सोशल मीडिया का बढ़ता दबाव और ख़ुद को भुलाते हम !


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“यूँ तो हमारे ऊपर सोशल मीडिया का दबाव इस क़दर तक बढ़ चला है कि हम ख़ुद का हीं स्वाभाविक चाल चरित भूल गए हैं, किंतु हालात सोचनीय इस बात को लेकर है की इस होड़ में कई बार हम ख़ुद तक को धोखा देने लगते हैं”

सोशल मीडिया के प्रभाव ने हमें इस क़दर परेशान किया हुआ है की हम अपना चौदह आना वक़्त ख़ुद को दूसरों से बेहतर साबित करने में लगा रहे होते हैं. अब तो ये देखी सुनी बात है की अच्छी सेल्फ़ी या अच्छे बैकग्राउंड में तस्वीर खिंचवाने को जान तक देने को तैयार हो जाते हैं हम. किसी को दूसरे से बेहतर लोकेशन पर जा कर चेक आउट करना होता है तो कोई अलग दिखने को मुँह पर कालिख पोतने तक को तैयार है. कई लोग ख़ुद की प्रोफ़ायल को दूसरों की प्रोफ़ायल से बेहतर साबित करने को येल से भी ज़्यादा अजीब यूनिवर्सिटीयों की डिग्री दिखाते हैं तो कई ख़ुद को M D या फिर C E O बताते हैं… यहाँ ये दीगर बात है की उन्हें इन दो पदों का न तो मतलब पता है और न लिखना आता है.

आजकल एक नया ट्रेंड चला है ख़ुद के समाज सेवक होने का. जिस हिसाब से लोग रातों रात सोशल मीडिया के माचो नेता बन जा रहे हैं, समाज सेवकों का स्कोप बेहतर दिख रहा है. देश के ताज़े हालात और ख़ुद को मोदी से कम्पैरीज़न करने के भूत ने आजकल ऊटपटाँग लिख कर भी दूसरों से बेहतर साबित करने की होड़ बढ़ाई है. यदि आपके कथित बुद्धिजीवी मित्रों ने इस ऊटपटाँग बात को बहुत पसंद किया तो आप हीरो अन्यथा – “मेरा लिखा कम लोग समझ पाते हैं… लोगों में क्लास नहीं है समझने का…”

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इस भीड़ में मेरे जैसे कुछ भाई बंधू ऐसे भी हैं जो ठीक से सायकल चलाना तो नहीं जानते किंतु मँहगी और लक्सरी कार के सामने तस्वीर खिंचवा कर ख़ुद को BBT का मालिक साबित कर रहे होते हैं. यदि आप अपने दोस्तों की अपेक्षा कम लोकप्रिय हैं तो फिर ढलते सूरज, पेड़, सड़क, ग़रीबी, गाँव-देहात की तस्वीर लगाने को लोकप्रियता का क्रैश कोर्स हीं समझें. मुझे आजतक यह समझ नहीं आया की लोग मॉल में जाकर ख़रीदने के बजाय बड़े बड़े ब्राण्ड शॉप्स में तस्वीरें क्यों खिंचवाते हैं. हालाँकि इस सम्बंध में मेरे ताज़ा जवान हुए बेटे ने मुझे समझाया कि – ‘पापा कॉम्पटिशन… बग़ल वाली आंटी लास्ट टाइम ब्यूटी पार्लर से आई थीं तो उसी शो रूम के सामने सेल्फ़ी लेकर फ़ेसबुक पर लगाई थी… सो इस बार उनकी बारी…’

इस सम्बंध में मेरे पास कुछ और रोचक उदाहरण हैं. मैं नाम नहीं लिख पाउँगा किंतु घटनाएँ सच में रोचक है और इन सबका कारण भी एक मात्र – दूसरों से बेहतर होने का दबाव. जियो, फ़ेसबुक और इंस्टा के इस दौर में लोग ख़ुद को कहीं भूला आए हैं, या फिर किसी तक्खे पर लटका कर छोड़ आए हैं…. हम स्वयं क्या हैं, हमारे क्या गुण हैं, हम कितने समझदार हैं… ये सब मायने नहीं रखता अब. मायने रखता है तो बस यह की हम दूसरों से बेहतर दिखते हैं या नहीं… भले अंदर से बजबजायी हो, हमारी नाक दूसरों से ऊपर हुई की नहीं.

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एक शाम दफ़्तर से घर पहुँचते हीं जब मेरी बेटी मुझे थोड़ी परेशान दिखीं तो मेरे बार-बार कुरेदने पर कहती है – “पापा, प्लीज़ मम्मी को समझाओ न, सुबह स्कूल बस तक छोड़ने जाती है तो थोड़ा मेक अप कर ले… मेरी सहेली मेरा मज़ाक़ उड़ाएगी पापा…. ” और फिर वो सहेली की मम्मी का व्हाट्स एप डीपी दिखाते हुए कहती है – “देखो ये कितने अच्छे से फ़ोटो खिंचवाई है, और मम्मी का डीपी देखो… इतना सिंपल है” एक बार तो मेरे जी में आया की कह दूँ – ‘बेटा बंदरिया जैसी तो दिखती है ये आंटी तेरे मम्मी के सामने’ – लेकिन मैं ख़ुद और बेटी, दोनों के उम्र व इज़्ज़त का लिहाज़ कर चुप रहा.

