पाल वाली नाव (भाग – 02)


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पोखर से पूरबारी बाध की तरफ जाने के लिए मैंने फोरी में नाव को डाल दिया जिसकी चौड़ाई तकरीबन तीस फीट थी। दोनों तरफ खरही लगे हुए थे जिस का कुछ भाग पानी में तो कुछ भाग पानी से ऊपर था।

इस इलाके में खरही भी कितनी जल्दी बढ़ जाया करती है और कितनी बड़ी होती है कहा न जाए। नेपथ्य से आती मेंढकों की टर्राहटें, हवाओं का शोर, रह-रहकर कौंधती तड़ित प्रकाश एवं उसका गर्जन अजीब तरह की समां बांध रखे था। सबकुछ स्वप्निल सा लग रहा था। हंसी-ठट्ठा करते हम लोग बाईं तरफ से बढ़े चले जा रहे थे। हवाओं के झोंके से खरही नाव की तरफ झुक जाया करता था और नाव में बैठे लोगों के शरीर स्पर्श के लिए उतावला हो उठता था। अनचाहे स्पर्श से हमारा गैंग भन्ना जाता। सभी मुझसे नाव को फोरी के बीच में चलाने को कहा। 


मैंने ज्यों ही नाव को दाहिनी ओर काटना शुरू किया कि दाहिनी ओर से तेजी से पानी के ऊपरी सतह पर तैरते हुए गंगुआरि सांप नाव की ओर झपटा मानो उसे ऐसे ही मौके की तलाश थी। (मैं उसका बायोलाॅजिकल नाम नहीं जानता और ना ही प्रचलित नाम। जिस किसी को इसके विषय में ज्यादा जानकारी हो साझा करेंगे। कमेंट में चित्र दे रहा हूं।) पानी के पृष्ठ पर उसका आठ-दस फीट लंबा शरीर जो चौड़े- चौड़े पीले (लेमन येलो) और काले वलयों से बना था दिखा। साक्षात काल सा लगा। उसके तैरने के ढ़ंग बता रहा था कि ये स्थलजीवी है। मैंने सुन रखा था यह बेहद लज्जालू किस्म के होते हैं परंतु यहां बिल्कुल उल्टा था। मेरे होश उड़ गए, कलेजा मुंह को आ गया, चेतना सुषुप्त होने लग गई। अवचेतन से संचालित मेरे हाथ स्वत: लग्गी से उस पर प्रहार किया। साँप भी ऐसी किसी परिस्थिति के लिए पूर्णत: तैयार था। पता नहीं कैसे उसने मुँह खोलकर लग्गे को अपने जबड़े में जकड़ लिया और तत्क्षण अपने पूरे धर को उल्टा हमारी तरफ फेंककर लग्गे से लपेट दिया। दूरियां घट गई। सांप के शल्क भी स्पष्ट दिखने लगे। उसका रंग धूसर नहीं अपितु अतिशय चमक लिए हुए था। लग्गी के सहारे वह पीछे की ओर सरकने लगा। दूरियां कम होने लगी। मैं लग्गी को पानी के पृष्ठ पर पटकने लगा परंतु उसका पूरा धर पानी के पृष्ठ से टकरा भी नहीं पा रहा था बस केवल अगले भाग पर ही प्रहार हो रहा था जिसे वह जीवटता के साथ झेले जा रहा था। विकट स्थिति थी। मुझे अपनी धड़कनों की तीव्रता और आवाज साफ- साफ महसूस हो रही थी। लगता था प्राण धड़कन के रास्ते निकलने को अमादा है। नाव पर खलबली मच गई जिससे नाव अपना संतुलन खोने लगा। सबों के दाहिनी ओर आ जाने से नाव दाहिनी ओर झुक गया और नाव के ऊपरी बीट से नाव में पानी का रेला प्रवेश कर गया। सब ने अपनी स्थिति तुरंत सुधार ली। नाव फिर से संतुलन में था। मेरे गैंग के श्रीकृष्ण को बुद्धि आई और नाव में रखी दूसरी लग्गी को उसने तत्परता से उठाया और लग्गी पर लग्गी का प्रहार करने लगा। सांप तिलमिला उठा। लग्गी से साँप ने अपने शरीर को छुड़ा कर फिर से पानी में आ गया। पुनः उसने एक बार नाव की ओर झपटा परंतु दो- दो लग्गी के प्रहार से वापस उस ओर भागा जिस ओर से आया था। सबकी सांसे लौट आई।

