मुद्गल नामक ऋषि कुरुक्षेत्र में रहते थे । ये बड़े धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, भगवद्भक्त एवं सत्यवक्ता थे । किसी की भी निन्दा नहीं करते थे । ये शिलोंछवृत्ति से अपना जीवन निर्वाह करते थे। पंद्रह दिनों में एक द्रोण धान्य, जो करीब 34 सेर के बराबर होता है, इकट्ठा कर लेते थे । उसी से इष्टीकृत नामक यज्ञ करते और प्रत्येक पंद्रहवें दिन अमावस्या एवं पूर्णिमा को दर्श-पौर्णमास यज्ञ किया करते थे । यज्ञों में देवता और अतिथियों को देने से जो अन्न बचता, उसी से परिवार सहित निर्वाह किया करते थे । जैसे धर्मात्मा ब्राह्मण स्वयं थे, वैसे ही उनकी धर्मपत्नी और संतान भी थीं । मुद्गल ऋषि सपरिवार महीने में केवल दो ही बार — अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन ही भोजन किया करते, सो भी अतिथि अभ्यागतों को भोजन कराने के बाद । कहते हैं कि उनका प्रभाव ऐसा था कि प्रत्येक पर्व के दिन साक्षात् देवराज इन्द्र देवताओं सहित उनके यज्ञ में आकर अपना भाग लेते थे । इस प्रकार मुनि वृत्ति से रहना और प्रसन्न-चित्त से अतिथियों को अन्न देना यही उनके जीवन का व्रत था ।
मुनि के इस व्रत की ख्याति बहुत दूर तक फैल चुकी थी । एक दिन उनकी कीर्ति कथा दुर्वासा मुनि के कानों में पड़ी । उनके मन में उनकी परीक्षा करने की आ गयी । दुर्वासा ऋषि जहाँ-तहाँ व्रतशील उत्तम पुरुषों को व्रत में पक्का करने के लिए ही क्रोधित वेश में घूमा करते थे । वे एक दिन नंग-धड़ंग पागलों का सा वेश बनाये, मूँड़ मुँड़ाये, कटु बचन कहते हुए वहाँ आ पहुँचे । आते ही बोले — ‘विप्रवर ! आपको मालूम होना चाहिए कि मैं भोजन की इच्छा से यहाँ आया हूँ ।’ उस दिन पूर्णिमा का दिवस था । मुद्गल ने आदर सत्कार के साथ ऋषि की अभ्यर्थना करके उन्हें भोजन कराने बैठाया । उन्होंने अपने भूखे अतिथि को बड़ी श्रद्धा से भोजन परोस कर खिलाया । मुनि भूखे तो थे ही, श्रद्धा से प्राप्त हुआ वह अन्न उन्हें बड़ा सरस भी लगा । वे बात की बात में रसोई में बना हुआ सब कुछ जीम गये, बचा-खुचा शरीर पर चुपड़ लिया । जूँठा अन्न शरीर पर लपेट कर वे जिधर से आये थे, उधर ही निकल गये ।
मुद्गल सपरिवार भूखे रहे । यों प्रत्येक पर्व पर दुर्वासा ऋषि आते और भोजन करके चले जाते । मुनि को परिवार सहित भूखे रह जाना पड़ता । पंद्रह दिनों तक कटे हुए खेतों में बिखरे दानों को वे बीनते और स्वयं निराहार रहकर प्रत्येक पंद्रहवें दिन वे उसे दुर्वासा ऋषि को अर्पण कर देते । स्त्री-पुत्र ने भी उनका साथ दिया । भूख से उनके मन में तनिक भी विकार या खेद उत्पन्न नहीं हुआ । श्री दुर्वासा ऋषि ने हर बार उनके चित्त को शान्त और निर्मल ही पाया ।
दुर्वासा ऋषि इनके धैर्य को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए । उन्होंने मुनि मुद्गल से कहा — ‘मुने ! इस संसार में तुम्हारे समान दाता कोई भी नहीं है । ईर्ष्या तो तुमको छू तक नहीं गयी है । भूख बड़े-बड़े लोगों के धार्मिक विचारों को डिगा देती है और धैर्य को हर लेती है । जीभ तो रसना ही ठहरी, वह सदा रस का स्वाद लेने वाली है । मन तो इतना चंचल है कि इसको वश में करना अत्यंत कठिन जान पड़ता है । मन और इन्द्रियों को काबू में रखकर भूख का कष्ट उठाते हुए परिश्रम से प्राप्त किये हुए धन को शुद्ध हृदय से दान करना अत्यंत कठिन है । देवता भी तुम्हारे दान की महिमा गा-गाकर उसकी सर्वत्र घोषणा करेंगे ।’
महर्षि दुर्वासा यों कह ही रहे थे कि देवदूत विमान लेकर मुद्गल के पास आया । देवदूत ने कहा — ‘देव ! आप महान पुण्यवान् हैं, सशरीर स्वर्ग पधारें।’ देवदूत की बात सुनकर महर्षि ने उससे कहा — देवदूत ! सत्पुरुषों में सात पग एक साथ चलने से ही मित्रता हो जाती है ; अतः मैं आपसे जो कुछ पूछूँ, उसके उत्तर में जो सत्य और हितकर हो, वही बतलाएँ । मैं आपकी बात सुनकर ही अपना कर्तव्य निश्चित करूँगा । देवदूत ! मेरा प्रश्न यह है कि स्वर्ग में क्या सुख है और क्या दुःख है? ‘
देवदूत ने महर्षि मुद्गल के उत्तर में स्वर्गलोक एवं उससे भी ऊपर के भोगमय लोकों के सुखों का वर्णन किया । तत्पश्चात् वहाँ का सबसे बड़ा दोष यही बताया कि ‘वहाँ से एक न एक दिन पतन हो ही जाता है । ब्रह्मलोक पर्यन्त सभी लोकों में पतन का भय जीव को सदा बना रहता है ।’ वे कहने लगे कि —- ‘सुखद ऐश्वर्य का उपभोग करके उससे निम्न स्थानों में गिरने वाले प्राणियों को जो असन्तोष और वेदना होती है, उसका वर्णन करना बहुत कठिन है ।’
यह सुनकर महर्षि मुद्गल ने देवदूत को विधिपूर्वक नमस्कार किया तथा उन्हें अत्यंत प्रेम से यह कहकर लौटा दिया –
यत्र गत्वा न शोचन्ति
व्यथन्ति चरन्ति वा।
तदहं स्थानमत्यन्तं
मार्गयिष्यामि केवलम्।।
‘हे देवदूत ! मैं तो उस विनाशरहित परमधाम को ही प्राप्त करूँगा, जिसे प्राप्त कर लेने पर शोक, व्यथा, दुखों की आत्यान्तिक निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है ।’ देवदूत उनसे यह उत्तर पाकर उनकी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करता हुआ लौट गया एवं तत्पश्चात् मुनि मुद्गल स्तुति-निन्दा तथा मिट्टी में समभाव रखते हुए ज्ञान-वैराग्य तथा भगवद्भक्ति के साधन से अविनाशी भगवद्धाम को प्राप्त हुए ।
साभार : भक्त चरितांक
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