विद्या वही जो संस्कारों से मुक्ति दिला दे


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वीडियो में जब शेर को किसी पशु का पीछा करते हुए देखता हूँ तो मेरी सारी संवेदना जान बचाने के लिए बेतहाशा भागते हुए पशुओं के पक्ष में हो जाती है । उस समय ऐसा तादात्म्य हो जाता है कि लगता है, पशु के साथ मेरे प्राण भी भागे जा रहे हैं । अगर वह बच गया तो प्राण लौट आते हैं । पकड़ा गया तो ज्यादा देर तक वीडियो देखना कठिन हो जाता है । यहां से मेरा चिंतन आरंभ होता है । सोचता हूँ कि मेरी संवेदना शिकार के पक्ष में क्यों चली जाती है ? शिकारी के पक्ष में क्यों नहीं जाती ? यह क्यों नहीं देख पाता हूँ कि शेर शिकार नहीं करेगा तो खायेगा क्या ? शिकार न करने पर उसके भूखों मरने का ख्याल क्यों नहीं मेरे मन में आता है ? तर्क तो यही कहता है कि मुझे किसी के पक्ष में नहीं होना चाहिए । तटस्थ रहना चाहिए, जैसे जीप में बैठा फोटोग्राफर रहता है । उसके पास ही निरीह प्राणी दबोचा जा रहा है, वह बचा सकता था, लेकिन मरने के लिए छोड़ देता है । निश्चिंत होकर फोटो लेता रहता है !

अब चिंतन की दिशा पशुओं से हटकर आदमी पर आ जाती है । माना कि शेर भूख मिटाने के लिए हिंसा करता है, अन्य पशु उसका भोजन है । लेकिन आदमी का भोजन तो आदमी नहीं है ! फिर भी आदमी का हक मारकर आदमी इतना संग्रह किसलिए करता है ? शेर तभी हमला करता है, जब उसे भूख लगती है । आदमी तो पीढ़ियों के लिए इकट्ठा कर रख देता है । दूसरों की हकमारी कर संग्रह करना पशुतल से भी नीचे चला जाना है । आदमी होने के लिए पहले उसे असंग्रह सीखकर पशुतल पर आना होगा । तत्पश्चात परस्पर सहयोग की भावना के सहारे मनुष्य तल पर आना होगा ।

अब अपने पर लौट आता हूँ । मेरी संवेदना पीड़ितों के साथ क्यों चली जाती है, यह जानते हुए कि शिकार करना शेर का धर्म है ? इसे ही संस्कार कहते हैं । संस्कार तरह तरह के होते हैं । बहुत-से लोग ऐसे भी होंगे, जिनकी संवेदना शेर के साथ होगी । संस्कार चाहे जिस तरह का हो, वह सत्य देखने में बाधक है । सत्य को देखना हो सब तरह के संस्कारों से ऊपर उठना होगा । इसलिए हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जो संस्कारों से मुक्ति दिला दे । शुरू में सही है कि बच्चों को सुसंस्कारी बनायें, लेकिन अंत में तो उससे मुक्ति चाहिए ही । मुक्ति का एक ही कारगर औजार है, फोटोग्राफर की तरह तटस्थ होकर लीला देखना । फोटोग्राफर का उदाहरण सिर्फ समझने के लिए दिया है । इसका अर्थ यह नहीं समझा जाय कि वह साक्षी है । वास्तव में वह अपने कर्म में लिप्त है । कर्म से अलिप्त होकर ही साक्षी हुआ जा सकता है । ऋषि ने ठीक ही कहा है कि विद्या वही है जो मुक्ति दिलावे — सा विद्या या विमुक्तये । सब तरह के संस्कारों और विचारों से ऊपर उठकर ही आत्म-साक्षात्कार स़ंभव है । शिक्षा का आखिरी उद्देश्य भी यही है ।


आलेख : प्रो० मटुकनाथ चौधरी

( प्रो० मटुकनाथ चौधरी एक चिंतक, लेखक, समीक्षक एवं पटना विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं )

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