मैं अन्यमनस्कता से नाव चलाने लगा। एक ने नाव में भर आए पानी को उपछना शुरू कर दिया। उधर साँप की चर्चा जोरों पर थी। इस इलाके में भी यह सांप लगभग लुप्तप्राय ही था। कभी कभार ही दिख जाता था। कोई इसे विषहीन करार दे रहा था तो दूसरा इसे विषधर का भक्षण करने वाला बता रहा था। इस साँप के विषय में आम धारणा थी कि यह बेहद शर्मीले और सुस्त होते हैं और अपने समाज में पूजनीय है। पर ये यहाँ तो मुझे कतई सुस्त न दिखे। मैंने तो इतने बड़े और मोटे अजगर भी चिड़ियाघर में नहीं देखे थे। मुझे छोड़कर जल्द ही सभी इस हादसे से उबर चुके थे।

अब हम लोग फोरी से निकलकर खुले बाध में आ गए थे। सहरसा से आने वाली हवाओं के थपेड़ों का एहसास मुझे काफी सुखद लगा। मेघों का रंग भी थोड़ा और मद्धिम हो गया था। बिजली चमकना भी थोड़ी कम हो गई थी पर बूंदाबांदी क्रमशः थोड़ी तेज होती जा रही थी। हवाओं के प्रभाव में बनते ढ़ेह (उर्मियाँ) जो दो मीटर उँचाई तक पहुंच रहे थे । ढ़ेह के साथ नाव का एकाएक पटका जाना काफी मजा दे रहा था। ढ़ेह की दिशा के विपरीत नाव चलाने के कारण माईन से टकराते पानी के छींटों में भीगना विलक्षण अनुभव था। परंतु नाव मुझसे आगे नहीं बढ़ पा रहा था क्योंकि जितनी देर में मैं लग्गी को पानी में तल तक ले जाकर नाव को आगे बढ़ाने का उपक्रम करता उतनी ही देर में हवा और ढ़ेह के प्रभाव में नाव उतना ही पीछे हो जाती । मैं जल्द ही पूरी तरह से थक गया।नाव का आगे नहीं बढ़ना मेरे गैंग के सबसे बलिष्ठ मेंबर को अपनी शान में गुस्ताखी लगा और लहरों की चुनौती स्वीकार करते हुए उसने मुझसे लग्गी लेकर पिछले माईन पर जा चढ़ा।

मैं चुपचाप आकर अगले माईन पर बैठ गया। नाव आगे बढ़ने लगी ऊपर की बरसा और नीचे के ढ़ेह के छींटों में भीगता मैं चारों और देखने लगा। दूर- दूर के गांव द्वीप बने ठीक उसी प्रकार दिखते जैसे प्राथमिक कक्षाओं में हम लोग के बनाए चित्र हुआ करते थे। हम लोग और प्रकृति एकाकार थे। मुझे नवपाषाण कालीन आदिमानवों की टोली याद आ गई। मेरी तो पूरी तेजी पहले ही समाप्त हो गई थी। लरजते मेध, अब होती मुसलाधार वर्षा, चारों ओर फैले दैत्याकार बाध में फैली अथाह जलाराशि। दूर-दूर तक एक भी पेड़ पौधे का निशान न था और निर्जन क्षेत्र में मानवीय हलचलों का सन्नाटा मुझ में डर पैदा करने लगा। मैंने दूसरों के चेहरे को ध्यान से देखा वहां मुझे किसी तरह का डर नहीं दिखा सभी पूरी मस्ती में थे। मैं उन लोगों के विशाल और उदात्त प्राणतत्व के प्रभाव में डूबता गया।

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हम लोग गांव से लगभग साढ़े चार – पाँच किलोमीटर दूर तक निकल आए थे। अब पुरवा हवा के सहारे पाल लगाकर वापस लौटने की तैयारी की जाने लगी। लाई गई लग्गी के ऊपरी सिरा पर बड़ी लाठी को क्षैतिज: बांधकर दो धोती के कोर को उसपर बांधा गया। सबों ने लग्गी को उठाकर नाव के बीचो-बीच वाली पटरी में बने छेद में नियत स्थान पर उसे लगाने लगे। मैं अगले माईन पर दोनों धोती के दूसरे सिरे को पकड़े खड़ा था। जिसे बाद में बीच वाले लग्गी में नीचे की तरफ एक और लाठी बांधकर उसमें धोती का दूसरा सिरा बांधना था परंतु जैसे ही लग्गी को सही जगह लगाया गया धोती ने हवा पकड़ ली और मैं असंतुलित हो गया। लगा मुझे हवा अपने साथ उड़ा ले जाएगी। मेरे हाथ से धोती का सिरा छूट गया। पूरी धोती नाव पर लगे लम्बे झंडे के मानिंद हवा में लहराने लगी। सभी मुझे कोसने लगे। छोटका कक्का की उपस्थिति उनकी गलियों पर ब्रेक लगा रखा था वरना…… ।आंखों ही आंखों में मैंने अपनी गलती मानी। वस्तुतः मुझे इसका अंदाजा न था। मैं तो समझ रहा था कि भींगी धोतियों से पाल बनाने की योजना पूरी तरह फ्लॉप होनी ही थी और फिर मुझे हवा की ताकत का अंदाजा भी नहीं था। फिर से बीच वाली लग्गी निकाली गई और पूरी प्रक्रिया फिर से दुहराई गई। इस बार कोई चूक नहीं हुई। नीचे से भी लाठी बांध कर धोती के दूसरे सिरे को उससे बांध दिया गया। पाल वाली नाव बिल्कुल तैयार थी। सबों के सामवेत जयघोष से वातावरण गूंज उठा।

