभाव नहीं रह जाता.
अयोध्याकाण्ड बीतता है, अरण्यकाण्ड आता है और सीता हरण के पश्चात् राम उनकी खोज में भटकने लगते हैं. इसी खोज में शबरी के आश्रम में पहुँचते हैं. यहाँ दो बाते द्रष्टव्य हैं. पहली कि भील जाति की शबरी मतंग मुनि की शिष्या रही है और राम के पहुँचने पर योगिनी के रूप में है. यानी कि उस समय ऋषि कोई जातिगत भेदभाव नहीं रखते थे. दूसरी बात कि राम शबरी का आतिथ्य पूरे आदर से ग्रहण करते हैं और उसके प्रति पूरे प्रसंग में आदर-भाव के साथ ही दृष्टिगत होते हैं. यूँ तो अहल्या के प्रति राम की सम्मान-भावना उनके स्त्री विषयक दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है, परन्तु शबरी के साथ विशेष बात यह है कि वो स्त्री होने के साथ-साथ कथित निम्न जाति की भी है. अतः उसके प्रति राम का उदार और सम्मानित व्यवहार उनकी जाति-वर्ग के भेदभाव से मुक्त खुली दृष्टि की सूचना हमें देता है.
किष्किन्धाकाण्ड में तो राम वानर-रीछ जैसी उन जातियों से मित्रता स्थापित करते हैं, जिनसे तत्कालीन दौर में किसी अन्य भारतीय शासक की मित्रता का कोई प्रसंग नहीं है. संभवतः तत्कालीन शासकों या जनसामान्य के मन में इन जातियों की जैविक बनावट में कुछ भिन्नता के कारण इनके प्रति निकृष्ट भावना रही होगी. ठीक वैसे ही जैसे आज पूर्वोत्तर के लोगों के प्रति बहुतायत भारतीयों में दिख जाती है. लेकिन इनसे मित्रता स्थापित कर राम न केवल तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं को ध्वस्त कर संबंधों की एक नवीन धारा का सूत्रपात करते हैं, अपितु आजीवन उसका निर्वाह भी करते हैं. यहाँ राम की सामाजिक दृष्टि का अत्यंत विस्तृत रूप देखने को मिलता है.
और अंत में, उत्तरकाण्ड आता है, जहां राजा बन चुके राम शम्बूक नामक एक शूद्र वर्ण के व्यक्ति का तपस्या करने के कारण वध करते हैं. इस विषय में पहली बात तो ये कि वाल्मीकि रामायण के जिस उत्तरकाण्ड में यह प्रसंग आता है, वो पूरा काण्ड ही क्षेपक माना जाता है जिसका स्पष्ट प्रमाण वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के चौथे सर्ग के दूसरे श्लोक में मिल जाता है.
श्लोक है –
चतुर्विंशत्सहस्त्राणि श्लोकानामुक्तवानृषिः
तथा सर्गशतान् पञ्च षट् काण्डानि तथोत्तरम्
यानी कि रामायण में चौबीस हजार श्लोक और छः काण्ड हैं. इससे पूर्व के सर्ग में भी महर्षि वाल्मीकि, रामायण की कथा का जो संक्षिप्त ‘नैरेशन’ करते हैं, वो केवल राम के राज्याभिषेक तक ही है. इन तथ्यों से स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में उत्तरकाण्ड बाद के दिनों में किसी खुराफाती मस्तिष्क ने जोड़ने का कार्य किया अतः इसमें वर्णित किसी भी प्रसंग की कोई प्रामाणिकता ही नहीं है. वैसे भी राम की जो उपर्युक्त जीवन-यात्रा हमने वर्णित की है, उसमें उनका जो सामाजिक दृष्टिकोण रहा है, उसे देखते हुए क्या एक प्रतिशत भी ऐसा संभव लगता है कि वे किसी कथित निम्न जाति के व्यक्ति का तप करने के लिए वध करते. परन्तु, यह काण्ड ही जब संदिग्ध है, तो इसके किसी भी प्रसंग पर बात करना व्यर्थ है.
राम अपने काल में भी पुरुषोत्तम थे, आज भी हैं और मेरा विश्वास है कि जब तक संसार में मानवीय मूल्य जीवित हैं, उनका पुरुषोत्तम रूप हमारे लिए अनुकरणीय बनकर उपस्थित रहेगा.
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अग्निपरीक्षा का सत्य क्या है ?
