“दुःख के कारण तुम हो, तुम्हारे सुख के कारण तुम हो और दूसरों को दुःख देने से तुम कभी सुख न पा सकोगे । दूसरों को सताने से तुम कभी उत्सव न मना सकोगे ।”
वैर से वैर शांत नहीं होता, अवैर से शांत होता है । अवैर बरस जाए, वैर शांत हो जाता है । जो यह समझ ले, उसके जीवन में कोई दुःख नहीं है । उसका स्वर्ग, कल नहीं, अभी और यही है ।
यह संसार थोड़ी देर का बसेरा है, रैन बसेरा । सुबह हुई और यात्री चल पड़ेंगे । जिसे हमने घर समझा है, वह तंबू है । कभी भी उखाड़ने का वक्त आ सकता है । जिसने यह समझ लिया, उसे जीने का ढंग आ गया । क्षण भर का खेल है, फिर किसी को दुःख क्या देना ?
लोग ऐसे जीते हैं, जैसे सदा यहाँ रहना है । इसी से भूल होती है । जो इसे समझ गए, उनके दुःख समाप्त हो जाते हैं ।
बुद्ध का धर्म ध्यान का धर्म है । परात्मा, आत्मा, मोक्ष – ए शब्द बुद्ध के लिए पराये हैं । वे मन को खंड-खंड करते हैं, क्योंकि हमारा मन ही सारी समस्याओँ का जड़ है । अगर मन से हम जाग गए, तो वह सब पा लेंगें, जो उपनिषद, वेद, कुरान में कहा गया है ।
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बुद्ध ने परमात्मा के बिना ध्यान की विधि दी । आत्मा की धरना को भी ध्यान के लिए आवश्यक न माना उनके अनुसार ध्यान स्वस्थ है, वे हमें निरोग करने आये हैं । मनुष्य के लिए बुद्ध एक मानस-चिकित्सा की तरह हैं ।
उन्होंने चार आर्य सत्य की घोषणा की- मनुष्य दुःख में है । दुःख का कारण है । दुःख के कारण को मिटाया जा सकता है । सत्य की एक दशा ऐसी भी है जब दुःख नहीं रह जाता ।
जीवन का रस वस्तु में नहीं, स्वयं हम में है । जब तक हम उसे विषय में देखेंगे, भटकते रहेंगे । जब हम देखना शुरु करेंगे की वह मुझमें ही है, वह मैनें ही डाला है वस्तु में, उसी दिन जीवन में क्रांति शुरु हो जाएगी ।
अंतर्यात्रा को बुद्ध ने योग कहा है । सबल होने की कला योग है । इन्द्रीओं का उपयोग संयम से भरा हो । बुद्ध के अनुसार चार कदम से आगे देखने की आवश्यकता नहीं है । इतना चलने के लिए पर्याप्त है इसे वह संयम कहते हैं ।
जो सुनने योग्य नहीं है, उसे सुनना नहीं । जो छूने योग्य नहीं है, उसे छूना मत । जितना जीवन में जरूरी है, उसके पार मत जाना । जीवन मैं शांति की वर्षा होने लगेगी ।
Very very good words