हिंदुस्तान का बंटवारा मुझे सदैव कचोटता है


Image of writer Prabhat Ranjan Praneeth

गए कुछ साल हिन्दी साहित्यिक जगत में महत्वपूर्ण रहे हैं. इस बीच हिन्दी में कुछ ऐसे लोगों का आना हुआ है, जो यूं तो मार्केटिंग या तकनीकी क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हैं किन्तु अपने भाषाई प्रेम के कारण हिन्दी में लिख रहे हैं.

इसी श्रेणी के एक लेखक हैं प्रभात रंजन प्रणीत. हिन्दी उपन्यास ‘विद यू विदाउट यू’ के लेखक प्रभात रंजन प्रणीत एक बेहद शानदार, ऊर्जावान और सकारात्मक व्यक्ति हैं. इनकी आगामी पुस्तकें भारत-पाकिस्तान विभाजन और वैशाली नगर के ऐतिहासिक महत्व पर आधारित हैं. पिछले दिनों मनीष जी ने प्रभात जी से बातचीत की है. 

अपने बचपन के बारे में बताइये, कहां आपका जन्म हुआ, क्या परिवेश था, किस तरह आप आज अपने बचपन  को याद करते हैं ?

 मनीष जी यह वह प्रश्न है जिसके बारे में बात करने से मैं बचने की कोशिश करता रहा हूं, दैनिक भास्कर में एक इंटरव्यू आई थी, तब मैंने चंडीदत्त शुक्ल जी से आग्रह किया था कि मेरे पारिवारिक परिवेश के बारे में विस्तृत रूप से कुछ नहीं छापी जाए. लेकिन अब चूंकि आपका पहला प्रश्न ही इसी सम्बन्ध में है और काफी लोग इस बारे में पूछते रहते हैं तो लगता है, इस सवाल से ज्यादा देर तक नहीं बचा जा सकता.

मेरा जन्म बिहार के वैशाली जिला के हाजीपुर शहर में हुआ. हाजीपुर में मेरा ननिहाल है जबकि मेरा अपना गाँव हाजीपुर से लगभग 20 किलोमीटर दूर है. लगभग पूरा बचपन इसी हाजीपुर शहर और मेरे गाँव रहसा में ही बीता. स्कूली शिक्षा भी इन्हीं दो जगहों पर होती रहीं. 


सबकुछ सामान्य था सिवाय इसके कि राजनीतिक परिवार में होने की वजह से राजनीतिक माहौल का भी असर पड़ता रहा. हालांकि तब समझ कम थी, तब जब प्रदेश के कोई मुख्यमंत्री मेरे घर पर किसी समारोह आदि में आते तो उनके साथ आई भीड़ के अलावा उसमें मुझे कुछ भी ख़ास नहीं दिखता. यहाँ तक कि जब एक पूर्व प्रधानमन्त्री की गोद में बैठने का मौका मिला, वे बड़े प्यार से मुझसे बात करते रहे तो मैं भी उनके गोद में बैठकर ऐसे बात करता रहा जैसे वे मेरे चाचा या मामा हों. बाद में जब उम्र बढ़ी तब उनलोगों के राजनीतिक ओहदों व कद का अहसास हुआ.

हालांकि पिताजी का हमेशा प्रयास रहा है कि मैं राजनीति से दूर रहूं और मैंने भी खुद को दूर ही रखा है. अभी, जब वे विधायक हैं या पहले भी जिन पदों पर भी रहें हों, मैंने कोशिश की है कि उनके कद का कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लाभ मुझे मेरे अपने क्षेत्र में न मिले. इसी कारण अपने पारिवारिक परिवेश के बारे में बात करने में मुझे हमेशा एक हिचक सी रहती है, बिहार में भी मेरे करीबी मित्रों के आलावा काफी कम लोगों को इस बारे में जानकारी है. अब आपके इस इंटरव्यू के बाद सभी तक यह बात पहुंचेगी.  

पढ़ने- लिखने का शौक़ कैसे जगा ? वे कौन से लेखक या कौन सी किताबें रहीं जिन्होंने आपके मन पर छाप छोड़ीं ?

 मेरी माँ को पढ़ने-लिखने का शौक रहा है. पिताजी अपने व्यस्त दिनचर्या के बीच भी किताबों को पढने के लिए समय निकालते रहे हैं . नाना संस्कृत व अंग्रेजी भाषा के बड़े जानकार हैं, उनकी भी स्वाभाविक रूचि किताबों में रही है,  तो शुरुआती झुकाव सम्भवतः इस वजह से हुई. बाद में दसवीं क्लास में प्रेमचन्द की एक कहानी पढ़ी तो साहित्यिक रूचि जगी.  फिर अमृता प्रीतम की एक किताब ने काफी प्रभावित किया था, उसके बाद उनकी कई किताबें पढ़ता रहा. मंटो, श्रीलाल शुक्ल, विष्णु प्रभाकर, नासिरा शर्मा आदि तमाम लेखकों को पढ़ता रहा हूं.

