कोशी, मिथिला और सरकारें- खट्टरकाका की डायरी से


Kosi-Mithila-and-Governments vicharbindu

सन 2008 में जब कोशी कोसी में बाढ़ की वजह से मिथिला का एक बहुत बड़ा हिस्सा तबाह हुआ था उस समय मैंने कोशी पर एक ब्लॉग लिखा था कि कैसे स्वतंत्रता से पूर्व और यहां तक की बाद में दिल्ली और बिहार की सरकार ने मिथिला को कोसी की तबाही से जूझने के लिए बेसहारा छोड़ दिया था. इस आलेख पर पत्रकार हितेंद्र गुप्ता की नजर पड़ी और उन्होंने अपने ब्लॉग हेलो मिथिला में इसे छापा था.

इस लेख में घोघरडीहा के सरौती गाँव के कवि मोहम्मद अब्दुल रहमान की चर्चा की थी. इनके बारे में जानकारी मुझे बाबुजी ने दी थी. स्वतंत्रता से कुछ साल पहले कोशी की विभीषिका पर उन्होंने काव्य रचना की थी जिसका नाम था “अकाल का हाहाकार उर्फ कोशी की तूफान”. रहमान जी ट्रेन में अपनी किताबें बेचते थे इस किताब पर अंग्रेज सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि इन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से अंग्रेज़ी सरकार की पोल खोल दी थी. यह पुस्तिका कोशी की विभीषिका पर आधारित थी.

उसी समय श्री दिनेश मिश्रा कोशी पर एक पुस्तक लिख रहे थे इस आलेख पर उनकी नजर पड़ी उन्होंने मुझसे यह जानने के लिए संपर्क किया कि क्या मोहम्मद रहमान का वह कहीं से मिल सकता है. 8 सालों के बाद वह दुर्लभ पुस्तिका मुझे इस बार बाबूजी के संकलन से मिली. इसमें से एक कविता इस प्रकार से थी.

“दौड़ू दौड़ू हो सरकार

प्रजा सब दहाइए भैया कोशी के मझधार,

चारू कात से कोशी माता घेरलक घर वो द्वार

भागै के नै रास्ता छोड़लक काने काश्तकार ।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री आदरणीय श्री जवाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत के निर्माता कहे जाते हैं जिन्होंने पूरे देश में कल कारखाने और बांध का जाल बिछाया. मिथिला के बच्चे भी पाठ्यक्रम में यही पढ़ा करते हैं. लेकिन आधुनिक भारत के निर्माता का संसाधन और संकल्प मिथिला तक आते-आते समाप्त हो चुका था जिसकी कई वजहें थी.

देश की आजादी के तुरंत बाद पंजाब में अकाल का साया मंडराने लगा और उसी समय विशाल भाखड़ा नांगल डैम का निर्माण हुआ था.

मिथिला का कोशी की विभीषिका से कोई नया रिश्ता नहीं है, सरकार के पास भाखड़ा नांगल डैम बनाने के लिए पैसे तो थे लेकिन जब कोशी पर बांध बनाने की बात आई तो सरकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पैसे नहीं है इसलिए लोग श्रमदान कर बांध बना लें.

उस समय मिथिला राज्य के लिए आंदोलन करने वालों में अग्रणी मिथिला विभूति डॉक्टर श्री लक्ष्मण झा ने चर्चा की थी की ब्रिटिश सरकार ने जाते-जाते नेशनल डिजास्टर फंड के अंतर्गत कोशी पर बांध बनाने के लिए पैसे दिए थे जिसे नेहरु जी ने भाखड़ा नांगल डैम बनाने के लिये डाइवर्ट कर दिया. लोगों में भारी जन आक्रोश था. इस काम के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने वित्त मंत्री गुलजारी लाल नंदा को लगाया. उस समय अखबारोंं में गुलजारीलाल नंदा केे कई बयान छपे थे जिसमें उन्होंने मिथिला के लोगों से अपील की थी कि वह श्रमदान के माध्यम से बांध बनाएं क्योंकी सरकार के पास इतने पैसे नहीं हैं.

1954 में बांध बनाने के लिए ब्रह्मचारी श्री हरि नारायण के नेतृत्व में भारत सेवक समाज की स्थापना हुई और कोशी के कुछ हिस्सों पर लोगों ने खुद ही श्रमदान कर बांध बनाया था. श्रमदान की शुरुआत मिथिला के 150 पंडितों के द्वारा हुई जिन्होंने वैदिक मंत्र और कोशी महात्यम आदि के साथ विधिवत पूजा पाठ करने के बाद कुदाल और फावड़ा उठाया. उस समय मिथिला के गणमान्य साहित्यकार और बुद्धिजीवियों ने लोगों की सहभागिता के लिए जन जागरण अभियान चलाया था.

