“कवियत्री भारती झा की पाँच कविताएँ” भारती झा दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा हैं । साहित्य में रूचि रखती हैं, हिंदी तथा मैथिली में निरंतर कविताएँ लिखती हैं । आईये विचारबिंदु के इस अंक में पढ़ते हैं इनकी हिंदी की कविताएँ ।
“भारत की दुर्दशा “
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भारत की दुर्दशा देखकर,
अन्तर मन से रोती हूँ,
काव्य कला के शब्द अर्थ से ,
‘गम’ को आज पिरोती हूँ।।
भारत की दुर्दशा देखकर ….
देखा और सुना हम सबने ,
कन्धे से शव ढोया है!
अपनी मृत पत्नी को लेकर,
फूट फूट कर रोया है।
क्या समाज ने किया अरे यह
सोच सोच कर रोती हूँ।।
भारत की दुर्दशा देखकर…..
वसुधा ही अपना कुटुंब है ,
देते हम ऐसे नारे
चोटिल घायल पड़े सड़क पर,
उन्हें देखते गलियारे।
हाय ! कहाँ खो गई मनुजता ?
दिखती नहीं तो रोती हूँ ।।
भारत की दुर्दशा देखकर……
हैं अभाव मैं अब भी मानव ,
जो गम को पीते हैं
जिनके पास न धन अनाज है ,
धन दौलत से रीते है।
वे अब भी भुखे प्यासे
मरते भारत देख मैं रोती हूँ।।
भारत की दुर्दशा देखकर…..
चंद टकों के खातिर अब भी ,
होते हैं उपचार नहीं
जिसके कारण मरते मानव ,
सोई है सरकार कहीं।
अवसर देख सभी दानव ,
बन जाते हैं मैं रोती हूँ।।
भारत की दुर्दशा देखकर…….
जिस मात पिता से सृष्टि देखते ,
आज उन्हीं को माना बोझ
नारी शक्ति के नारे कर कर,
चीर हरण करते कुछ लोग।
अग्नि परीक्षा देती नारी को
देख देख मैं रोती हूँ।।
भारत की दुर्दशा देखकर…..
थे ऐसे भारत सपूत
जिनने समाज हित काम किया,
भारत के गौरव विकास हित
अपना ही बलिदान दिया।
हाँ ,ऐसे सैनिक भारत के
देश हितों में रहते हैं।
सीमा की रक्षा करते वो
गोली खा-खाकर मरते हैं।
उन बलिदानों को व्यर्थ देख
हाँ हाँ हाँ मैं रोती हूँ।।
भारत की दुर्दशा देखकर…..
✍ भारती झा
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“प्रेम तुम्हीं से करती हूँ”
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बैठकर तेरे स्नेह सेज पर
मैं प्रेमग्रंथ को पढ़ती हूँ ,
हर पन्नों पर लिखा यही है
मैं प्रेम तुम्हीं से करती हूँ ।
आँखे झिलमिल काली रातें
भूल चुकी सारी बातें ,
देख के तेरी भोली आँखे
खिलखिलाकर हँसती हूँ।
हर पन्नों पर……………
बीन तेरे ये रोती आँखे
तपती और बिलखती साँसें ,
किसे कहूँ मैं दिल की बातें
ये दर्द विरह की सहती हूँ ।
हर पन्नों पर…………….
मेरे अंतर मन में वास बनाकर
अपनापन का एहसास दिलाकर ,
कहाँ बैठा तुँ छोड़कर मुझको
हरपल इसी द्वन्द में रहती हूँ ।
हर पन्नों पर………………
अपनी बाँहों में तुझे सुला लूँ
काली-घनघोर जुल्फें सेहला दूँ ,
काश कभी ऐसा भी होता
मैं बस यही सोचती रहती हूँ ।
हर पन्नों पर……………….
✍’भारती झा’
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” नशा”
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पीने वाले सोच जरा, तुम किस अभाव में पीते हो।
अपनों को तुम छोड़, सुराओं के ऊपर जीते हो।
कहां तुम्हारे बीवी बच्चे, मात पिता अपना भाई।
सबसे नाता तोड़ , नशे में डूबे रहते हो भाई।
अरे शराबी देख जगत, ये कितना सुंदर लगता है।
कुदरत को पहचान अभागे, क्यों नशे में डूबा रहता है।
अपनापन सम्बन्ध अनोखा, इसे निभाना सीखो।
जीवन पथ पर स्वर्णिम अक्षर से ,निज चिन्हों को लिखो।
आए हो जग में तो ,अच्छा संसारी बन जी लो।
छोड़ नशा को प्रेम पंथ पर, स्नेह सुधा रस पी लो।
अपने में ही पीकर रहें मस्त, ये जीवन क्या जीवन है।
नशा छोड़ देखों आंखों से , जग एक सुंदरवन है।
✍ भारती झा
ये आंखें
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1.
आज मैंने
आंखों की गहराई
मापने की कोशिश की
काश….मैं माशूका होती……..।
2.
आज मैंने
आंखें पढ़ने की
कोशिश की
काश….मैं राजदार होती……….।
3.
आज मैंने
आंखों में आंसू
लाने की कोशिश की
काश….मैं विरहन होती………।
4.
आज मैंने
आंखों से चाहत की
किताब पलटी
काश….मैं पैंसिल होती……….।
5.
आज मैंने
ख्वाब मे सिमटने की
कोशिश की
काश….मैं जीती-जागती आंख होती……..।
✍भारती झा
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हाय!!… कैसी है ये आँखे…
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आज मैंने
आँखों की गहराई
मापने की कोशिश की।
काश मैं वो दूरबीन होती ,
जो आँखो की गहराई माप सकती ॥
ये आँखे ही है
जो कई राज़ को
अपने-आप में समाए है ।
पारिस्थितियाँ कैसी भी हो
अपने ही स्थान पर अडिग रहती है ॥
हाय!!…. कैसी है………..
चाहे दुखों का पहाड़ हो
या खुशी की फुहार हो
किसी घटना की तस्वीर हो
या अपनी ही तकदीर हो
बड़ी ही खामोशी से
देखती रहती है आँखे ॥
हाय!!…. कैसी है…………
किसी के लिए प्यार हो
या अपनी चाहत बेशुमार हो
अपनी हालात लाचार हो
या दिल बेकरार हो
किसी से कूछ भी नही
कहती है ये आँखे ॥
हाय!!…. कैसी है……….
आँखें…..
ये मेरी प्यारी सी आँखें
निशब्द स्थिर रहती हैं
सब दर्द सहती है
बड़ी ही मासूम है न
ये आँखे ॥
हाय!!…. कैसी हैं……..
दुःखों को अशरू में बहा कर
खुद से ही खुद को समझाकर
हर परिस्थिति को गले लगाकर
अपने ही जगह पे
खरी रहती है ये आँखे ॥
हाय!!… कैसी है………
अपनी खुशियों को
आँखों की चमक बनाकर
खुश रहती हैं ये आँखें
हाय कैसी हैं ये आँखें….
प्यार में ढुब जाती हैं ये आँखें ॥
हाय!!.. कैसी है………
घटना की तस्वीर को बनाकर,
फिर भी शांत हैं ये आँखें,
हाय कैसी हैं ये आँखें……
चशमदीद हैं ये आँखें,
फिर भी शांत हैं ये आँखें॥
हाय!!… कैसी है…….
ये आँखें…..
“भारती झा”
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