अग्निपरीक्षा रामायण के उन प्रसंगों में से एक है, जहां कथा-नायक राम के चरित्र पर भी प्रश्न खड़े हो जाते हैं. अग्निपरीक्षा को लेकर मेरी समझ में लोगों के बीच तीन प्रकार के मत हैं. पहला मत है कि अग्निपरीक्षा का उद्देश्य पूर्व में अग्निदेव को सौंपी गयी सीता को वापस लेना मात्र था. इस मत का आधार तुलसी कृत श्रीरामचरितमानस है.
दूसरा मत है कि अग्निपरीक्षा राम के लोकोपवाद के भय से उपजा हुआ कृत्य था. इस मत का आधार वाल्मीकि कृत रामायण है. इस मत के आधार पर राम की आलोचना होती है और उन्हें स्त्री-विरोधी तक ठहरा दिया जाता है. तीसरा मत है कि अग्निपरीक्षा जैसा कुछ हुआ ही नहीं था या हुआ भी था तो उसका असली रूप व अर्थ हम लोग समझ नहीं पाते. इस मत का आधार लोगों की अपनी मान्यताएं और उन मान्यताओं द्वारा निरुपित कुछ तर्क हैं.
बात पहले मत की करें तो तुलसी बाबा भक्त कवि थे, अतः उन्होंने इस प्रसंग में वाल्मीकि के रामायण की बजाय भुशुण्डी रामायण के अनुकरण को उचित समझा. इस रामायण में राम सीता की अग्निपरीक्षा को नरलीला के रूप में परिभाषित करते हैं, तुलसी बाबा ने उसे थोड़ा और नाटकीय रूप दे दिया.
बाबा की कला कहें या उनपर सरस्वती का आशीर्वाद कि उनका लिखा ही आज मूल प्रसंग से अधिक लोक आस्था के लिए प्रिय बन चुका है. अधिक क्या, इसपर यही कह सकते हैं कि बाबा पाठकों की नब्ज बाखूबी समझते थे. हालांकि तुलसी बाबा रचित ये मत राम के प्रति लोक आस्था को सुरक्षित अवश्य करता है, परन्तु इस आधार पर अग्निपरीक्षा के प्रश्नों से उन्हें पूर्णतः मुक्त नहीं किया जा सकता.
अब दूसरे मत पर आते हैं, तो ऐसा है कि वाल्मीकि जी विशुद्ध इतिहासकार थे. उनमें भक्ति का तत्व नहीं था, ऐसा नहीं कह सकते, परन्तु उनकी कथा में इतिहासकार की दृष्टि प्रधान रही. जो जैसे घटा, उन्होंने वो वैसे ही रच दिया. अग्निपरीक्षा के प्रसंग में वाल्मीकि ने राम का जो रूप रचा है, वो भक्तिभाव लेकर आदिकाव्य पढ़ने वालों को विचलित कर सकता है.
वाल्मीकि रामायण में राम अग्निपरीक्षा को लेकर अत्यंत कठोर नजर आते हैं और अग्निदेव द्वारा सीता की शुद्धि का विश्वास दिलाए जाने के बाद स्पष्ट कहते हैं कि मैं सीता को शुद्ध मानता था, मगर लोकोपवाद के भय से ये परीक्षा ली है. राम की जो छवि हमारे मानस में स्थापित है, वाल्मीकि की ये कथा निश्चित ही उसे क्षति पहुंचाती है. परन्तु हमें इसे स्वीकार करना चाहिए तभी अपने नायक को सही ढंग से समझ और स्थापित कर पाएंगे.
तीसरे मत की बात करें तो सबसे पहले हमें यह दिमाग से निकाल देना होगा कि अग्निपरीक्षा नहीं हुई थी, क्योंकि वाल्मीकि से लेकर भुशुण्डी और फिर तुलसी रामायण तक कहीं भी इस प्रसंग को छोड़ा नहीं गया है. अगर इसकी सत्यता में तनिक भी संदेह होता तो तुलसी बाबा सीता-परित्याग प्रसंग की तरह ही इसे भी छोड़ देते. परन्तु उन्होंने इसे मानस में स्थान दिया यही प्रमाण है कि अग्निपरीक्षा हुई थी. अतः इसके ‘न होने’ का तर्क देकर बहस करने का प्रयास व्यर्थ है.
लेकिन इसी मत का जो दूसरा हिस्सा है कि तब अग्निपरीक्षा का जो रूप रहा होगा उसे हम समझ नहीं पाते, इसपर विचार अवश्य किया जा सकता है, क्योंकि यह सिद्ध बात है कि भारतीय पौराणिक कथाएँ अपने में गहन रूपकों का समावेश किए हुए हैं जिन्हें खोले बिना उनका असल रूप समझा नहीं जा सकता. संभव है कि अग्निपरीक्षा में भी कोई रूपक निहित रहा हो. आखिर रामायण है तो महाकाव्य ही न.