मेरे हाथ में पतवार थमाई गई मैंने पहली बार पतवार देखा था थोड़ा गौर से उसे देखने के बाद उसे चूमा और पिछले माईन पर जा बैठा। मेरे साथ छोटका कक्का भी आ बैठे थे और मुझे आवश्यक निर्देश देने लगे। मैं उनकी बातों पर कोई ध्यान दे रहा था मुझे तो पतवार के सहारे नाव चलाने की जल्दी थी। उनकी बातें समाप्त होने के तत्पश्चात पतवार को पानी में डालकर नाव को मन माफिक दिशा में आगे बढ़ाया। कभी-कभी गलती हो जाने पर वह भी पतवार को पकड़ लेते थे और मजबूती से उसे सही दिशा दे देते। कुछ देर तक यही सम्मिलित प्रयास चलता रहा। नाव पाल पर पड़ते हवा के दवाब में तेजी से आगे बढ़ रहा था। मैंने उन्हें “सब समझ गया” कहते हुए अगले माईन पर जाने को राजी कर लिया। मैं बिना किसी हस्तक्षेप के नाव चलाना चाहता था। अब मैं स्वतंत्रतापूर्वक नवा भागा रहा था। कभी कभी चौतरफी हवा के कारण नाव अनियंत्रित सा भी हो जाया करता था।

ऐसे ही एक क्षण में मैं पतवार को पानी में ज्योंही नाव से दूर किया नाव एकबारगी बाँयी ओर झुक गया और बाएं पाटी पर बैठे मेरे गैंग के 3 सदस्य उलटकर पानी में जा गिरे। उनके गिरने से नाव थोड़ा और झुक गई जिससे पानी का एक रेला नाव में आ गया नाव थोड़ा और बाँयी ओर झुक गई और ढूबने – ढूबने को हो गई। मैं भी पतवार सहित पानी में जा गिरा। आधी नाव पानी से भर चुका था। हम लोगों के गिरते और पानी भरते ही नाव दाहिनी ओर झुकी दाहिने पाटी पर बैठे हमारे तीन अन्य सदस्य मानो ताक में ही थे जिमनास्टिक के कुशल खिलाड़ी की भांति तीनों ने उल्टी गुलाटी मारी और नाव का साथ छोड़ दिया। नाव संभल चुकी थी और पाल के प्रभाव में आगे बढ़ती जा रही थी। हमारे गैंग का एकमात्र सदस्य जो बीच वाले पटरे जिसपर पाल लगे थे के साथ बैठा था। उसकी आंखों में हम लोगों की बेवफाई के लिए शिकायत के भाव थे। पानी में आने के लिए मचलती हसरतों को उसकी आंखों में पढ़ा जा सकता था पर अब कोई मौका नहीं था। जब तक दोनों धोती के चारों किनारों को नीचे से खोला जाता नाव हम लोगों से कई फर्लांग आगे निकल चुका था।

