जब पहली बार मेरा परिचय “पेपर लीक” शब्द से हुआ


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मैं अभी कंबाइंड ग्रेजुएट लेवल टायर- टू की परीक्षा से निकला ही था कि देखा कुछ परीक्षार्थी ग्रुप बनाकर मोबाइल में व्यग्रता से झांकते उसमें घुसे जा रहे थे। उनके चेहरे पर निराशाजनित आक्रमकता थी जो शनैः शनैः उनके क्रियाकलापों पर हावी होता जा रहा था।

मेरा हृदय प्रत्याशित आशंका से तेजी से कांप उठा। अपरिचितों के साथ बात कर लेना कभी मुश्किल नहीं लगा मुझे । कोई झिझक नहीं होती । परीक्षा केन्द्र पर तो और भी सभी अपने ही प्रतिरूप लगते। नितांत सगे से। मैंने पूछा- ‘क्या हुआ?’ किसी ने कहा – “खुद ही देख लो।” एग्जाम पेपर के स्क्रीनशॉट वहां मौजूद थे। क्षण भर में ही एग्जाम के बेहतर जाने की आंतरिक खुशी काफूर हो गई।मैं उल्टे पाँव लौटने लगा। मेरी सारी ज्ञानेंद्रियाँ कंपकपा कर मेरा साथ छोड़ने लगी। ना मैं सही से कुछ देख पा रहा था ना ही मैं कुछ सुन पा रहा था। मेरे थके कदम किधर जा रहे थे मुझे इसका कुछ भी होश नहीं था। क्षणांश बीतते- बीतते पेट में भयानक मरोड़ उठने लगा। अंधेरा और गहराता गया। फुटपाथ पर पेड़ के नीचे बने प्लास्टर पर मैं बैठना चाहा पर बैठना संभव ना हो सका। अस्त-व्यस्त सा जूता सहित में वही लेट गया थोड़ी राहत मिली। ये परिस्थितियाँ अब कितनी अपनी,कितनी चीर परिचित लगने लगी थी। गाहे-बगाहे इससे साक्षात्कार होता रहता। परंतु तभी एक पुलिस ने लाठी से कोंचकर मुझे उठाया और सख्त लहजे में डांटा। “ऐसे क्यों पड़े हो दिखता नहीं थाना है सामने।” सचमुच मैं उज्जड देहाती सा बेतरतीब पड़ा था जिसे मैं स्वयं भी स्वीकार नहीं कर सकता था। मैंने तबीयत खराब होने की बात बताई। उसने फिर मुझे अस्पृश्य सा हिराकत भरी नजरों से देखा और जबरन चिल्ला कर कहा- “जा जाकर कहीं और मर।” बगल में गन्ना का रस बिक रहा था। वही जाकर गन्ने का रस पीने लगा। मैंने सुन रखा था ये त्वरित ऊर्जा देता है। गन्ने का रस पीकर अब मैं कुछ स्वस्थ महसूस कर रहा था। चेतना धीरे-धीरे लौटने लगी थी। मैंने पूरे धटनाक्रम को सूत्र में पीरोने की कोशिश की। ये तो गनीमत था उसने मेरा परिचय नहीं पूछा वरणा किस मुंह से मैं अपने को पटना यूनिवर्सिटी का स्नातक बताता। मैं जल्दी से जल्दी अपने आठ वाई आठ के थ्री सीटेड कमरे में लौट जाना चाहता था। बिल्कुल असंग होकर ही मैं वर्तमान स्थिति से उबर सकता था। सपनों के बिखरने की मर्मांतक पीड़ा सहना ही अब हमारी नयति थी और हर बार की तरह इस बार भी मन नई आशा के खूंटे से बंधने को बेचैन हो रहा था। पर अब नहीं बहुत हुआ। आटो को पकड़ते-छोड़ते, लटकते – फटकते मैं अपने रूम की ओर बढ़ा।

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अपने बिस्तर पर लेटा मैं आत्मचिंतन में डूब गया। जहां तक पीछे जा सकता था गया। पढ़ने में मैं ठीक ही था परंतु परीक्षाफल से मैं कभी अपने अभिभावकों को खुश नहीं कर सका, जबकि मेरे नंबर पूर्णांक से केवल उतना ही कम रहते थे जितना परीक्षकों का विशेषाधिकार माना जा सकता है। उन्हें खुश करने की चाहत में मैं पाठ्यक्रम में उत्तरोत्तर डूबता गया परंतु फिर भी वह दिन कभी ना आए। होते- हवाते मैं बोर्ड की परीक्षा तक पहुंचा जहाँ पहली बार मेरा परिचय “पेपर लीक” शब्द से हुआ। फिर तो उसका परास बढ़ता ही गया। बारहवीं बीतते बीतते मैं लूजर हो चुका था। अभिभावक का मुझपर किया गया निवेश ढूब चुका था। मुझसे पूरी तरह निराश हो चुके थे वे। अब तो मैं एक मजबूर- वसूली था। परंतु हर एक किस्त मेरे अर्धविकसित स्वाभिमान पर करारी कील ठोक जाते। मैं इससे उऋण होना चाहता था। जल्दी से जल्दी। जितनी जल्दी हो सके।

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कॉलेज लाइफ क्या होती है मैं नहीं जानता। प्रेम के कोमल संस्पर्श से अबतक अपरिचित था मैं। हर एक निकलने वाली भर्तियाँ मेरे लिए एक अप्रत्याशित अवसर था। जिसकी कोई तालिका नहीं थी। कोई सांतत्य नहीं था और ना ही था कोई समयबद्धता। इस प्रकार से पूरी की पूरी ये भर्तियाँ संयोग ही कहा जाए। भारत के इस कोने से उस कोने को भागता मैं अपनी जवानी गला रहा था। परीक्षा के विभिन्न चरणों की तिलस्म तोड़ने की असफलता के क्रम में पहले मेरा विश्वास अपने संविधान के अनुच्छेदों से जाता रहा जब देखता कि इस के मकड़जाल में सीटें रिक्त रह जाती पर कोई कुछ करने को तैयार ना था। राजनीतिक दल का फंडा भी समझ से बाहर था कि निरंतर कम होते काम करने वाले हाथ कैसे चुस्त प्रशासन ला सकते हैं। साक्षात्कार इतना कम अंक का होते हुए भी कैसे योजनाबद्ध तरीके से निर्णायक हो जाता है। यह बहुत बाद में समझ आया। एक अदद नौकरी की तलाश में समय के साथ धीरे-धीरे मैं गहरे अवसाद में पहुंच गया पर इसकी जिम्मेदारी किस पर आयत की जा सकती थी पता ही नहीं चला। जिंदगी जीने के लिए इतना कठिन संघर्ष तो कभी नहीं था। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में तो बिना किसी हील-हुज्जत के सभी खप जाते थे। विकास की ये कैसी योजना बनाई है हमने।

आज मैं नौकरी पाने की उम्र के अंतिम दहलीज पर खड़ा हूँ। एक – एक परीक्षा मेरे लिए जीवन मरण का प्रश्न लेकर सामने आता है। ऐसे परिवेश में यह केवल एक स्कैम भर नहीं है यह हम जैसों को अपने पैर पर खड़े होने के खिलाफ एक साजिश है। जीवन जीने की लालसा की हत्या है।


आलेख : निशिकांत ठाकुर

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