ऐसी कई किताबें हैं जिन्होंने मुझे काफी प्रभावित किया है, सबका नाम लिखना मुश्किल है लेकिन अभी जेहन में अमृता प्रीतम की कच्ची सड़क, श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी, भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा, खुशवंत सिंह की पाकिस्तान मेल जैसी किताबों के नाम याद आ रहे हैं. 

 किताब लिखने के पीछे क्या प्रेरणा रही, ऐसा क्या था जो किताब लिखकर कहना चाहते थे ?

हमारा मन-मस्तिष्क तमाम घटनाओं, आवोहवा, वातावरण से स्वाभाविक रूप से प्रभावित होता है, ऐसी असंख्य बातें हैं जो हमें संवेदनशील करती हैं, अब यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर है कि वह उसे व्यक्त करे या अव्यक्त रखे. मेरी समझ से इन्हें व्यक्त करने की आकांक्षा ही ज्यादातर लेखकों को किताब लिखने के लिए प्रेरित करती हैं जैसा कि मैं अपने सन्दर्भ में महसूस करता हूं.

ऐसी कई बातें हैं जिससे मुझे लगा कि उन्हें कहने के लिए किताब ही सबसे बेहतर माध्यम है और यह किसी एक निश्चित विषय पर नहीं है. यही वजह है कि मेरी आई हुई किताब और भविष्य में आने वाली किताबों के विषय-वस्तु में काफी फर्क है. पहली किताब ‘विद यू विदाउट यू’ दोस्ती और प्यार जैसे मानवीय सम्बन्धों के उलझनों की व्याख्या करती है तो अगली किताब भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की आज कि पीढ़ी पर पड़ने वाले असर पर केन्द्रित है, जबकि इसके बाद एक अतिमहत्वपूर्ण ऐतिहासिक लेकिन आज भी प्रासंगिक एक कहानी पर किताब लिखने की योजना है.

आजकल जिस तरह से प्रेम आधारित उपन्यासों की भीड़ आई है, ऐसे में वह कौन से विषय हैं जिन पर आप हिन्दी साहित्य में किताबें देखना चाहते हैं ?

प्रेम हमेशा से लेखकों का प्रिय विषय रहा है, पाठक भी सबसे ज्यादा प्रेम आधारित उपन्यास ही पढ़ते हैं. लेकिन इसके अतिरिक्त भी सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक विषयों पर किताब लिखी जाती रही हैं. आज हिंदी में लिखकर सफल हुए बड़े लेखक यदि इन विषयों पर ज्यादा लिखें तो इससे नए लेखकों को भी प्रेरणा मिलेगी.

हिन्दी साहित्य जगत में वैचारिक, व्यवहारिक स्तर पर  क्या कमियां देखते हैं, उन्हें ठीक करने के लिए क्या किया जाना चाहिए ?

 अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रही वर्तमान पीढ़ी हिंदी से जुड़ पाये इसके लिए आवश्यक है कि हिंदी साहित्य जगत उनके लिए सुगम हो जिनकी रूचि हिंदी साहित्य में है. हिंदी साहित्य को मठों और दरवेशों के बदले वैसे ज्यादा से ज्यादा प्लेटफार्म की आवश्यकता है जहां युवा वर्ग की पहुंच सरल हो, जहां वे सहजता से खुद को व्यक्त कर सकें, जहाँ उन्हें स्वीकृति मिले. यदि इन प्लेटफार्म पर पुरोधाओं की उपस्थिति भी हो तो यह उन्हें प्रेरित, प्रोत्साहित व प्रशिक्षित करेगा. कई लोग यह काम कर भी रहे हैं और कुछ इसी तरह का प्रयास हमलोगों ने अपने साहित्यिक संस्था ‘इन्द्रधनुष’ के माध्यम से भी किया है.

यह बात सच है कि हिन्दी के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा है लेकिन आज भी हमारे देश में सबसे ज्यादा पाठक अंग्रेजी के ही हैं और इस तथ्य का असर हिन्दी लेखकों पर स्वभाविक रूप से पड़ता है. प्रतिभा और बाजार के बीच के कशमकश भी अपनी जगह हैं. हिन्दी में काफी कम स्तरीय प्रकाशक हैं और जो इस तरह के बड़े प्रकाशक हैं उन तक पहुंच पाना और छपना बहुत सहज नहीं है. आवश्यकता है कि हिंदी में स्तरीय प्रकाशकों की संख्या बढ़े. बाजार का अपना महत्व है लेकिन इन दिनों कुछ प्रकाशक किताब का चयन, प्रकाशन सिर्फ बाजार की दृष्टि से करते हैं, यह भी ठीक नहीं; इससे हिंदी साहित्य का बहुत भला नहीं हो सकता. ज्यादा से ज्यादा वैसी संस्थाओं की आवश्यकता है जहां प्रतिभाशाली नये लेखकों का पहुंच पाना आसान हो और जहां चयन, प्रकाशन का आधार सिर्फ बाजार नहीं हो.