दूसरी चीज कि समय के अंतराल में शब्दों का अर्थ-संकोच और अर्थ-विस्तार भी होता रहता है. फिर रामायण को गुजरे तो वर्तमान मान्यता के अनुसार दस हजार साल के लगभग हो गए. वाल्मीकि के रामायण का रचनाकाल भी हजारों साल पूर्व का है. इतने समय में शब्दों के अर्थ अगर बदल गए हों, तो आश्चर्य नहीं किया जा सकता.
यूँ भी तब जो कुछ संस्कृत में कहा-लिखा गया, आज वो हम हिंदी में समझते हैं. इस अनुवाद प्रक्रिया में भी शब्दों का भिन्न अर्थ ग्रहण किए जाने से इनकार नहीं किया जा सकता. तो बात ये है कि अग्निपरीक्षा सत्य है, मगर वो क्या है, इसे लेकर एकदम से आश्वस्त होने की स्थिति में हम अभी नहीं पहुँच सके हैं.
अतः आप राम को उनके चरित्र के इन विरोधाभासों के साथ जिस प्रकार स्वीकार करते आए हैं, वैसे ही करते जाइए. कुछ नहीं तो यही मान लीजिये कि किसी भी मानवी कथा-नायक की नियति ही यही है कि वो कुछ अपूर्ण रहे, क्योंकि मानव-जगत से जुड़ने के लिए उसका मानवों की तरह अपूर्ण होना भी आवश्यक है. मुझे मेरे राम जितने तुलसी की ईश्वरीय प्रतिष्ठा के साथ भाते हैं, उतने ही अपनी इस तत्कालीन मानवोचित अपूर्णता के साथ भी प्रिय हैं,.
और अंत में, यह भी देख लीजिये कि राम की अग्निपरीक्षा की मांग पर हमारी माता सीता की प्रतिक्रिया क्या थी. अगर रामायण आपके लिए भी जीवन-संदेश है, तो अग्निपरीक्षा के प्रसंग में आपके नायक राम नहीं, सीता होनी चाहिए.
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क्या विभीषण राष्ट्रद्रोही थे ?
विभीषण रामायण के एक ऐसे पात्र हैं, जिनके प्रति लोकमान्यताओं में बहुत द्वंद्व है. समाज में उन्हें एक ही साथ अच्छा और बुरा दोनों माना जाता है. राम का साथ देने के कारण भारतीय मानस एक तरफ उनके पक्ष में रहता है, तो दूसरी तरफ संकटकाल में अपने देश को छोड़ने के कारण उनकी निंदा भी होती है. ‘घर का भेदी लंका ढाए’ जैसी मशहूर कहावत इस विभीषण-निंदा से ही उपजी है.
परन्तु, क्या वास्तव में विभीषण राष्ट्रद्रोही थे ? पहली चीज हमें यह समझनी होगी कि राजा, राष्ट्र नहीं होता, वो केवल राष्ट्र की एक इकाई होता है. राजा का विरोध, राष्ट्र का विरोध नहीं होता. अगर राजा अयोग्य या निरंकुश हो तो उसे उसके पद से हटा देने अथवा मृत्युदंड देने में भी नैतिक रूप से कोई दोष नहीं. दुर्भाग्यवश रावण लंका के लिए ऐसा ही राजा सिद्ध हुआ था. अपनी एक अनुचित इच्छा को पूरा करने के लिए वो राष्ट्र को विनाशकारी युद्ध में ढकेलने पर तुला हुआ था. इस प्रकार असल में देशद्रोही वो खुद था.
अब आते हैं विभीषण पर तो बात ये है कि विभीषण ने कभी भी अपने राष्ट्र यानी लंका का त्याग नहीं किया, उन्होंने केवल वहां के पतनशील राजा का त्याग किया था. अगर वे लंका का त्याग किए होते तो अकेले वहाँ से नहीं निकलते वरन अपनी पत्नी और पुत्रों को लेकर निकलते और राम के पास जाने की बजाय कहीं जंगल-पहाड़ में जाकर बस जाते. लेकिन उन्हें लंका से मोह था. वाल्मीकि रामायण से रामचरितमानस तक आप देख लीजिये, विभीषण कहीं भी आपको लंका-विरोधी बात कहते नहीं दिखाई देंगे. विभीषण जानते थे कि राम के साथ रहकर लंका को न्यूनतम हानि के साथ बचाया जा सकता है. इसलिए अपने परिवार को वहीं छोड़कर लंका को बचाने के लिए निकल पड़े.
