“बोए जाते हैं बेटे, उग जाती है बेटियाँ”, विचार बिंदु के इस अंक में प्रस्तुत है दिल्ली विश्व-विद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर कर रहीं रचना झा का आलेख “बेटियाँ” ।
बोए जाते हैं बेटे, उग जाती है बेटियाँ।
खाद-पानी बेटों में, लहराती है बेटियाँ।
एवरेस्ट पर धकेले जाते हैं बेटे,
चढ़ जाती हैं बेटियाँ।
पढ़ाए जाते हैं बेटे,
पर सफलता पाती है बेटियाँ।
कुछ भी कहें पर अच्छी हैं बेटियाँ।।
नारी धरती का एक अनमोल हिस्सा है । ना जाने धरती पर इनके बलिदानों और कुर्बानियों पर कितनी कहानियां, गाने और कविताएँ लिखी गई है । नारी ना होती तो शायद धरती पर मनुष्य नाम का पक्षी भी नहीं होता । नारी कोई दिखाने वाली या फिर कोने में रखने वाली चीज नहीं है । नारी चाहे किसी भी सदी की हो, चाहे वो पढ़ी-लिखी या फिर गरीब-निर्धन हो, वो अपने आपको कितना भी आज़ाद व समझदार क्यों ना समझती हो, पर सच्चाई तो यही है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद आज भी नारी आज़ाद या सुरक्षित नहीं है ।
यूँ तो हमारे देश में भ्रूण हत्या सामाजिक समस्या के रूप में विद्यमान थी ही, परंतु आज की पीढ़ी की सोच और गिरते नैतिक स्तर ने इसे और हवा दे दी । जिसकी वजह से यह हमारे समाज में पूरी तरह से पाँव पसार चुका है ।
जीने का हक़ सभी को है और प्राण लेने का हक़ तो किसी को हरगिज़ भी नहीं । वो भी किसी मासूम या निर्दोष ज़िन्दगी को ख़त्म करने का तो बिलकुल भी नहीं ।
वह अजन्मी बच्ची, जिसकी हत्या की जा रही है….उनमें से कोई कल्पना चावला, कोई लता मंगेशकर, कोई पी०टी० उषा तो कोई मदर टेरेसा भी हो सकती थी । आपको याद होगा…..जब कल्पना चावला ने अंतरिक्ष में जाकर देश को समूचे विश्व में एक नयी पहचान दिलाई, तब हर भारतीय को कितना गर्व महसूस हुआ था । ज़रा सोचिये….. अगर कल्पना चावला के माता-पिता ने भी गर्भ में ही उसकी हत्या करवा दी होती, तो क्या आज भारत को ये मुकाम हासिल हो पाता ?
अगर हम आज के परिपेक्ष्य में बात करें तो आज हाल यह है कि एक लड़की की शादी में अमूमन 6-7 लाख से अधिक का खर्च आता है । जिसे एकदम निम्न श्रेणी का किफायती विवाह कह सकते हैं । अब सोचने वाली बात यह है कि क्या एक साधारण सामान्य व्यक्ति इस खर्च को उठाने की हिम्मत जुटा सकता है । जिसकी आमदनी महज़ 6 से 10 हज़ार रुपये महीने हो । ऐसा व्यक्ति क्या खायेगा ? क्या पहनेगा ? कैसे अपना जीवन बचाएगा ? और फिर क्या वो इस दुनिया में सिर्फ इसलिए आया है कि केवल तकलीफें झेले और आराम या मौज-मस्ती के बारे में सोचे भी ना ।
अब अगर एक पिता की नज़र से देखें तो… पहले तो एक कन्या को जन्म दीजिये, फिर उसकी परवरिश कीजिये । और फिर परवरिश भी तो ऐसे ही नहीं हो जाती । इसमें भी पैसे तिल-तिल करके खर्च करने पड़ते हैं और फिर पढाई का खर्च मार डालती है । इस महंगाई की दौर में किस तरह की महंगी पढाई है, ये बात तो किसी से भी छुपी नहीं है । अब बात आती है लड़कियों के सुरक्षा की… लड़कियों की सुरक्षा करना एक जहमत भरा काम है । पता नहीं कब किसकी बुरी नज़र लग जाए । कुछ भी शारीरिक या यौन उत्पीड़न हो सकता है । कोई भी अभिभावक यह कैसे सहन कर सकता है ? वो डरते हैं इस सामजिक बुराई से । शायद यही वजह है कि वो भ्रूण हत्या जैसी घिनौनी घटना को अंज़ाम देते हैं… वरना अपनी संतान तो अमीर से लेकर गरीब तक, हर किसी को प्यारा होता है । परंतु यह महंगाई और सामाजिक कुरीतियां उसे एक और सामाजिक कुरीति करने पर विवश कर देता है । वरना जीवन की हर समस्या से छुटकारा पाने के लिए देवी की आराधना करने वाला भारतीय समाज कन्या जन्म को अभिशाप क्यों मानता भला ?
इस संकीर्ण मानसिकता की उपज की वजह है दहेज़ रुपी दानव, सामाजिक कुरीतियां एवं समाज का गिरता नैतिक स्तर।
मगर अब यहाँ पर सवाल यह उठता है कि दहेज या फिर किसी अन्य समाजिक कुरीतियों के डर से हत्या जैसा घृणित और निकृष्ट अपराध कहाँ तक उचित है ? अगर कुछ उचित है तो वो है – दहेज़ रुपी दानव एवं सामाजिक कुरीतियों का जड़मूल से खात्मा । एक दानव के डर से दूसरा दानविक कार्य करना एक जघन्य अपराध है ।
वैसे भी किसी ने ठीक ही कहा है-
“आज बेटी नहीं बचाओगे,
तो कल माँ कहाँ से पाओगे।”
निवेदन : प्रिय पाठक वृंद यह content ( “बेटियाँ” ) , आपको कैसा लगा आपकी प्रतिक्रिया एवं बहुमूल्य सुझाव अपेक्षित है ।
Must read : मानने से क्या होता है, बेटा तो चाहिये / दहेज / ससुराल भी अपनी घर जैसी / “ईश्वर क्यों चुप है” / तुष्टीकरण / एक चुटकी ज़हर रोजाना /
Leave a Reply