अशोक के पेड़ के झुरमुट से उसकी खिड़की झाँकती है । जब भी आसमान में काले बादल छाते, तो वो खिड़की के कोने से आसमान को निहारने आ जाया करती । यूँ लगता है जैसे काले बादल के उन्मुक्तता को….तीसरी मंजिल के खिड़की से देखकर वो दुनिया के मोह-बंधन से अपने आपको दूर कर लेना चाहती है । उसका दूर तक यूँ ही निहारते रहना, बारिश के शुरू होते ही उसके चेहरे पर गहरी आत्मसन्तुष्टि के भाव, उस लम्बे झुरमुट वाले अशोक के पेड़ के पीछे उस अधखुली खिड़की से उसके रूप, रंग, यौवन के साथ – साथ उसके छुये-अनछुये पहलुओं को समझने की चेष्टा ने ही तो मुझे पिछले दो दिनों से व्यस्त रखा है ।
बारिश के शुरू होते ही वो भाग कर खिड़की पर ऐसे आती, मानो प्रकृति के इस अनुपम उपहार को अपने आप में समेट लेना चाहती है । कभी हाथों से पानी के बूंदों को छुती इठलाती हुई, हवा के झोकें सी अपने आप में सकुचाती हुई मुस्कुराती है, तो कभी उसके बेजान चेहरे को देख कर लिखते लिखते मेरे कलम रुक जातें हैं । उसके नैन-नक्श, खुले बाल और आखों की काजल, चमचमाती हुई मोतियों की माला मानो बादल से अदृश्य संवाद स्थापित कर लेती है । काले बादलों से बातें करती, हवाओं के झोकें कब उसके लटों को बिखरा देती है, ये उसके स्थिर निगाहों को पता नहीं चलता । जब बारिश के बूंदें उसकी लटों को पूरी तरह से भींगा देतीं, तो वो उसको संभालती, करीने से सजाती अपने आप से बातें करती, अपने आस पास को टटोलती, खुली आसमान के चिड़ियां के तरह नव में विचरण करती हुई आखों से दूर चली जाती है ।
लेखक : अविनाश भारतद्वाज
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