एक और रोचक गाथा है. मुझे एक लड़की के लिए लड़का देखने की ज़िम्मेवारी मिली. लड़की मेरी बहन थी. कोरपोरेट ऑफ़िस के चोचलों की तरह मैं कई सारे लड़कों का आप्शन लाया लेकिन लड़की ने मेरे बॉस की तरह सबमें कुछ न कुछ कमी निकाल दी. मेरे बार-बार की कोशिशों से आजिज़ आकर…. मेरे चेहरे पर पसीना देख कर लड़की एक दिन बोली – “भैया आप न एकदम बुद्धू हैं… आउट डेटेड लड़का सबका ऑफ़र लेके आते हैं मेरे पास.. आप कभी सोचे हैं की जब उस लड़के के साथ हम अपना सेल्फ़ी ले के फेसबुक पर लगाएँगे तो मेरी सहेली सब क्या कहेगी… देखिए, ये देखिए इस लड़की का दूल्हा कितना स्मार्ट है, कितना जँच रहा है… और इसके सामने आप हैं की…. कुछ भी नहीं देखते ई सब” मैंने समझाने की कोशिश की – “लेकिन बहन मैं तो अच्छा सा सेट और चाल चरित्र वाला लड़का दिखा रहा था तुम्हें… तुम जिस लड़के का तस्वीर दिखा रही हो वो बाप के पैसे पर पल रहा है… शराबी… ” – लेकिन मुझे बोलने नहीं दिया गया. वो फिर बोल पड़ी – “देखिए भैया, ये सब तो मैं ठीक कर दूँगी उसका.. आप इसकी चिंता मत करिए… अरे आप काहे नहीं बुझते हैं की हम किसी का चेहरा हीरो जैसा नहीं बना सकते” मैं ख़ुद को ओल्ड फ़ैशंड बुज़ुर्ग टाइप समझ कर चुप रह गया.

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एक नए लड़के की कहानी है. वो मैट्रिक फ़ेल था और वो भी इतने अच्छे से की एक पन्ना हिंदी लिखने में उसे नींद आ जाती थी. चूँकि उम्र शादी वाली हो रही थी, उसे कोई नौकरी चाहिए थी. एक मित्र ने उसे सलाह दी – “देखो, एक अच्छे ग़ैरेज में लगवा देता हूँ, मैकेनिक का काम सीख लो. एक हुनर आ जाएगा तो कहीं भी अपना ग़ैरेज खोल कर कमा सकते हो” – भाई ने काम शुरू कर दिया और उससे पहले हमें फ़ेसबुक फ़्रेंड रिक्वेस्ट भी भेज दिया. लगभग हफ़्ते भर बाद वो शिकायत लेकर आया – “मैं नहीं करूँगा यह काम, काला पीला बहुत लगता है यहाँ…” आज वो एक जगह पिछले तीन साल से हेल्पर है… लेकिन फ़ेसबुक पर उसकी तस्वीरें एप्स के सहारे रणबीर सिंह को मात दे रही हैं.

पिछले साल गाँव गया था तो उस वक़्त अंतर स्नातक की परीक्षाएं चल रही थी. एक सम्बंधी के यहाँ बैठा था तो देखा एक घर में चार लड़के कम्प्यूटर के पास खड़े हैं. उनमें से एक अपना डीपी बदल रहा था और बाँकि तीन उसे एडिटिंग और कैप्शन पर सलाह दे रहे थे. मैंने कहा – “अरे इग्ज़ैम ख़त्म हो जाए फिर चलाना ये सब. अभी अगर अपडेट नहीं करोगे तो क्या चला जाएगा.. इग्ज़ैम दुबारा थोड़े न आएगा” – एक भाई ने छूटते हीं जवाब दिया था – “भैया देखिए अंशुआ को, पटना में पढ़ रहा है.. उसका भी इग्ज़ैम है, कल हीं डीपी बदला है… और वो रॉकी… दिल्ली वाला, रोज़ डीपी बदलता है” मैं चुपचाप वहाँ से निकल लिया.

इन सभी वाकयों में मैंने महसूस किया की हमारे जीवन में सोशल मीडिया के दबाव ने हमें ख़ुद को ख़ुद से अलग कर दिया है. हमारे बेहतरी के पैमाने स्टेटस, लाइक कमेंट, मेंशन, तस्वीरों आदि के खोखले टशन मात्र बन गए हैं. पढ़ाई और चरित्र से ऊपर हमारा खोखलापन हो गया जहाँ पेट के दाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण डेटा पैक है. साहित्य पढ़ना, आउट डोर गेम खेलना, अपनों से संवाद करना यह सब जिस हिसाब से कम होता जा रहा है, मुझे डर है कि यदि किसी ने हमें इस नक़ली चमक दमक की दुनियाँ से जल्दी अलग नहीं किया तो हम पूर्णत: ग़ुलाम न हो जाएँ.


लेखक : प्रवीण कुमार झा


 

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