कबीर का एक पद है जिसमें जिक्र आया है कि नैहर में उनका मन नहीं लग रहा है, वह ससुराल जाना चाहती है । कबीर ने अपने को स्त्री बना लिया है । क्यों ? यह बाद में देखेंगे । पहले पद की कुछ पंक्तियां रख लेते हैं । इससे विचार करने में सुविधा रहेगी—
नैहरवा हमका न भावै
साई की नगरी परम अति सुंदर, जहं कोई जाय न आवै ।
केहि बिधि ससुरे जाऊं मोरी सजनी, को यह राह बतावै ।
बिनु सतगुरु अपनो नहिं कोऊ, जो यह राह बतावै ।।
स्त्रीलिंग-पुल्लिंग वाला झमेला पहले साफ कर लेते हैं, तब आगे बढ़ना सही रहेगा । प्रश्न है कि कबीर जो पौरुष से ओतप्रोत हैं, वे स्त्री कैसे बन गये ? कबीर की अंतस्साधना ध्यान और प्रेम दोनों मार्गों से शुरू होती है । ध्यान पुरुषोचित मार्ग है और प्रेम स्त्रियोचित । इसलिए ध्यान मार्ग पर जब वे होते हैं तो योद्धा पुरुष की भांति दिखते हैं और जब प्रेम मार्ग पर होते हैं तो प्रेमपगी स्त्री बन जाते हैं । यहीं पर यह स्पष्ट कर दूं कि जैसे मनुष्य के दो रूप हैं स्त्री और पुरुष, वैसे ही गुण के भी दो प्रकार होते हैं– स्त्रियोचित और पुरुषोचित । जैसे — साहस, शौर्य, वीरता, कठोरता आदि पुरुषोचित गुण हैं और प्रेम, करुणा, दया, क्षमा, कोमलता आदि स्त्रियोचित । यह बात अलग है कि पुरुष वाले गुण स्त्रियों के पास हो सकते हैं और स्त्री वाले पुरुषों के पास ।
प्रेम करनेवाला पुरुष अगर गहराई से प्रेम कर रहा है तो वह स्त्री ही हो जाता है । समर्पण स्त्रियोचित गुण है । अगर समर्पण पूरा हो तो पुरुष स्त्री भाव में आ जाता है । यही कारण है कि कबीर स्त्री की मनोदशा में है ।
अब पंक्तियों का सामान्य अर्थ देख लेते हैं, फिर निहितार्थ की तरफ बढ़ेंगे — “मुझे नैहर अच्छा नहीं लग रहा है । पति का गांव कुछ खास (परम) है । उसकी सुंदरता की सीमा नहीं । वहाँ जो जाता है, वह लौटकर नहीं आता । हे मेरी सखि ! मैं ससुराल किस तरह जाऊं ? मुझे कौन वह रास्ता दिखायेगा ? सद्गुरु के समान अपना तो कोई हो नहीं सकता , जो उस रास्ते को दिखा दे !”
जब आदमी उपलब्ध जीवन में कुछ नहीं पाता और जो पाता है, वह असार मालूम पड़ता है, तब परम जीवन की खोज शुरू होती है । जिस व्यक्ति को इस संसार में रस मिल रहा है, उसके भीतर अलग रस की खोज नहीं जगती और न उसकी जरूरत है । हकीकत तो यह है कि मनुष्य कभी मनमाफिक सुख पाता ही नहीं, सुख की आशा में जीये चला जाता है । जिंदगी इसी में कट जाती है । “दो आरजू में कट गये, दो इंतजार में” । लेकिन कुछ आदमी, जिसकी प्यास प्रगाढ़ होती है, इस मृगतृष्णा को समझ लेता है और वास्तविक सुख के लिए तड़प उठता है ।
वह वास्तविक सुख कहाँ मिलेगा ? कबीर ने सुन रखा है कि साईं की नगरी में ही मिल सकता है । साईं की नगरी से तात्पर्य है समाधि । समाधि किसे कहते हैं ? उसका स्वरूप कैसा होता होगा ? जाननेवाले कहते हैं कि जहाँ किसी तरह की बेचैनी नहीं होती, न कोई प्रश्न रह जाता है, न कोई उत्तर । जहाँ एक महामौन है, एक सन्नाटा ! उसी सन्नाटे के भीतर से एक सुगंध उठती है, एक मधुर संगीत बजता है, एक रसधार बहती है । उस रस का अनुभव रोआँ-रोआँ करता है । उस रस में डुबकी लगाने वाला भला मृगतृष्णा के संसार में क्यों लौटेगा ? इसी को कबीर ने कहा है, —“जहं कोई जाय, न आवै” । इस अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति अपने जीवन की आखिरी मंजिल को छू लेता है । यहाँ आकर उसकी यात्रा समाप्त हो जाती है । अब पुनः जन्म लेने की जरूरत नहीं रह जाती । यह संसार तो अनुभवों से परिपक्व होकर समाधि को पाने के लिए ही निर्मित हुआ है ।
प्रश्न यह कि इसका रास्ता कौन बताये ? वही बता सकता है न जो इस रास्ते से गुजर चुका है ! जो समाधि को उपलब्ध है और दूसरों को भी उपलब्ध कराने में सहायक बन सकता है, उसे ही सद्गुरु कहते हैं । जिस समय असार संसार छूट रहा होता है और सार का आगमन न हुआ रहता है, उसी घड़ी में गुरु की आवश्यकता होती है । इसी समय गुरु की पुकार हृदय की गहराइयों से उठती है और गुरु का एक इशारा ही बहुत बड़ा सहायक बन जाता है । कबीर अपने अनुभव को साझा करना चाहते हैं ऐसे व्यक्ति के साथ जिनके भीतर ऐसी प्यास नहीं उठी है । तो वे कैसे समझेंगे कबीर की मनोदशा ? कबीर को भले ही सीधे न समझ पाये, लेकिन नैहर और ससुराल के रस से तो सभी परिचित हैं । इसीलिए यही उपमान उन्हें सटीक मालूम पड़ा ।
नैहर भी तो बड़ी रसीली जगह है । कबीर को भा क्यों नहीं रही है ? नैहर में माता है, पिता है, भाई-बहन है, सहेलियाँ हैं, उनके साथ अठखेलियाँ हैं । आनंद ही आनंद है ! यह बात सही है । लेकिन कबतक यह आनंद चलेगा ? तभी तक चलेगा, जबतक बचपन है । जवानी आते ही एक नयी प्यास आती है, जिसकी पूर्ति नैहर में संभव नहीं और साईं अगर हर तरह से मनभावन हो तो भरी जवानी में नैहर कैसे अच्छा लग सकता है ? कबीर के भीतर परम सुख की जो नयी प्यास उठी है, उसे यह रूपक कितनी खूबी के साथ प्रकट कर रहा है । जैसे नैहर और ससुराल इसी लोक की चीज है, उसी तरह क्षुद्र सुख और परम सुख इसी दृश्यमान संसार में उपलब्ध है । परलोक का मतलब अंतरिक्ष में पाया जानेवाला कोई अज्ञात लोक नहीं । इसी जीवन में प्राप्त होनेवाला अनुभव है जिसे कबीर ने पाया । नैहर का अर्थ एक अवस्था तक जीकर भोतिक सुखों को जान लेने के बाद उससे बड़े सुखों को पाने की प्यास है और ससुराल का अर्थ नृत्य करती हुई समाधि का सुख है ।
आलेख : मटुकनाथ चौधरी
( सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष हिंदी, पटना विश्वविद्यालय )
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