एमडीएम : शिक्षा जगत पर बदनुमा दाग


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अभी पिछले दिनों एमडीएम के तहत विद्यालयों में नमक-रोटी परोसे जाने का मामला प्रकाश में आने के बाद मैं बहुत आशान्वित था कि इस पूरे मामले पर व्यापक विमर्श होगा और एमडीएम की परत दर परत उधेड़े जाएंगे। इस तरह इसकी सार्थकता पर भी एक बहस आगे बढ़ेगी लेकिन हुआ वही “ढाक के तीन पात”। कुछ सस्पेंशन और बेचारे पत्रकार पर एफ आई आर के बाद पूरा मामला फिर से अंधेरे की गर्त में जा घुसा।

एमडीएम‘ के पक्ष में यह तर्क बड़े जोर-शोर से दिए जाते हैं कि इससे नामांकन एवं उपस्थिति विद्यालयों में बढ़ी है तथा विद्यालय आने वाले बच्चों को संतुलित आहार प्राप्त होता है। इस पुराने तर्क का आज के परिप्रेक्ष्य में जब समीक्षा ( जो होता नहीं है ) की जाए तो यह तर्क पूरी तरह अतार्किक लगता है। विगत पाँचों वर्षों से ना तो विद्यालय में नामांकन बढ़ा है ( बल्कि इसके उलट नामांकन घटा है ) और वास्तविक औसत उपस्थिति भी तकरीबन चालीस प्रतिशत पर आकर ठहर गई है। कहने का गरज यह है कि एमडीएम में अब पहले वाला आकर्षण नहीं रहा। रही बात संतुलित आहार की तो आए दिन आने वाले समाचारों एवं इसमें होने वाले चूकों ने इसकी पोल खोल कर रख दी है। सच पूछिए तो उपर्युक्त संदर्भ में आज एमडीएम का हवाला बेमानी लगता है।

यदि इसके प्रभाव या कहें दुष्प्रभाव पर भी एक नजर डाली जाए तभी इस योजना की पूरी सच्चाई समझ में आए। यह किस कदर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है जरा इसको देखें। इसकी शुरुआत होती है एफसीआई के गोदाम से मिलने वाले चावल के बोरे से जो तकरीबन अपने मानक वजन से दस प्रतिशत तक कम होते हैं। आप ना चाहते हुए भी उसे लेने को विवश हैं। अब बिल्कुल सामान्य सी बात है इसे पाटने के लिए शिक्षकों के द्वारा फर्जी उपस्थिति बनाना उनकी मजबूरी है। तो कुछ पैसे भी बनेंगे। यह पैसे प्रथम दृष्टया सबके नजर में है तो इससे जुड़े सभी इस लूट में अपना हिस्सा वैध समझते हैं। सबको “जलचौठ” चाहिए। इसकी आड़ में शिक्षकों का होने वाला शोषण केवल एक शिक्षक ही समझ सकता है। यह योजना शिक्षकों के चरित्र हनन का जरिया है। जब से यह योजना चली है गांव, समाज यहाँ तक कि छात्रों के बीच भी शिक्षकों को देखने का नजरिया बदला है। शिक्षकों की पूरी गरिमा एवं चाल-चरित्र इसने धूल-धूसरित कर छोड़ा है।

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एमडीएम ने विद्यालयी व्यवस्था की समरसता को भी तोड़ा है। चूंकि ये प्रधानाध्यापक की जिम्मेदारी है लिहाजा सहायक शिक्षक सामान्यतया इसमें कोई रूचि नहीं लेते और कुढ़ते हुए प्रधानाध्यापक इसका संचालन करते रहते हैं। आप एक दिन अपने घर में पार्टी – शार्टी करते हैं तो पाँच दिन पहले से हरान-परेशान रहते हैं यहाँ तो रोज का मामला है। इस प्रकार प्रधानाध्यापक एवं सहायकों के बीच अनपेक्षित दूरी आ जाती है। सहायक की नजर में भी प्रधानाध्यापक एक “माल मारने वाला जीव” ही बनकर रह जाता है। उसका दर्द उसके अपने भी नहीं समझ पाते। जहाँ सहायक इसमें प्रधानाध्यापक की मदद करते हैं तो उन्हें भी पारितोषिक की आस रहती है। फिर तो इतने लोगों को पेट भरने के लिए “संस्थागत लूट” ही एकमात्र विकल्प बचता है। साहब हालत तो इतने बुरे हैं कि कोई भी समझदार शिक्षक प्रधानाध्यापक बनने को तैयार नहीं है सभी अपनी प्रोन्नति छोड़े जा रहे हैं।

पाठशाला का पाकशाला में हुआ परिवर्तन पढ़ाई की गुणवत्ता को कितना प्रभावित किया है इस पर चर्चा से पूरा का पूरा महकमा कतराता है। मीटिंग का मुख्य एजेंडा एमडीएम ही रहता है। समतायुक्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बीते जमाने की बात होकर रह गई है। विद्यालय का मुख्य कार्य आने वाले बच्चों को मध्याह्न भोजन कराकर चलता करने का है। विद्यालय का सबसे तेज लड़का भी सीखने के न्यूनतम अधिगम स्तर को प्राप्त नहीं कर पाता। सीखने- सिखाने का पूरा वातावरण ही विद्यालय परिवेश से लुप्त हो चुका है। पढ़ने-पढ़ाने का समय भी अप्रत्याशित रूप से घट गया है और शिक्षक आने-जाने का वेतन पाने लगे हैं। विद्यालयों में पढ़ाई अब प्राथमिक कार्य नहीं गौण कार्य बनकर रह गया है। पहले तो “सरकारी विद्यालय” के बच्चे “कान्वेंट टीच” बच्चों के साथ प्रतियोगिता में थे भी लेकिन आज ऐसा संभव नहीं है। यह ह्रास एमडीएम के बाद का है।

इस पूरी बात को शिक्षा विभाग का प्रत्येक पदाधिकारी गहराई से समझता है परंतु ना जाने क्यों इसमें परिवर्तन की कोई पहल क्यों नहीं कर पाता? यह योजना एक “दुधारू गाय” है बस केवल इतना सा ही कारण है या हम सभी “लेगी किस्म” के लोग हैं जो किसी भी तरह के परिवर्तन से घबराते हैं। अजी साहब आप “सेंट्रलाइज किचन” की व्यवस्था कीजिए या “बच्चों के एमडीएम की राशि का उसके खाते में अंतरण” । बस इसे विद्यालय से हटाइए वरना आपके विद्यालय में एक भी बच्चे नहीं रहेंगे। लोग भोजन की समस्या से आगे बढ़ चुके हैं।


आलेख : निशिकांत ठाकुर ( लेखक पेशे से शिक्षक हैं )

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