हमें पता है, साथी तुम्हें न्याय नहीं मिलेगा. लेकिन हम मजबूर जो ठहरे, हर जुल्म के टक्कर में खड़ा होने की एक आदत सी जो हो गई है. हम भी क्या करें ! यही सोचकर तो काम करतें हैं कि कुछ नहीं ही सही – कुछ भी तो करें. थक तो हम भी जाते हैं और हमें पता है आप एक दिन थक हाड़ कर बैठ जायेंगे. कोर्ट कचहरी पुलिस का चक्कर लगाते-लगाते एड़ियां घिस जायेगी. फिर भी आखें बंद कर अपने दिल को समझाते रहते हैं, चलो एक कदम तो बढ़ाओ, कभी न कभी ये कारवां बनेगा ही. कोई न कोई इस सँसार में गरीबों की आह जरुर सुनेगा.
उनकी हत्या के बाद उनके परिवार से मिलने गयें थे, लेकिन हम उनके साथ दो मिनिट बैठ नहीं पाए. सामने खून के धब्बे कल रात हुई वारदात को चीख-चीख कर बता रही थी. एक हँसता खेलता परिवार का पालनहार एक मिनट में छीन लिया गया. महिलायें और बच्चों की भीड़ और सबके चेहरे पर फैला दहशत पाटलिपुत्रा की धरती पर हमें मुहँ चिढ़ा रहा था. हर आँख हमारे तरफ न्याय की भीख मांगती प्रतीत हो रही थी मानो हम ही जज हों और और तुरंत फैसला कर दें.
मंडी में जन रैली निकली तो लोग दहशत के मारे साथ नहीं आ रहे थे. थाना कुछ ही कदमों की दूरी पर था, पर पुलिस अपराधी का गठजोर लोगों को रैली में शामिल होने से डरा रही थी. और जब किसी तरह हम थाने पहुंचे तो वही पुलिसया धोंस देखने को मिला. दिल और दिमाग में झनझनाहट हो रही थी. सामने मृतक का पति उजला कपडा पहने अपने बाल बच्चों की सुरक्षा के लिये गिरगिरा रहा था. घर में अभी भी खून के धब्बे मिटाए नहीं गये थे और रोज़-रोज़ मिलने वाली धमकी पुरे परिवार के बजूद को मिटाने पर तुला था.
दिमाग में आ रही कल्पना दिल को बैचैन कर रही थी. गरीब को न्याय, संविधान और देश का प्रजातंत्र हमें याद आ रहा था. दिल को कड़ा किये न्याय की आस में हम भी उस भीड़ में शमिल हुए अपने आप को लाचार पा रहें थे. इतना लाचार इतना मजबूर की उस महिला के पति को दिल से लगा सांतवना देना चाहते थे. लेकिन दे न सके, क्लप कर रह गयें थे, संघर्ष जारी रहेगा. न्याय के लिए.
साबित्री देवी की याद में जिसकी रंगदारों ने पटना में गोली मार कर हत्या कर दी.
अविनाश भरतद्वाज ( सामाजिक राजनितिक चिन्तक )
Bahut achha tha