बालकनी के प्रेम कथा का निर्दयी अंत


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दिसम्बर के धुप में यूँ ही बालकनी के दूसरी तरफ मुड़ बैठ गया था | बादलों के बीच सूरज की आँख मिचौली में बालकनी की ठंडी हवा मन को मोह रही थी | एकाएक नजरें उठी और दूर के बालकनी पर जाकर अटक गई | एक खूबसूरत जवान कन्या !

जवानी के पहले पराव को पार कर चुकी वह कोई 22-25 साल के आसपास की रही होगी | उम्र के इस पराव पर ऐसी हसीन खूबसूरत कन्या को देख मन का रोमांटिक होना लाजमी है | ऊपर से लाल सलवार कमीज पहने वो हमारी ही तरफ तो देखे जा रही थी | उसकी खूबसूरती ने गुनगुनी धूप के आनंद को चौगुना कर दिया | उस काले निर्जन से  बालकनी में अकेले खड़ी अपने ख्यालों में खोई, अपनी अलग दुनिया में मशगुल उसके गोरे-गोरे फूले हुए गाल और बड़े-बड़े नैन उसकी खूबसूरती की कहानी वयानं कर रही थी |

इधर इस बालकनी में मेरे दिल की धड़कन पता नहीं क्यों असमान रूप से बढ़ती जा रही थी | पूरी हाथों की चूड़ीदार सलवार पहने, सलीके से लपेटे हुए लाल रंग के दुपट्टे, काले लंबे बाल, भरे हुए तन बदन, हाय रब्बा इस रूप रंग का और क्या वर्णन करूँ | पुरी तन्मन्यता से रब ने उसे बनाया था | किसी को भी उसका रूप-रंग, नैन-नक्श दीवाना बना ले, तो मैं भी जवान ही न ठहरा ! नजर भी असामान्य रूप से उसकी तरफ से हट ही नहीं पा रहा था | वह भी तो सब कुछ जानती समझती भरी नजरों से हमारी ही तो इनायत कर रही थी | थोड़ी सी विचलित होती तो एक छोटा सा काला मोबाइल निकाल उस पर नजरें फेर लिया करती और फिर वही आँखों का रस पान |

कुछ पल में ही हमारी हिम्मत इतनी बढ़ गई कि आंखों का मिलन टकराव का न्योता देने लगा | उस निर्जन बालकनी के टूटे से गेट और पानी का सिंटेक्स मानो हमारे प्रेम का गवाह बन फोटोशूट करने लगे | इधर उसके खिलते हुए बदन की खूबसूरती की कहानियाँ कोड़े कागज पर उतार रहे मेरे कलम रुकने का नाम नहीं ले रहा था | नजरों की भिरंत दूरियाँ पाटती जा रही थी, एक पल के लिये लगा कि हमने प्रेम के पहले बंधन को लांघ लिया है | दिल की धमनियां बेकाबू हो हर सीमा तोड़ने को मचलने लगी | लेकिन फिर उसने गजब की हिम्मत दिखाई | उसे समझ आ गया था कि वो अपने मर्यादा को लाँघ चुकी है | पल भर भी नहीं लगा और वो उस टूटे दरवाजे में विलीन सी हो गई थी | पनपने से पहले ही उस प्रेम कथा का निर्दयी अंत हो गया था | फिर मिलेंगे बालकनी से !


लेखक : अविनाश भारद्वाज 

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