नुति : तीसरी चिट्ठी


नुति की पहली और दूसरी चिट्ठी को लोगों ने खूब प्यार दिया । लेखक प्रवीण झा से लगातार तीसरी चिट्टी की डिमांड होने लगी तो लीजिए विचारबिन्दु पे प्रस्त्तुत है “नुति की तीसरी चिट्ठी” पढ़िये और अपनी प्रतिक्रिया आवश्य दीजिए ताकि “विचारबिन्दु” के इस डायरी  श्रृंखला को आगे बढ़ाया जा सके ।

११-१०-२०१९

वेणु,

सुनो ना, मुझे नहीं पता तुम्हें क्या सम्बोधन दूँ । तुम अपने से हो… शायद पिता से, बड़े भाई से या फिर मेरे सबसे करीबी दोस्त से । सो बिना अधिक सोचे सीधे तुम्हारा नाम ही लिख दिया । कहना जरुरी इसलिए था की तुम कहीं यह न समझ लो की मुझे चिट्ठी लिखनी नहीं आती ।

इस चिट्ठी में देरी हुयी । वजह नहीं कह पाऊँगी और मुझे पता है तुम पूछोगे भी नहीं । इन दिनों जीवन जीते कुछ ऐसा लग रहा है जैसे मैं अब तक खुद को किसी और के लिए तैयार करती आई थी । मुझे नहीं पता बांकी लोग क्या करते हैं लेकिन मुझे तो यही लगता है कि हम नुतियाँ अपनी ही जिंदगी के मापदंड नहीं तय कर सकतीं, सपने नहीं बुन सकती, अपनी ख्वाहिशें नहीं सहेज सकती… एक स्त्री के रूप में हमें सिर्फ और सिर्फ किसी और के सपने पुरे करने का माध्यम बनना होता है । शायद एक ऐसे प्रक्रिया का माध्यम जिसमें खुद को घिसकर चमकाया नहीं जाता बल्कि बिना ईच्छा पूर्ति के खुद का ह्रास किया जाता है ।

मुझे नहीं पता यह सब आज क्यों आया दिमाग में मगर जेहन में आकर खोखला कर गयीं कहीं । तुम ही कहो वेणु, क्या ये सच नहीं की मैं ( या फिर मुझ सी कोई और नुति ) परिवार की जिंदगी सवांरने भर को और उनकी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी ढूंढने मात्र को नहीं बनी ?

मुझे सफ़ेद, बिना किसी दाग के, साफ सुथरा समंदर पसंद है वेणु । लेकिन क्या हो जब मेरे पति को कुछ और और बच्चों को मॉल के प्ले स्टेशन ही पसंद हो । मुझे संगीत पसंद है लेकिन क्या हो की बांकियों को “कुछ और” मात्र पसंद हो । और सच्ची कहूं ये “कुछ और” न सबसे अधिक जानमारुख है मेरे लिए ।

पता है वेणु, मुझे इस “कुछ और” से कोई गुरेज भी नहीं अब लेकिन तकलीफ तब अधिक होती है जब इनके “कुछ और” में मैं एक साधन की तरह इस्तेमाल मात्र होती हूँ । इस्तेमाल भी करो, मगर अपना समझ कर… मेरी भी इच्छाओं और सुभीता का ध्यान रख कर आप अपना “कुछ और” करो ना । क्या ये संभव नहीं की ये कुछ और एकतरफा न हो ? अधिक नफा उनका मगर थोड़ा नफा मेरा भी तो हो… और सबसे ऊपर यह बात की क्या मेरे नफे से आपको आनंद नहीं आता ?

शायद आज मैं अधिक इमोशनल हूँ… लेकिन तुम ही कहो की क्या मैं सच नहीं कह रही ? मुझे पता है यह सच कहने योग्य नहीं बल्कि इसे ही दिल में जज्ब कर घुटते रहने का नाम नुति की जिंदगी है । ….यहाँ तुमको धन्यवाद करती हूँ, मैं तुम्हारी शुक्रगुजार हूँ कि तुम मुझे सुन रहे हो…. और इस बहाने मैं कोई क्रांति वगैरह भले न कर दूँ, कम से कम घुटन से तो बच ही रही मैं ।

