महाशिवरात्रि मनाया जा रहा है । गाँव से शहर तक ! यहाँ जो भी लड़के व्रत करते दिख रहे हैं, वो भी हमारे इधर (गाँव) के ही हैं । एकदम ना के बराबर लड़के पटना से हैं जो व्रत कर रहे हैं । हाँ, सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही है कि इस शहर के कुछ टीन एज़र्स लड़के “गाँजा पीते भोलेबाबा” की फोटो लगा कर अपना उद्देश्य सोशल मीडिया पर स्पस्ट कर रहें हैं ।
यहाँ पर शिवजी का पर्सनल मंदिर ढूंढा जाए तो कई गलियां और बाईपास से गुज़रने पर भी निराशा ही मिलेगी । यहाँ संयुक्त परिवार की परंपरा नहीं है फिर भी हरेक मन्दिर में एक साथ कई भगवान हैं ! और ये अच्छी बात है । वेलेंटाइन का सप्ताह आखिरी दिनों में है तो थोड़ा ही सही मग़र पूजा और प्रेम के बीच झंझट तो हो रही है, । यहाँ मंदिर में आई व्रती लड़कियों से बाहर बैठे बाइकर्स खुलेआम वेलेंटाइन मनाने की कोशिश में लगे रहते हैं ।
गाँव में जब मैंने पहली बार व्रत किया था तो मेरी उम्र 10 के आसपास होगी । मेरा उद्देश्य दादी माँ के साथ हरिहर स्थान, कई गाँव के आड़ी-धुरी से होकर घूमते जाना और भूख की जिद से वहाँ चार्ट खा लेना था । दिन से ही चाँद-तरेगन देखने लगा था और उस दिन की शाम बहुत लंबी गुजरी थी । एक बेर व्रत तोड़ने को काफी थे मग़र मैं पुरा हँसोथ लेता था । व्रत के बाद कैसा भी खाना आये, सबसे स्वादिष्ट लगता है और गाँव में तो तरुआ देखते ही भूख दुगुनी हो जाती है। धीरे-धीरे प्रत्येक साल व्रत करने की आदत सी लग गई, फल-फ़लहारी और दोस्तों के साथ साईकल से हरिहर स्थान जाने का प्लान बनने लगा । चार-पाँच किलोमीटर की रेंज भी अब बढ़ चुकी थी, घर से झूठ बोलकर साईकल से दस-पंद्रह किलोमीटर जाना मामूली सा था । कभी गाँव से बहुत दूर कपिलेश्वर स्थान तो कभी कलना, ये दो ऐसे मंदिर हैं जहाँ लोग सवारी से भी नहीं जा पाते और हम सभी यार, व्रत का उत्साह लिये पहुँच जाते हर बार । गाँव पहुँचते ही बड़े-बुजुर्गों को पता चलता तो उन्हें पहले आश्चर्य होता और फिर हमारी बढियां से खबर ली जाती थी ।
उम्र-दर-उम्र हमारे व्रत करने के उद्देश्य भी बदलने लगे । कभी एग्जाम तो कभी.. आप जानते ही होंगे ! और आज शहर में पटना में, उसी तरह व्रत और भक्ति उफ़ान पर है । मग़र माहौल और वातावरण का बड़ा अंतर, किसी भी गाँव में रह आये व्यक्ति को परेशान करती है । मग़र ये बात ज़रूरी है कि आस्था जिंदा है । मेरे दोस्त, मेरी तरह आज भी उन दिनों याद करते हैं और फिर से बचपन जीने का मन करता है । और ये बात मुझे खुशी देती है कि वो बदले नहीं, गाँव-अतीत-बचपन को ऐसे बदलते-व्यस्त युग में भी वो भुले नहीं । हाँ, ये तो सच है कि बचपन न लौट सकता है और दुबारा न हम उसे जी सकते हैं मग़र यादें जो सहेज रखी है हमने, उसे साझा तो किया ही जा सकता है । आपसे ! उनसे ! उससे ! सबसे !
इस साल भी उसी तरह का मनोरथ है । एग्जाम, प्रेम, गाँव, परिवार, दोस्त, दुनिया सब के लिये सच्चे मन से भोलाबाबा से कहता हूँ । बाबा आपका कामना पूरा करें क्योंकि हमारे भीतर का बच्चा कहता है कि “सब मनोरथ बाबा के भरोसे” ।
लेखक : सागर
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