वर्तमान मान्यताओं के अनुसार राम के होने का कालखण्ड आज से करीबन नौ-दस हजार वर्ष पूर्व पर जाकर ठहरता है. यद्यपि भारतीय पौराणिक मान्यताओं से देखेंगे तो यह कालावधि और भी बहुत पीछे जाएगी तथापि हम यदि दस हजार वर्ष को ही आधार मानें तो भी एक बड़ा कालखण्ड मर्यादा पुरुषोत्तम को इस धरती पर आए बीत चुका है. परन्तु, यह राम का हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों पर प्रभाव ही है कि लोग आज भी बात-बात में उनके सामाजिक दृष्टिकोण को उदाहरण की तरह प्रस्तुत करते हैं. आधुनिक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था जो स्वयं को अत्यंत प्रगतिशील मानती है, उसकी कसौटियों पर भी दस हजार वर्ष पूर्व के राम न केवल प्रासंगिक, अपितु पुरुषोत्तम भी सिद्ध होते हैं. काल का ये बहाव राम की तेजोमय छवि को टस से मस भी नहीं कर सका है.
परन्तु, इस विशाल समयांतराल में एक दृष्टि यह भी विकसित हुई है कि राम सामाजिक भेदभाव के पक्षधर थे. इस मत के पक्ष में राम के जीवन से सम्बंधित ‘शम्बूक वध’ नामक प्रसंग को मुख्य आधार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. परन्तु हम केवल शम्बूक वध की बात करने की बजाय राम की पूरी जीवन-यात्रा को शुरू से देखते हुए उनके सामाजिक दृष्टिकोण को परखने का प्रयत्न करेंगे और इसी क्रम में शम्बूक वध पर भी बात की जाएगी.
राम की वास्तविक जीवन-यात्रा का आरम्भ तब होता है, जब वे मुनि विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा के लिए उनके साथ जाते हैं. यज्ञ-रक्षा के उपरान्त मिथिला गमन के मार्ग में शापग्रस्त अहल्या जिनका पति सहित पूरे समाज द्वारा अनुचित बहिष्कार कर दिया गया है, का आतिथ्य ग्रहण कर इस बहिष्कृत अवस्था से उनका उद्धार करते हैं. यह भ्रम है कि राम ने चरणों से छूकर शिला अहल्या का उद्धार किया था. वाल्मीकि की कथा में अहल्या के शिला होने की बात नहीं है और यहाँ राम उन्हें चरण से भी नहीं छूते, अपितु उनके चरण छूकर उन्हें उनका यथोचित सम्मान देते हैं. राम का यह कर्म समाज को चुनौती है कि तुमने जिसे त्यागा मैं उसे अपना रहा हूँ, जिसमें सामर्थ्य हो वो रोक ले.
अयोध्याकाण्ड में वनगमन के पश्चात मार्ग में राम अपने पुराने सखा निषादराज गुह से मिलना नहीं भूलते. यहाँ उनके सामाजिक दृष्टिकोण के एक नवीन पक्ष का उदघाटन होता है. आर्यावर्त के चक्रवर्ती सम्राट के सामर्थ्यशाली पुत्र की एक आदिवासी भील से मित्रता न केवल हमें चकित करती है बल्कि उसके प्रति स्नेह और सौहार्द्र की भावना को देख हम मुग्ध भी हो जाते हैं. यहाँ कोई सामाजिक भेदभाव नहीं रह जाता.
अयोध्याकाण्ड बीतता है, अरण्यकाण्ड आता है और सीता हरण के पश्चात् राम उनकी खोज में भटकने लगते हैं. इसी खोज में शबरी के आश्रम में पहुँचते हैं. यहाँ दो बाते द्रष्टव्य हैं. पहली कि भील जाति की शबरी मतंग मुनि की शिष्या रही है और राम के पहुँचने पर योगिनी के रूप में है. यानी कि उस समय ऋषि कोई जातिगत भेदभाव नहीं रखते थे. दूसरी बात कि राम शबरी का आतिथ्य पूरे आदर से ग्रहण करते हैं और उसके प्रति पूरे प्रसंग में आदर-भाव के साथ ही दृष्टिगत होते हैं. यूँ तो अहल्या के प्रति राम की सम्मान-भावना उनके स्त्री विषयक दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है, परन्तु शबरी के साथ विशेष बात यह है कि वो स्त्री होने के साथ-साथ कथित निम्न जाति की भी है. अतः उसके प्रति राम का उदार और सम्मानित व्यवहार उनकी जाति-वर्ग के भेदभाव से मुक्त खुली दृष्टि की सूचना हमें देता है.
किष्किन्धाकाण्ड में तो राम वानर-रीछ जैसी उन जातियों से मित्रता स्थापित करते हैं, जिनसे तत्कालीन दौर में किसी अन्य भारतीय शासक की मित्रता का कोई प्रसंग नहीं है. संभवतः तत्कालीन शासकों या जनसामान्य के मन में इन जातियों की जैविक बनावट में कुछ भिन्नता के कारण इनके प्रति निकृष्ट भावना रही होगी. ठीक वैसे ही जैसे आज पूर्वोत्तर के लोगों के प्रति बहुतायत भारतीयों में दिख जाती है. लेकिन इनसे मित्रता स्थापित कर राम न केवल तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं को ध्वस्त कर संबंधों की एक नवीन धारा का सूत्रपात करते हैं, अपितु आजीवन उसका निर्वाह भी करते हैं. यहाँ राम की सामाजिक दृष्टि का अत्यंत विस्तृत रूप देखने को मिलता है.
और अंत में, उत्तरकाण्ड आता है, जहां राजा बन चुके राम शम्बूक नामक एक शूद्र वर्ण के व्यक्ति का तपस्या करने के कारण वध करते हैं. इस विषय में पहली बात तो ये कि वाल्मीकि रामायण के जिस उत्तरकाण्ड में यह प्रसंग आता है, वो पूरा काण्ड ही क्षेपक माना जाता है जिसका स्पष्ट प्रमाण वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के चौथे सर्ग के दूसरे श्लोक में मिल जाता है.
श्लोक है –
चतुर्विंशत्सहस्त्राणि श्लोकानामुक्तवानृषिः
तथा सर्गशतान् पञ्च षट् काण्डानि तथोत्तरम्
यानी कि रामायण में चौबीस हजार श्लोक और छः काण्ड हैं. इससे पूर्व के सर्ग में भी महर्षि वाल्मीकि, रामायण की कथा का जो संक्षिप्त ‘नैरेशन’ करते हैं, वो केवल राम के राज्याभिषेक तक ही है. इन तथ्यों से स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में उत्तरकाण्ड बाद के दिनों में किसी खुराफाती मस्तिष्क ने जोड़ने का कार्य किया अतः इसमें वर्णित किसी भी प्रसंग की कोई प्रामाणिकता ही नहीं है. वैसे भी राम की जो उपर्युक्त जीवन-यात्रा हमने वर्णित की है, उसमें उनका जो सामाजिक दृष्टिकोण रहा है, उसे देखते हुए क्या एक प्रतिशत भी ऐसा संभव लगता है कि वे किसी कथित निम्न जाति के व्यक्ति का तप करने के लिए वध करते. परन्तु, यह काण्ड ही जब संदिग्ध है, तो इसके किसी भी प्रसंग पर बात करना व्यर्थ है.
राम अपने काल में भी पुरुषोत्तम थे, आज भी हैं और मेरा विश्वास है कि जब तक संसार में मानवीय मूल्य जीवित हैं, उनका पुरुषोत्तम रूप हमारे लिए अनुकरणीय बनकर उपस्थित रहेगा.
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