वेणु, मैं आगे कुछ और लिखने से पहले थोड़ा रुकना चाहती हूँ, मैं तुमसे बात करना चाहती हूँ वेणु । मुझे पता है शायद समाज को यह चिट्ठी लिखना भी स्वीकार्य नहीं होगा और मैंने कभी सोचा भी नहीं की मेरे इस चिट्ठी लिखने और तुम्हारे पढ़ने के रिश्ते का नाम क्या होगा… मुझे यह भी नहीं पता की यह कब तक चलेगा और इसका भविष्य क्या है लेकिन सच बताऊँ वेणु मुझे एक नई जिंदगी मिली है इससे । मैं और कुछ चाहती भी नहीं तुमसे सिवाय इसके की तुम मेरी सुनते रहो । क्या ये कम है कि बिना किसी स्वार्थ के तुम मेरी सुन रहे ? हाँ, एक बार मिलना चाहती हूँ तुमसे…. सामने से देखना चाहती हूँ तुमसे… शायद मैं एक बार तुमको छूना भी चाहती हूँ । तुम चिंता मत करो यह आज जरुरी नहीं, बल्कि कभी भी… शायद तब भी जब तुम्हारे मुंह में दांत और मेरे सर पर काले बाल भी न हों । बस तुम याद रखना – मुझे उस एक दिन का इंतजार रहेगा ।

शायद तुम मिले हो तो मैं खुद को अधिक सोचने लगी हूँ । शायद नहीं, बल्कि यही सच है । पिछले दिनों मैं सोचती रही की अगर फिर से मुझे मेरे जीवन के ऐसे कुछ दिन मिल जाएँ जिसमें मैं खुद को जी सकूँ, तो क्या होगा । इस सोच के पीछे भी तुम ही हो वरना मैं तो भूल ही चुकी थी की मेरी अपनी भी ख्वाहिशें हैं । काफी देरी लगी मुझे मुझे इन पसंदीदा बातों को याद करने में लेकिन अब सब याद आ गया है मुझे ।

हाँ, मुझे पहले एक बार समंदर में डुबकी लगाना है ।  शायद वहां सब कुछ धुल सकूँ मैं… असंख्य बुरी नजरें, ताने, चीख… “कुछ और” के निशान भी- मुझे इल्म है कि शायद ये सब धुल जाता है समंदर के खारे पानी में ।

कभी मिले ऐसे दिनों में मुझे मेरे गाँव जाना है एक बार फिर से जहाँ फिर से माँ मेरी चोटी कर दे और मैं बाबा के साथ मेला जाऊं । बाबा फिर से मुझे वो आजादी दें जहाँ मैं किसी और की परवाह किये बगैर खिलखिला सकूँ, कहीं भी बैठ सकूँ, कहीं भी लेट सकूँ । वेणु, ऐसे मिले उन दिन में मैं चाहूंगी की मेरे अब के घर में मेरी सुनी जाए । कोई अपनी इच्छाएं न थोपे मुझ पर…. मेरे शरीर को एक मांस का बड़ा टुकड़ा मात्र न समझ कर उसे अलग अलग देखा जाय…. न सिर्फ इस्तेमाल के दौरान उस पर वार हो बल्कि उसे निहारा भी जाय…. मेरे गाल के तिल और मेरी पलकों की तारीफ़ भले न हो, स्पर्श भर देकर उन्हें पैंपर तो किया जाए ।

तुम्हें पता है वेणु, मेरे अंदर एक डर घर कर गया है । ये डर दो बातों को लेकर है । मुझे नहीं पता की मेरी इन बातों का क्या असर हो रहा है तुम्हारी जिंदगी में, मुझे डर है कि कहीं मैं तुम्हारा नुकसान तो नहीं कर रही…. और क्या मैं तुम्हें खो तो नहीं दूंगी ?

यदि संभव हो तो एक बार मुझे जवाब लिखना ।

नुति 

मुझे फिर से नहीं पता की क्या लिखूं – “तुम्हारी नुति” या कुछ और… लेकिन तुम तो अपने से हो सो सिर्फ नुति लिख दिया 🙂


Must Read : 1. नुति : पहली चिट्ठी / 2. नुति : दूसरी चिट्ठी 


praveen jha

लेखक : प्रवीण झा

कंटेंट साभार : ब्लॉग बकैत बेलौनियाँ

लेखक अपना परिचय देते हुए कहते हैं – “भीड़ में से ही एक हूँ । एक कीड़ा है अंदर जो वर्तमान में सहज न रहकर भविष्य की सोच में रहता है, अपने अलावा सबकी चिंता में रहता है । एक खेतिहर संयुक्त परिवार से हूँ, वाजिब है, मिट्टी का सोंधापन भी है अंदर कहीं न कहीं । मेरे गाँव में दबी हैं जड़ें मेरी, जो ख़ुद को शहर की रंगीनियों से मुरझाने को बचाने में प्रयासरत है ।”

:: ‘विचारबिन्दु’ पे डायरी लिखने के सीरिज में आप इन्हें क्रमशः पढ़ पाएंगे ! हम श्रीमान प्रवीण झा जी का हार्दिक स्वागत करते है ! आप भी कीजिये, कंटेंट अच्छा लगे तो शेयर भी कीजिये । जय हो

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