अब आप कहेंगे कि राक्षसों के सब भेद राम को बताकर उन्होंने लंका की कौन-सी रक्षा की भला? तो जवाब ये है कि यदि उन्होंने भेद नहीं बताए होते तो भी युद्ध का परिणाम नहीं बदलता क्योंकि तब ये काम रावण का कोई और शत्रु जैसे कि देवता कर देते. यानी कि विभीषण के भेद बताने न बताने से युद्ध के परिणाम में कोई अंतर नहीं आने वाला था, सभी स्थितियों में रामचन्द्र की विजय निश्चित थी.
लेकिन विभीषण ने कुछ भेद बताए और अपनी विश्वसनीयता बनाई जिसके परिणामस्वरूप रावण के बाद उन्हें लंका का राजा बनाया गया. यदि वे राम के पक्ष में न आते तो रावण के पक्ष में मरने वालों में वे भी शामिल होते और लंका की प्रजा पर संभवतः अयोध्या या किष्किन्धा का राज्य स्थापित हो जाता. क्या ऐसे में लंका की सभ्यता-संस्कृति अपने मूल रूप में सुरक्षित रहती ? क्या एक बाहरी शासन वहां अपने अनुकूल नवीन सांस्कृतिक मूल्यों व समाज की स्थापना नहीं करता ? राक्षस संस्कृति क्या अस्तित्व में रह पाती ? यक़ीनन नहीं.
निष्कर्ष यह है कि विभीषण रावण के पक्ष में रहते तब भी युद्ध का परिणाम वही होता जो होना था. लेकिन राम के पक्ष में जाकर उन्होंने न केवल एक निरंकुश-अत्याचारी एवं राष्ट्रद्रोही राजा का विरोध किया, वरन लंका की सभ्यता-संस्कृति को भी बचा लिया. अब जहां तक रही भाई वाले कर्तव्य की बात तो लक्ष्मण और भरत जैसे भाई उसी को मिलते हैं, जो राम होता है. रावण जैसे दुष्ट के प्रति विभीषण के लिए लक्ष्मण जैसी कर्तव्य की कसौटी रखना न केवल राम-लक्ष्मण का अपमान है, बल्कि विभीषण के साथ अन्याय भी है.
अंत में इतना ही कि यदि भावनाओं में बहकर विभीषण के चरित्र का मूल्याकन करेंगे तो वो जरूर आपको राष्ट्रद्रोही लगेंगे, लेकिन नीति और नीयत के धरातल पर देखेंगे तो उनसे बढ़कर लंका में दूसरा कोई राष्ट्रप्रेमी आपको नहीं मिलेगा.
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महाशिवरात्रि का अर्थ !
भगवान शिव आदियोगी हैं. योग के जन्मदाता और आदिगुरु. योगियों और सन्यासियों के लिए महाशिवरात्रि वह रात्रि है जब लंबी साधना के बाद शिव को योग की उच्चतम उपलब्धियां हासिल हुई थीं. (more…)
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कृष्ण और राधा का पुनर्मिलन !
उम्र के आखिरी पड़ाव पर राधा और कृष्ण के मिलन का आख्यान ! लेखक ; पूर्व आई० पी० एस० पदाधिकारी, कवि : ध्रुव गुप्त (more…)
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लंका के राम कथा में रावण अब तक जिन्दा है !
हमारे देश में भगवान राम हर एक के दिल में बसे हैं किन्तु माता सीता के लिए रावण का वध कर लंका विजय करने वाले श्रीराम की चर्चा लंका में कैसी होती है ? क्या लंका के इतिहास में, उनकी संस्कृति में, उनकी लोक कथाओं में भी राम हैं ? आइए इस सम्बंध में कुछ जाना जाय.
श्रीलंका के संस्कृत एवं पाली साहित्य का भारत से घनिष्ट संबंध था. ई. पूर्व 512-521 तक श्री कुमार दास श्रीलंका के राजा थे और उनके संबंध में कहा जाता है कि वे महाकवि कालिदास के अनन्य मित्र थे. कालिदास के ‘रघुवंश’ की परंपरा में विरचित ‘जानकी हरण’ संस्कृत का एक उत्कृष्ट महाकाव्य है जो बाल्मीकी रामायण पर आधारित है और इसमें कुमार दास का ज़िक्र है.