भविष्य में  हिंदी साहित्य लेखन और  लेखक  के लिए क्या  संभावनाएं देखते हैं ?

 अंग्रेजी का प्रभाव जितना भी बढ़ा हो, हिंदुस्तान के ज्यादातर हिस्सों में हिंदी ‘लिंगुआ फ्रैन्का’ है, अतः इस भाषा का विस्तार व प्रभाव हमेशा कायम रहेगा और तमाम कठिनाईयों के वाबजूद हिंदी साहित्य का महत्व भी कायम रहेगा. जब हिंदी लेखकों द्वारा स्तरीय लेखन होगा, प्रासंगिक व विविधतापूर्ण लेखन होगा तो पाठक भी इनसे जुड़ेंगे और जब पाठक जुड़ेंगे तो हिंदी लेखकों के लिए भी संभावनाएं बढ़ेंगीं.

हिन्दी के लेखक को अपनी किताब की मार्केटिंग के लिए और क्या नए प्रयोग करने चाहिए ?

आजकल लेखक बाजार के महत्व को बखूबी समझते हैं अतः वे अपने स्तर पर मार्केटिंग की नवीन विधि अपनाने में नहीं हिचकते. सोशल मीडिया ने इस काम को और आसान कर दिया है. वैसे मुझे लगता है कि पाठकों से सीधे सम्पर्क, मुलाकात, वार्तालाप की दिशा में और ज्यादा प्रयास किया जा सकता है, लिटरेचर फेस्टिवल जैसे आयोजनों के आलावा भी उन तक पहुंचने के तरीकों के बारे में सोचा जा सकता है.

जीवन में वे कौन से विचार हैं जो आपको कठिन पलों में बहुत हिम्मत देते हैं ?

 बचपन से मेरे पिताजी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की प्रसिद्ध किताब रश्मिरथी की वीर कविता की कुछ पंक्तियाँ हमेशा सुनाते रहे हैं, यह समझाते हुए कि अपने साहस और धैर्य से हम कैसी भी विपरीत परिस्थिति पर विजय पा सकते हैं, पंक्तियाँ हैं – 

“है कौन विध्न ऐसा जग में, 
टिक सके वीर नर के मग में?
खम ठोंक ठेलता है जब नर, 
पर्वत के जाते पाँव उखड़ 
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है ”     

इन पंक्तियों का स्मरण मुझे काफी हिम्मत देता है.

अपने आने वाले प्रोजेक्ट्स के बारे में कुछ बताना चाहेंगे ?

पिछले तीन सालों से दो किताब पर काम कर रहा हूँ जिसमें कि एक नॉन फिक्शन किताब सामाजिक व राजनीतिक विषय पर है जबकि दूसरी फिक्शन किताब पाकिस्तान के एक हिन्दू परिवार की, मुस्लिम पाकिस्तान में एक हिन्दू अल्पसंख्यक के रूप में उनके जीवन के दर्द व संघर्ष की, पाकिस्तान से दुखद पलायन की और धर्मनिरपेक्ष हिंदुस्तान में बहुसंख्यक हिन्दू के तौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के दर्द के उनके अवलोकन की कहानी है. यह कहानी आजादी के बाद खुद को बुरी तरह ठगा हुआ महसूस कर रहे पाकिस्तानी हिन्दुओं के उस अंतहीन दर्द की दास्ताँ भी हैं जिसके तहत वे पाकिस्तान में हिंदुस्तानी हैं और हिंदुस्तान में पाकिस्तानी.

दरअसल हिंदुस्तान का बंटवारा मुझे सदैव कचोटता है. एक बंटवारे ने इस मुल्क के गंगा-जमुनी तहजीब को काफी चोट पहुंचाई है. इस विभाजित मुल्क के दोनों हिस्सों में बच गये अल्पसंख्यकों के तकलीफ, दर्द में एक हद तक समानता है. हाँ इस मामले में हमारा व्यवहार पाकिस्तान से बेहतर जरुर रहा है. लेकिन सर्वधर्म समभाव और वसुधैव कुटुम्बकम जैसे महान सोच के अग्रदूत होने की वजह से हमारी यह जिम्मेवारी भी बनती है कि हम इस मुल्क के अल्पसंख्यकों के साथ और ज्यादा आदर्श व्यवहार करें जिससे कि न सिर्फ बंटवारा गलत साबित हो बल्कि पाकिस्तान समेत पूरे विश्व में प्रभावी संदेश जाये. सर्वधर्म समभाव इस देश की आत्मा है. इस पुस्तक के प्रकाशन के पश्चात् वैशाली की एक पौराणिक लेकिन काफी महत्वपूर्ण कहानी पर काम करना है. फ़िलहाल इसी विषय पर  रिसर्च कर रहा हूं.

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