“खा लो, नहीं तो एक बगड़ा का मौस घट जायेगा!”


sagar

गाँव से दूर रहना ही “हेहरु” हो जाना हो जाता है। और तब जब आप छात्र-जीवन का निर्वहन कर रहे होते हैं। कब खाए? नहीं खायें? किसी को कोई परवाह नहीं। बंद कमरे में आपको कोई नहीं पूछता। रूम पार्टनर होगा भी तो उसकी भी परिस्थिति आपके ही बरबार होती है। जबतक चल रहा है तबतक तो ठीक है, नहीं तो किसी दिन अंठा कर सो गये। या फिर दुकान का कोई आइटम खाइए जो भूख मिटाने मात्र के लिये भी काफी नहीं होती है। खाने इत्यादि के चक्कर में मैंने कितनों को शहर छोड़ते देखा है।

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गाँव से आया दुलरुआ बौआ, कमरे में ही बना किचन झेल नहीं पाता। कमरे के बगल में बना बाथरूम उसे भाता नहीं है और वो बर्दाश्त नहीं कर पाता। यूँ कहें कि इस माहौल में टिक नहीं पाता। और आप कहेंगे कि विद्यार्थी जीवन तो इस सब के बिना कुछ नहीं है! मग़र आप एक नज़रिये से गलत कहेंगे। खैर टिकना और फिर लौटना तो है ही, पसंद हो या नहीं।

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हम वो दिन याद करते हैं, जिन दिनों हमारा भूखे पेट सो जाना “एक बगरा का माँस घटने” के बरबार हुआ करता था। ये सही में होता भी है या नहीं, ये पता नहीं! मग़र माँ यही बात कहकर हर बार खिला देती थी। आपको वो दिन याद आता है, जिन दिनों आप सो गये होते थे और जब सुबह उठते तो पता चलता कि भकुआयल नींद में ही माँ ने आपको खिला दिया था। खाना-कपड़ा-साफ-सफाई-बिस्तर इत्यादि आपके नहीं होते जब तक कि आप गाँव में होते हैं। और गाँव छोड़ते ही, ये एकदम से आपके हो जाते हैं। और ये, शहर की तरह ही आप पर टूट पड़ते हैं। आपको ध्यान रखना ही होगा नहीं तो, नहीं रहिये!

सबसे बुरी रात भी वही होती है। जब देर रात आप भुखे होते हैं, खाना बनाने में लाचार होते हैं और फिर सुबह हो जाती है। आप हार गये होते हैं। आपके लिये कोई खड़ा नहीं होता कहने को कि “खा लो, नहीं तो एक बगड़ा का माँस घट जायेगा!” इत्यादि प्रकार के दुलार को आप गाँव में ही छोड़ आये होते हैं।


लेखक : सागर

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