यूँ तो सिंहली साहित्य में राम कथा पर आधारित कोई स्वतंत्र रचना नहीं है किंतु यहाँ के पर्वतीय क्षेत्र में कोहंवा देवता की एक पूजा होती है जिसमें मलेराज कथाव ( पुष्पराज की कथा ) कहने का प्रचलन है. इस कथा में राम का वर्णन है और इस कथा की शुरुआत भी सम्राट पांडुवासव देव के समय ईसा के पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ था.
कथा कुछ इस प्रकार है –
राम के रुप में अवतरित विष्णु एक बार शनि की साढ़े साती के प्रभाव क्षेत्र में आ गये. उन्होंने उसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए सीता से अलग “हाथी” का रुप धारण कर सात वर्ष व्यतीत किया. समय पूरा होने में जब एक सप्ताह बाकी था, तब रावण ने सीता का अपहरण कर लिया. उसने देवी सीता को पथ भ्रष्ट करना चाहा. सीता ने कहा कि वे तीन महीने के व्रत पर हैं. व्रत की अवधि समाप्त हो जाने के बाद वे उसकी इच्छा की पूर्ति करने का प्रयत्न करेंगी.
इस घटना के हफ़्ते भर बाद सात वर्ष की अपनी तपस्या पूर्ण होने पर श्री राम घर लौटे. अपने निवास स्थान पर सीता को अनुपस्थित पाकर वे उनकी तलाश जंगल में भटकने लगे. इसी क्रम में उनकी मुलाक़ात बालि से हुई जो अपनी पत्नी के अपहरण से दुःखी थे. राम द्वारा बालि की पत्नी को छुड़ाने के बाद बालि ने अपनी सेना के साथ प्रभु श्री राम को समुद्र पर चलने और रावण से लड़ने का वचन दिया.
कथा के अनुसार आगे बालि रावण के उद्यान में चला गया और पेड़ पर चढ़कर आम खाने लगा. इसकी सूचना रावण को मिली तो… अंततः उनकी पूँछ में आग लगा दी गई लंका को जलाया गया. बक़ौल कथानक – इसी अस्त-व्यस्तता में बालि मैया सीता को लेकर राम के पास आ गए.
कहते हैं लंका से लौटने के बाद माँ सीता गर्भवती हो गयीं. प्रभु राम देवताओं की सभा से लौटकर घर में रावण का चित्र देखते हैं और लक्ष्मण से वन में ले जाकर सीता का वध कर देने के लिए कहते हैं. लक्ष्मण जिनके लिए सीता माँ समान थी उन्हें वन में छोड़ देते हैं और किसी वन्य प्राणी का वध कर रक्त रंजित तलवार लिए राम के पास लौट जाते हैं.
Must Read : सम्मान करें,अपनी सृजनहार का !
समय बीतने पर सीता ने बाल्मीकि आश्रम में एक पुत्र को जन्म दिया. एक दिन वे उसे बिछावन पर सुलाकर वन में फल लाने गयीं. बच्चा बिछावन से नीचे गिर गया तो वाल्मीकि ने बिछावन पर शिशु को नहीं देखकर उस पर एक कमल पुष्प फेंक दिया जो शिशु बन गया. वन से लौटने पर जब सीता ने शिशु का रहस्य जानना चाहा तो ॠषि ने सच्ची बात बता दी, किंतु सीता को विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने ॠषि को फिर वैसा करने के लिए कहा ( वन्स मोर टाइप ), तो ॠषि ने कुश के पत्ते से एक अन्य शिशु की रचना कर दी. अब ये तीनों बच्चे जब सात वर्ष के हुए तो मलय देश चले गये जहाँ उन्होंने तीन राज भवनों का निर्माण करवाया. ये तीनों राजकुमार सदलिंदु, मल और कितसिरी के नाम से विख्यात हुए.
कथा पढ़कर यह समझ आता है की लोग अपने-अपने क्षेत्र में अपने आकाओं का वर्णन अपने हिसाब से करते हैं… ख़ैर, बताइए की रावण को मारते हीं नहीं ये लोग अपनी कथा में !
लेखक : प्रवीण कुमार झा
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सुख शांति के मंत्र – गौतम बुद्ध
“दुःख के कारण तुम हो, तुम्हारे सुख के कारण तुम हो और दूसरों को दुःख देने से तुम कभी सुख न पा सकोगे । दूसरों को सताने से तुम कभी उत्सव न मना सकोगे ।” (more…)
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प्रेम में स्वतंत्रा क्यों- वासुदेव श्री कृष्ण
प्रेम की स्वतंत्रा के विषय में श्री कृष्ण वासुदेव के उपदेश. प्रेम में स्वतंत्रा क्यों ? तनिक सोचिये, यदि जल को मुट्ठी में कस के बांधे तो जल कैसे (more…)