स्टेज सज ही रहा था, साउंड बॉक्स लाइट और म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट लगाया जा रहा था, स्टेज के आगे युवाओं की भीड़ जमने शुरू हो गए थे. कुछ लोग इधर उधर टहल रहे थे. कुछ आपस में बात कर रहे थे और कुछ युवा इधर उधर बैठ आर्केस्ट्रा के शुरू होने का इंतजार कर रहे थे. अभी आर्केस्ट्रा के शुरू होने में कुछ समय बाकी ही था कि एकाएक भीड़ में हलचल मचती है और युवाओं की टोली स्टेज के पीछे उत्सुकता से जाने लगती है ना जाने क्यों ? जो भीर आगे खड़ी होनी चाहिए वह स्टेज के पीछे आँखों का चैन ढूंढने लगती है फिर शुरू होता है वह अनोखा रोमांचित करने वाला ताक-झांक. जी हां !!!!
आर्केस्ट्रा में जो लड़कियां आती है उसके लिए स्टेज के पीछे कपड़ों के घेरे में एक छोटा सा कमरा बनाया गया होता है सारे लोग उसी के पास जाकर अटक जाते हैं. कोई ताक-झांक करने में व्यस्त है तो कोई पर्दा उठा रहा है, कोई टेंट खींच रहा है तो कोई टेंट के छोटे से छेद को बड़ा कर आँखों को सकूंन दे रहा है. और नाटा कद वाला भी कहाँ पीछे रहने वाला ! साथी के कंधे पर छरप के उचक-उचक कर कपड़े से बने कमरे में इस तरह देख रहा है जैसे स्वर्ग से कोई अप्सरा धरती के उसी कमरे में उतर आई हो.
धक्का मुक्की भी करना पड़े तो ताक झांक से पीछे नहीं हटने वाले ! और ताक झांक करे भी क्यों न जनाब !!! पूरा एक साल इंतजार इसी दिन के लिये तो किये हैं. भूखे पेट रात दिन मेहनत कर घर-घर से चंदा मांग पचास हजार रुपया इक्कठे फूंक जो आयें हैं ! तो फिर ताक झांक भी न करें ! असली मजा तो स्टेज के पीछे ही है न !
लेखक : अविनाश भारतद्वाज
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