“पालतू बोहेमियन” के कारण मैं अपनी स्मृतियों में लौट गया।


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फोटो साभार : लोकमत न्यूज
अच्छी किताब है। पतली भी। कई बार खोजा लेकिन किसी न किसी किताब के बीच दुबक जाती थी। कल पढ़ ही ली।  मज़बूत स्मरण शक्ति वाला ही संस्मरण लिख सकता है। प्रभात रंजन की पालतू बोहेमियन पढ़ते हुए लगा कि मनोहर श्याम जोशी से मिलते वक्त वे नज़र और स्मरण शक्ति गड़ा कर मिला करते होंगे। मनोहर श्याम जोशी से मैं भी मिला हूं। उसी साकेत वाले घर में कुछ दिनों तक जाता रहा हूं। फ़िल्म लेखन सीखने के लिए। अंधेरा लिए सुबह के वक्त बेर सराय से बस लेकर जाता था। समय के पाबंद थे। मुझे अब याद नहीं कि मैंने कैसे उनसे संपर्क किया था और उन्होंने क्यों हां कर दी। क्यों जाना छूट गया यह भी याद नहीं। लेकिन उनके घर जाता था। बैठकर स्क्रीप्ट की बारीकियां सीखता था और लौट कर बेर सराय के पार्क में खुले आसमान के नीचे फ्रेम सोचा करता था। उन्होंने सम्मान के साथ अपने गुर दिए। कभी बुरा अनुभव नहीं हुआ। पालतू बोहेमियन मेरी कमज़ोर स्मृतियों को चुनौती देने वाली किताब है। इसीलिए पढ़ता भी चला गया। वैसे व्यक्तिगत नाता नहीं भी होता तो भी यह पढ़ी जाने वाली किताब है।

इस किताब में दो लेखक हैं। एक जो बड़ा बन चुका है। एक जो बड़ा बनना चाहता है। लेकिन जो बन चुका है वो इतना बड़ा है कि उसके सामने आते ही बड़ा बनने वाला भरभराने लगता है। इस तरह मनोहर श्याम जोशी के पास जाते जाते किस्सा कोठागोई के प्रभात अपनी लेखकीय अक्षमता के विराट का दर्शन करने लगते हैं। उसी दर्शन में एक छोटा सा प्रण करते हैं कि एक दिन बड़ा लेखक बन कर रहेंगे। लेखक बनने के प्रण के संस्मरणों से पता चलता है कि छपना और पुरस्कृत होना बड़ा बनना है। वैसे इस किताब में मनोहर श्याम जोशी की दीर्घता में लघुता के भी नोट्स हैं। दो दर्जन से अधिक सीरीयल/फिल्में लिखीं जो शुरू ही नही हुई। प्रभात हल्के से बता देते हैं ।
जब आप किसी बड़े लेखक के संपर्क में आते हैं तब कितनी तरह की आशाएं पाल लेते हैं। उन आशाओं के बनते-बिखरने की प्रक्रिया में ईमानदारी दिखी। रघुवीर सहाय अज्ञेय को अनुवाद का काम दे रहे हैं, मनोहर श्याम जोशी प्रभात को रिसर्च का काम दिलवा रहे हैं। इन प्रसंगों से गुज़रते हुए हिन्दी का रचनात्मक प्रदेश असंगठित क्षेत्र की तरह नज़र आता है। जहां काम मिल जाए यही बहुत है। प्रोविडेंट फंड की कल्पना अय्याशी है। इन्हीं तरह के संयोगों से टकराते हुए, जोड़ते हुए लोगों के कहीं पहुचने की इस प्रक्रिया को वरदहस्त की तरह देखने वाले उस दिहाड़ी मज़दूर की कार्यकुशलता का ईमानदार मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं जो अपने कौशल को झोले में रखकर दरवाज़े-दरवाज़े भटकता है और अपनी शिल्प के निशान छोड़ता जाता है। फिर एक दिन वह  भी बड़ा लेखक बनकर दूसरे अकुशल मजदूरों को काम देने या दिलवाने लगता है। हिन्दी की यह श्रमशीलता है। वह नौकरी नहीं मज़दूरी पर जीती है।
अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी का प्रसंग भी मुझसे टकराता है। दिल्ली आकर लाइब्रेरी अलीबाबा के गुफा जैसी लगती थी। लगता कि कैसे इसके भीतर घुस जाएं। किसी का कार्ड मिल जाए तो किसी की मेंबरी। इस शहर की ख़बूसरत यादों में लाइब्रेरी-लाइब्रेरी करना शामिल है। सेट्र्ल सेक्रेटेरियट लाइब्रेरी, आई सी एच आर, तीन मूर्ति, अमेरिक सेंटर, ब्रिटिश लाइब्रेरी, सप्रू हाउस, डीयू की सेट्रल लाइब्रेरी, साइंस लाइब्रेरी, आर्ट्स फैकल्टी लाइब्रेरी, ग्रेटर कैलाश मे मनन लाइब्रेरी। दोस्तों से बच कर या भीड़ से बच कर एकांत की तलाश में लाइब्रेरी की तलाश याद रहेगी। वहां जाते ही लगता था कि जो लाइब्रेरी जाता है वो अच्छा होता है।प्रेम में साथ पढ़ना दुनिया की सबसे सुंदर रचनात्मक क्रिया है। अगल-बगल की कुर्सी पर बैठकर दो प्रेमी पाठक अपनी कल्पनाओं में खोए रहते हैं। किताब या तो मेज़ पर होती  है, या हाथ में। दिमाग़ बगल में होता है। सांसे कहीं और चल रही होती हैं। लाइब्रेरी जाया कीजिए। अकेले भी और किसी के साथ भी।   लाइब्रेरी के भीतर की शांति और पंखे की आवाज़ दुनिया की दिव्य अनुभूतियों में से एक है। बहरहाल। ख़ैर।
तो मज़ा आया। पालतू बोहेमियन के कारण मैं अपनी स्मृतियों में लौट गया।

125 रुपये की किताब है। राजकमल ने छापी है। मनोहर श्याम जोशी की मनोहर कथा है इसमें।


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