स्कूली बच्चे, कॉलेज के छात्र, युवा, बुजुर्ग सभी बांध बनाने के अभियान में जुटे थे. कोशी क्षेत्र में कई जगह श्रमदान शिविर बने. मिथिला के विभिन्न कोने से लोग बांध बनानेेे के लिए पहुंच रहेे थे और कुछ एक वर्षों के अथक मेहनत के बाद भुतहा, कुनौली, महादेव मठ, डुमरा आदि कोशी के प्रवाह क्षेत्र में बांध बनकर तैयार हुआ.

लेकिन यह मिथिला के लोगों के लिए एक कटु अनुभव था कि आजादी से पूर्व ब्रिटिश सरकार ने मिथिला को अविकसित और अकिंचन बनाकर रखा था और आजादी के बाद भी अपनी सरकार मिथिला भूभाग के साथ सौतेला व्यवहार करती है. ललितेश्वर मल्लिक ने उस समय कोशी पर एक विशद पुस्तक प्रकाशित किया था. बाद में मिथिला के लोगों ने नेहरूजी को सड़ा आम उपहार में भेजा था.

प्रकृति के साथ साथ सरकारों ने भी मिथिला को क्षत-विक्षत और विभाजित करने में कोई कोताही नहीं की. एक योजना के तहत मिथिला के कोशी प्रक्षेत्र को शेष मिथिला भूमि से अलग-थलग रखा गया. कोशी हर एक साल अपना रास्ता बदलती रही और वह अपना रास्ता बदलते बदलते पूर्णिया से दरभंगा तक पहुंच गई.

15 जनवरी 1934 के भूकंप के बाद कोशी दरभंगा की तरफ आ गई. इस भूकंप ने मिथिला के रेल और सड़क यातायात को बुरी तरह से प्रभावित किया. निर्मली सुपौल रेल लाइन टूट गया, इस रेल लाइन को कभी भी दुरुस्त नहीं किया गया. इसका यातायात पर ऐसा असर पड़ा कि दरभंगा से सहरसा की दूरी तय करने में लोगों को 24 घंटे का समय लगताा था. बाद में तत्कालीन रेलवे मंत्री ललित नारायण मिश्र ने जानकी एक्सप्रेस चलाई जो लंबी परिक्रमा करने के बाद सहरसा पहुंचती थी इसमें भी करीब 16 घंटे का समय लगता था. लेकिन देखा जाए तो दरभंगा और सहरसा की दूरी महज घंटे ढाई घण्टे की है.

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मिथिला अभी भी औपनिवेशिक त्रासदी से बाहर नहीं निकल पाई है. ब्रिटिश सरकार से लेकर स्वतंत्र भारत की सरकारों ने मिथिला को खंड-खंड में बांटकर रखने की पॉलिसी पर ही काम किया. सरकार योजनाबद्ध तरीके से मिथिला को धीरे-धीरे टुकड़ों में बांट रही है मिथिला की जगह मिथिलांचल, पूर्णिया के इलाकों को सीमांचल भागलपुर के इलाकों को अंगिका मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी और अब दरभंगा को भी बज्जिका क्षेत्र कह कर संबोधित किया जा रहा है जबकि यह सभी मिथिला का अखंड भाग है. कोसी क्षेत्र को मिथिला से अलग-थलग करने के पीछे भी यही राजनीति थी कि कालक्रम में इसे शेष मिथिला से अलग कोशिकांचल के रुप में स्थापित किया जाए.

मिथिला के विभाजन के दर्द को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने समझा. कोसी महासेतु का निर्माण हुआ सड़क मार्ग बने और रेल लाइन पुनर्निर्माण को सहमति दी गई. यद्यपि मिथिला के लोगों ने अटल बिहारी वाजपेयी को लोकसभा चुनाव में मिथिला से ऐसा रिटर्न गिफ्ट दिया कि भविष्य में कभी भी किसी भलेमानस राजनेता की हिम्मत नहीं होगी कि वह मिथिला के हित के लिए कुछ करे.

मोहम्मद अब्दुल रहमान के पीछे अंग्रेज सरकार बुरी तरह पर गई थी. बाद में उन्होंने पाचक बेचना शुरू कर दिया लेकिन वह लोगों को कोशी की विभीषिका की कहानी बताते रहे. 1961 में बाबुजी ने मिथिला मिहिर में रहमान पर एक बिस्तृत लेख लिखा था. राजनीतिक मकड़जाल और उदासीनता के बीच मैथिल समाज मेमोरी लॉस के उस उच्चतम स्टेज तक पहुँच चुका है जहाँ उसे कुछ भी याद नहीं.


आलेख : विजय देव झा

(Principal Correspondent at The Telegraph )


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2 Comments

  1. Ratan jha
    May 9, 2019
    Reply

    सर आप का ब्लॉग पढ़ने से मुझे उन तमाम बातों का जानकारी मिलता है जिससे में अनभिज्ञ हूं धन्यवाद आप का जो मुझे इतिहास और वर्तमान में जो कुछ हुआ या चल रहा है उसका मुझे ज्ञान प्राप्त होता है

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