पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एम्स में निधन हो गया । पूरे देश में शोक की लहर फैल गयी। लोग अपने-अपने तरीके से उन्हें याद कर रहे हैं। वाजपेयी जी को याद करने के कई कारण हैं। देश उन्हें केवल एक प्रधानमंत्री के रूप में ही नहीं बल्कि एक पत्रकार, कवि, ओजस्वी वक्ता, राजनीति के आजातशत्रु होने के साथ एक पत्रकार के रूप में भी जानता है ।
सदन में बोलते हुए उन्होंने एक बार कहा था “अध्यक्ष महोदय मैं जब राजनीति में आया, मैंने कभी सोचा नहीं कि मैं पीएम बनूंगा। मैं पत्रकार था…..”। उनके इस वक्तव्य से पता चलता है कि प्रधानमंत्री रहते हुए भी उनका पत्रकारिता से कितना गहरा लगाव था।
पत्रकार से राजनेता बनने की कहानी
ये कहानी बहुत से लोग जानते हैं। कश्मीर को स्पेशल स्टेट का दर्जा मिला था और वहां परमिट सिस्टम लागू था। कोई भी गैर कश्मीरी वहां प्रवेश नहीं कर सकता था। इस स्टेटस के खिलाफ जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी का अभियान चल रहा था। विरोध करते हुए मुखर्जी कश्मीर पंहुच गए। श्यामा प्रसाद मुख़र्जी को गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना को कवर करने के लिए वाजपेयी जी भी उनके साथ गए थे। कुछ दिनों बाद जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु हो गई तो उन्हें बहुत दुःख पंहुचा और उन्होंने पत्रकारिता छोड़ राजनीति में आ डॉ० मुखर्जी के कार्य को आगे बढाने का निर्णय लिया।
जब पत्रकारिता के लिए छोड़ी पीएचडी
वाजपेयी जी अपने जीवन के शुरुआती दिनों में ही संघ से जुड़ गए थे। स्नातकोत्तर प्रथम श्रेणी से उतीर्ण होने के बाद पीएचडी करने लखनऊ आ गए। यहां वह पंडित दीनदयाल उपाध्याय के संपादन में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘राष्ट्रधर्म’ के सह संपादक के रूप में काम करने लगे। इस समाचार पत्र का संपादकीय पंडित दीनदयाल लिखते थे और शेष काम वाजपेयी जी के जिम्मे था। इस समाचार पत्र में उनकी व्यस्तता इतनी बढ़ गयी कि उन्हें पीएचडी छोड़नी पड़ी। बाद में उन्हें मानद उपाधि मिली जिसे लिखने एवं बताने में वह संकोच करते रहे।
सशक्त लोकतंत्र की आवश्यकता है समाचार पत्र और उसके पाठक
वाजपेयी जी ने तरुण भारत के पच्चीसवीं वर्षगांठ पर अपने संबोधन में कहा था “शब्द का महत्व है। बोला हुआ शब्द दूर तक नहीं पंहुचता है, लिखा हुआ शब्द दूर-दूर तक जाता है। बोला हुआ शब्द हवा में उड़ जाता है, लिखा हुआ शब्द टिकता है। इसीलिए समाचार पत्रों का बड़ा महत्व है। और जो इसे पढ़ते हैं उनका विशेष महत्व है। क्योंकि यही वह लोग हैं जो लोकतंत्र को सशक्त बनाने में अपनी भूमिका निभाते हैं।
स्वतंत्र पत्रकारिता को बढ़ावा देना शासन का दायित्व है
उनका मानना था कि सरकार विज्ञापन देने में कंजूसी करेगी तो देश में स्वतंत्र पत्रकारिता का विकास मुश्किल हो जाएगा। अगर स्वतंत्र पत्रकारिता में बाधा पैदा होती है तो यह समझना चाहिए कि शासन अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर पा रहा है। सरकार सबसे अधिक विज्ञापन देने वाली संस्था है। इसीलिए उसे बिना किसी भेदभाव के विज्ञापन देना चाहिए। जब भी देश में संसद व न्यायपालिका दुर्बल होते हैं तो निर्भीक एवं स्वतंत्र प्रेस ही एकमात्र स्थान बचता है। निर्भीकता के साथ लिखने वाला पत्रकार, दबाव से मुक्त, सत्ता एवं भीड़ के प्रभाव से परे, उन्माद के असर से दूर की पत्रकारिता ही समाज को बचाये रखेगी।
प्रधानमंत्री रहते हुए भी जिंदा रहा अंदर का पत्रकार
तरुण विजय पांचजन्य के संपादक थे। उन दिनों पाञ्चजन्य में सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की तीखी आलोचना की जाती थी। एक अंक में छपे आलेख को देख कर वाजपेयी जी ने प्रधानमंत्री कार्यालय से तरुण विजय को फोन कर कहा “विजय जी! नीतियों एवं कार्यक्रमों की आलोचना कीजिये मगर व्यक्तिगत बातों को आक्षेप से बाहर ही रखिये तो अच्छा ।
आज जब अधिकांश मीडिया हाउस सरकार के दबाव में काम कर रहे है। प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों में भारत 136वें स्थान पर है। सरकार के विपक्ष में एक खबर चलने पर विज्ञापन बंद हो जाता है या हाउस के आंतरिक ढांचे में भी सेंधमारी हो जाती है तो यह महसूस होता है कि काश! आज अटल जी बोल रहे होते। अटल जी को आदर्श मानने वाली भाजपा आज देश के अधिकांश हिस्से में सत्तासीन है। उम्मीद है कि अटल जी के विचारों को मानने की बात करने वाली पार्टी पत्रकारिता के संबंध में उनके विचारों को आत्मसात करेगी।
आलेख : सोमू आनंद ( पटना विश्वविद्यालय से पत्रकारिता के छात्र हैं )
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