अगर कोई शख़्स कैंसर से जूझ रहा हो तो उसका ईलाज़ सिर्फ सिगरेट की डब्बी तोड़ देने भर से नहीं हो सकता । अगर सिगरेट ही उसकी बीमारी की वजह रही हो फिर भी नहीं बल्कि ईलाज़ का सही तरीक़ा ज़रूरी होता है ।
ठीक उसी तरह रेप के पीछे कोई भी मानसिकता हावी रही हो जब तक हम रेप को हिन्दू बनाम मुस्लिम या दलित बनाम ब्राह्मण न कहके औरत बनाम असभ्य समाज के तौर पर नहीं देखेंगे, ये ऐसे ही चलता रहेगा । हर रोज़ रेप हो रहे हैं, कइयों की तो ऐसी किस्मत भी नहीं कि ख़बर बन सके और जो ख़बर बनती है वो मन्दिर, मस्जिद की वजह से बनती है । अभी हाल ही में कठुआ रेप के ठीक विपरीत एक रेप होता है और फिर जश्न मनाने वाले ख़ेमे के लोग मातम मनाने लगते हैं और मातम वाले लोग जश्न । ये क्या सिलसिला है, कोई फुटबॉल मैच चल रहा है क्या के हमने गोल दाग दिए तो खुश हो लें ।
ये बांटने वाला खेल, औरतों को भी रेप के ख़िलाफ़ एकजुट नहीं होने देता जबकि किसी भी रेप के मामले में हर औरत और ख़ुद को सभ्य समझने और मानने वाले मर्द को एक साथ आवाज़ उठानी चाहिए । लेकिन हम तो दूसरे पाले में गोल होने का इंतज़ार करते रहते हैं ।
आप और हम जितनी ज़ल्दी इस बात को समझ लें, बेहतर है कि बेवक़ूफ़ी, जाहिलियत या दरिंदगी पर किसी एक क़ौम की मिल्कियत नहीं है । सो आप अपने जैसे नाम वालों को बचाने के बजाए उन्हें ही लताड़े तो बेहतर है क्योंकि पड़ोसी के घर की गंदगी पर हम सिर्फ़ राय ज़ाहिर कर सकते हैं, बुहार तो अपना ही घर सकते हैं लेकिन आज हम उस दौर में हैं कि जब पड़ोसी से ज़ियादा अपने घर को गंदा करके ख़ुश हो रहे हैं ।
आलेख : आदित्य भूषण मिश्रा
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