बाबा विद्यापति और इनकी एक रचना- जय जय भैरवी ।


Maithil Kavi Kokil VIDYAPATI

एक रचनाकार अपने जीवन काल मे अनगिनत रचना करता है । जिसमे से मात्र कुछ ही रचना लोकप्रिय हो पाती है और साथ ही रचनाकार को प्रसिद्धि दिला पाती है , अपवाद स्वरूप मात्र कुछ ही ऐसे रचनाकार है जिन्होने मात्र कुछ रचना की और उसी से प्रसिद्ध हुए ।

                        समान्यतः किसी व्यक्ति को उसके कर्मो से ही पहचाना जाता है ,अगर वह बुरा कर्म कर रहा है तो उसकी पहचान एक खराब इन्सान के रूप मे और यदि वह कुछ अच्छे कार्यो को अंजाम दे रहा है तो समाज मे उसकी छवि एक अच्छे इन्सान के रूप मे बनेगी उसी प्रकार एक लेखक /कवि /साहित्यकार अपने कृति से पहचाने जाते है ।कुछ साहित्यकार अपने जीवनकाल मे ही प्रसिद्धि पा लेते है तो कुछ मरणोपरांत , कुछ ऐसे भी है जो अपने जीवन काल मे जितने लोकप्रिय थे उतने ही लोकप्रिय पाँच छ दशक बीतने के बाबजूद भी उतने ही लोकप्रिय है ।
लेकिन ऐसे साहित्यकार की संख्या अंगुली पर गिनने भर है , ऐसे ही कवि / रचनाकार है बाबा विद्यापति और इनकी कलम से निकली एक रचना – जय जय भैरवी ।

Maithil Kavi Kokil VIDYAPATI

बाबा विद्यापति ने अपनी रचना मुख्यतः मैथिली एंव अवहट्ट मे की है । मैथिली भाषा का उल्लेख होते ही इसका इतिहास लगभग विद्यापति से ही आरम्भ होती है , यदि मैथिली रचनाकारो की लोकप्रियता की बात की जाय तो तो इस कतार मे भी कवि विद्यापति ही मिलते है लगभग छः दशक बीतने के बाबजूद भी कोई भी रचनाकार इनके बराबर तो क्या आसपास भी नही पहुँच पाये है ।
विद्यापति के समय मे संस्कृत भाषा का बोलवाला था ,इस सम्बन्ध मे इन्होंने टिप्पणी करते हुऐ कहा था ” संस्कृत प्रबुद्ध जनो की भाषा है तथा इस भाषा से आम जनो को कोई सरोकार नही है |”   प्राकृत भाषा मे वह रस नही है जो  आम जान को समझ मे आये, शायद  इसलिए तो उन्होंने अपभ्रंश भाषा मे रचना की थी ।

विद्यापति के पदो मे कभी तो घोर भक्तिवादी तो कभी घोर शृंगारिकता दिखती है । इनकी रचना को पढ़ते हुऐ पता ही नही चलता है की  श्रगांर सरिता मे डूबते हुए कब भक्ति के सुरम्य तट पर आ खरे हुए , भक्ति और श्रृंगार का संगम शायद कीकही और होगा । विद्यापति को पढ़ने वाला इनको भक्त या श्रृंगारिक कवि के रूप मे मानते है और यह सत्य भी है ।
उस समय एंव अभी भी भारतीय काव्य एंव संस्क़तिक परिवेश मे गीति काव्य को बड़ा महत्व है और विद्यापति की कव्यात्मक विविधता ही उनकी विशेषता है ।
विद्यापति के काव्य मे भक्ति एंव श्रृंगार के साथ साथ गीति प्रधानता मिलती है ,
इनकी यही गीतात्मकता इन्हें अन्य कवियों से भिन्न करती है ।

ऐसे ही इनकी गीतात्मक शैली का एक उदाहरण है – जय जय भैरवी असुर भयावनि …. , जो की मेरी प्रिय रचनाओ मे से एक है , और मैं ही क्यो शायद ही कोई मैथिली भाषा क्षेत्र का कोई ऐसे व्यक्ति होगा जिसके जिह्वा पर ये गीत ना हो , इसकी लोकप्रियता तो इसीसे साबित होती है की मिथिला क्षेत्र का कोई भी शुभ कार्य का आरम्भ इसी से किया जाता है । चाहे आयोजन छोटा हो या बड़ा सबका शुभारम्भ एंव समापन इसी से होता है ।

इस गीत के माध्यम से माँ जगदम्बा के बिभिन्न रुपो का वर्णन  किया गया है , पहली पन्ति मे कवि कहते है हे माँ आप असुरो के लिए तो आप भयानक हो लेकिन अपने पति शिव के लिए प्रेयसि – पत्नी । वही दूसरी ओर कवि कहते है माँ आपके पैर तो दिन रात लाशो के ऊपर रहता है , परन्तु आपके माथे पर लगा चन्दन मड़टिका की तरह शोभित है । आहा ! माँ भगवती के रुपो का कितना अच्छा वर्णन । भगवती के रुपो का  इतना अच्छा वर्णन शायद ही कही और मिले , गौर करिये कितना वड़ा विरोधाभास , एक रूप विकर्षक तो दूसरा आकर्षक ।
अंत मे कवि कहते है –
घन घन घुंघुर कत बाजे हन हन कर तु काता
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक पुत्र बिसरू जन माता
अर्थात है माते आपके कमर का घुंघरू घन घन ध्वनी कर रही है तो दूसरी ओर हाथ का खड्ग हन हन , गौर करिये एक श्रृंगार रस तो दूसरा वीर रस का भाव और साथ ही कवि कहते है मैं आपके चरणों का सेवक हूँ हे माते मुझे भूलयेगा मत ।इतने कम शब्दों मे और इतने सारे रसो का प्रयोग करते हुई शायद ही किसी ने ऐसी रचना की होगी ।

भौतिकवादी युग मे मे कविता की प्यास और भी अधिक बढ़ जाती है   शायद यही वो कारण है जो  प्रत्येक  मानव इस प्रांगण मे आ के नतमस्तक हो जाता है और इस रूप मे विद्यापति की रचना सदैव ताजी रहेगी गौर करने वाली बात ये है की जो साहित्य जातीय ओर युगीन परिस्थिति से उपजता है वह अधिक दिनों तक नही टिक पाता है । विद्यापति के काव्य मे एक ओर उनका युग  और समाज बोल रहा है तो दूसरी ओर  सार्वभौम  भावनाओ के स्वर फुट रहे है । शायद यही वो वजह है जो छः दशक वितने के बाबजूद विद्यापति आज भी प्रसांगिक है ।
और साथ ही मानवीय भावनाओ की रमणीय अभिव्यक्तियों के कारण कवि विद्यापति कभी अप्रसांगिक नही हो सकते और ना ही उनकी रचना -जय जय भैरवी


लेखक : मुकुंद मयंक 

Email: mukundjee.mayank@gmail.com


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