सबों ने सम्मिलित स्वर में अवसर उपलब्ध कराने के लिए मुझे धन्यवाद दिया।यहाँ तक आकर भी बिना बाढ़ के पानी में चुभके वापस लौटना उन लोगों को साल रहा था। उन्हें लगा जैसे मैंने जानबूझकर मौके बनाए हैं। मेरे हाथ की पतवार कहां खो गई किसी को कुछ होश भी नहीं था।सुध-बुध खोए हमलोगों का छुआ-छुई का खेल तुरत-फुरत में शुरू हो गया। सुरकुनिया काटते (पानी के भीतर तैरना) सभी कभी पास तो कभी दूर नजर आते। उस बारिश में कभी मुझे सातों मुड़ी (सर) एक साथ पानी के ऊपर नजर नहीं आया। ऐसे जगह पर नहाने का वह भी ऐसी परिस्थिति में एक अलग सा ही अनुभव था। परंतु मैं जल्द ही थक गया। थकने के साथ ही निराशा ने मुझे आ घेरा। डर मुझे फिर से जकड़ने लगा। दूर हवा में उड़ते धोती वाली नाव हमारी ओर आती दिखी पर अभी वह काफी दूर था।मैं अपने डर की बात उन्हें बताना चाहता था परंतु वह क्षण भर को देखते और पानी में विलीन हो जाते। अवसर ही नहीं मिल रहा था। उनका धारा रेखीय शरीर और मजबूत शारीरिक सौष्ठव मजबूती के साथ सामने आया था।तैरने के कारण सभी मांसपेशियां गठी सी लगी। यह वे लोग थे जो कुछ भी कर दे वही थोड़ा। पूरा पहाड़ उल्टा दें। शारीरिक बल को अब तक मैं दोयम दर्जे का समझता रहा था। मेरी धारणा क्षण भर में बदल गई। थकावट के बावजूद तैरते रहने के सिवा कोई चारा नहीं था। तैरते- तैरते ही मेरी थकावट दूर हो गई। मुझमें नई ऊर्जा संचार हुआ। अब इतना असहज नहीं रहा। मुझे लगा जैसे पहले वार्मअप कर रहा होऊ और अब पूरी तरह से खेल के लिए तैयार हूँ। वार्मअप क्या चीज होती है मैं आज ही इसको समझ पाया था। मैं भी खेल में शामिल हो गया। तैरने के हर रूप को हम सभी खूब इंज्वाय कर रहे थे। नाव कुछ नजदीक आ गई थी। छोटका कक्का की फटकार सुनाई देने लगी थी। अब उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। हम सभी नाव की ओर बढ़ने लगे। लेकिन सबकी अपनी क्षमताएं होती है मैं फिर से पिछड़ने लगा था। तैरा नहीं जा रहा था। थकान फिर से हावी हो रहा था। मैं चित्त होकर तैरना प्रारंभ किया थोड़ी ही देर के बाद वह भी बंद करके बस पानी के पृष्ठ पर अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया और ढ़ेह के साथ ऊपर नीचे होते भसता रहा। कुछ सोचना भी बस की बात नही रही। सभी नाव पर चढ़ चुके थे और नाव को मेरे पास ला कर मुझे नाव पर चढ़ाया गया। मेरी जान में जान आई।

बरसा भी अब धीमा पड़ता जा रहा था। पाल फिर से बांधी जा रही थी पर मेरी रुचि समाप्त हो गई थी। मैं स्वयं को संयमित करने में लगा था। पतवार भी अब नहीं रहा था। खैर लग्गे से ही पतवार का काम लिया जाना था इसके लिए दक्ष हाथों की दरकार थी। लग्गा को छोटका कक्का ने स्वयं संभाला। नाव पाल के साथ तेजी से भागते हुए गांव की ओर बढी जा रही थी। हम सभी को ठंड लग रही थी। मैं तो दलदलाने लगा था। मुंह से आवाज निकल रही थी।दाँत किटकिटा रहे थे। बाकियों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी। सभी जल्दी से जल्दी गांव पहुंचना चाहते थे हवाओं पर सवार ढ़ेह पर चढ़ते – उतरते नाव जल्द ही गांव तक पहुंच गयी । जाने की तुलना में लौटने का समय बहुत ही कम रहा। फिर भी लौटते-लौटते शाम हो गई थी।

नाव को मुहार पर लगा उसे खूँटी से बांध हम लोग दरवाजे पर पहुंचे। तौलिया से देह-हाथ को पोछकर हम लोगों ने कपड़े बदले। मनेजरा ( इसकी खेती जलावन के लिए की जाती है) का घूर लगाया गया। जिसके चारों तरफ बैठे हम लोग धधरा (ज्वाला) तापने लगे और जल्द ही अपने आप को गर्म कर लिया। आग अभी अमृत तुल्य लग रहा था। वहीं हम लोगों को वही शिकार वाली मछली (तेज मिर्च वाली झोर सहित) परोसी गई। बिना भात या रोटी के। केवल मछली। मैंने झोर की चुस्की के साथ उसका स्वाद चखा। अपूर्व था। बड़ी लजीज। सच कहा जाता है- दिनभर के परिश्रम का फल भोजन होता है। वे स्वाद मेरे मन प्राण में रच-बस गए हैं हमेशा हमेशा के लिए। आज भी मेरे सामने जब मछली परोसी जाती है तो मैं वही स्वाद ढूंढता हूं पर आज तक नहीं मिली।


 पाल वाली नाव (भाग – 01)

लेखक : निशिकांत ठाकुर


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