
भारत के दार्शनिक और उद्भव तथा सांस्कृतिक और साहित्यिक विकास के क्षेत्र में मिथिला का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । मिथिला का इतिहास निस्संदेह गौरवमय रहा है, सामान्यतः आज भी साहित्यिक स्रोतों के आधार पर ही ऐतिहासिक ग्रन्थ आलेख का अंग बन जाता है । पुरातात्विक अवशेषों का अन्वेषण, विश्लेषण में पूरा पाषाण काल, मध्यकाल अथवा नव पाषाण काल के कई अवशेष अभी तक प्रकाश में नहीं आये हैं ।

उत्तर बिहार के तीरभुक्ति ( तिरहुत ) क्षेत्र में पुरातात्विक दृष्टिकोण से वैशाली पुरास्थल के बाद अगर कोई दूसरा महत्वपूर्ण पुरातत्व स्थल प्रकाश में आया तो वह है बलिराजगढ़, जिसे डी• आर• पाटिल बलराजपुर लिखते हैं । यह स्थल हिमालय की तराई में भारत-नेपाल के सीमा से लगभग 15 किलोमीटर दूर वर्तमान में बिहार प्रान्त में अवस्थित है । प्राचीन मिथिलांचल के लगभग मध्यभाग में मधुबनी जिला से 30 किलोमीटर की दुरी पर बाबूबरही थाना के अन्तर्गत आता है । इस स्थान पर पहुँचने के लिए रेल और सड़क मार्ग दोनों की सुविधा उपलब्ध है । बलिराजगढ़ कामला-बलान नदी से 7 किलोमीटर पूर्व और कोसी नदी से 35 किलोमीटर पश्चिम में उपजाऊ भूमि पर अवस्थित है ।
वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में मिथिला अति प्रसिद्ध विदेह राज्य के रूप में जाना जाता था । द्वितीय नगरीकरण अथवा महाजनपद काल में वज्जि संघ, लिच्छवी संघ आदि नाम से प्रसिद्ध रहा है । इस क्षेत्र ( बलिराजगढ़ ) का महत्व देखते हुए कुछ विद्वान् इसे प्राचीन मिथिला की राजधानी के रूप में संबोधित करते है । यहाँ का विशाल दुर्ग रक्षा प्राचीर से रक्षित पूरास्थल निश्चित रूप से तत्कालीन नगर व्यवस्था में सर्वोत्कृष्ट स्थान रखता था ।

175 एकड़ वाले विशाल भूखंड को बलिराजगढ़, बलराजगढ़ या बलिगढ़ कहा जाता है । यह क्षेत्र बहुत ही चौड़ी दीवार से चारों तरफ से घिरा हुआ है और सुरक्षित अवस्था में है । स्थानीय लोगों का मानना है की महाकाव्यों और पुराणों में वर्णित दानवराज बलि की राजधानी का ये ध्वंष अवशेष है । ओ० मैले के अनुसार स्थानीय लोगों का विश्वास है की इस समय भी रजा बलि अपने सैनिकों के साथ इस किले में निवास करते हैं और सम्भवतः इसी अफ़वाह के कारण ही इस भूमि को खेती के लिए कोई भी जोतने की हिम्मत नही करता है । इसी प्रचलित अफवाह के चलते इस भूमि और किले की सुरक्षा अपने आप होती रही ।

बुकानन के अनुसार वेणु, विराजण और सहसमल का चौथा भाई बलि एक राजा था । यह बंगाल के राजा बल का किला था जिसका शासनकाल कुछ दिनों के लिए मिथिला पर भी था । बुकानन के अनुसार वे लोग दोमकटा ब्राह्मण थे जो महाभारत में वर्णित राजा युधिष्ठिर के समकालीन थे, किन्तु डी• आर• पाटिल इसे ख़ारिज कर दिए । इनका कहना है की वेणुगढ़ तथा विरजण गढ़ के किले से बलिराजगढ़ की दुरी बहुत ज्यदा है । एक अन्य विद्वान् इस गढ़ को विदेह राज जनक के अंतिम सम्राट द्वारा निर्मित मानाते हैं । उनके अनुसार जनक राजवंश के अंतिम चरण में आकर वंश कई शाखा में बँट गया और उन्हीं में से एक शासक द्वारा बनाये गए किले का नाम बलिगढ़ पड़ा ।
“प्रो• उपेन्द्र ठाकुर” ने बलिराजगढ़ का उल्लेख करते हुए लिखा है की प्रख्यात चीनी यात्री ह्वेनसांग ने तीरभुक्ति भ्रमण क्रम में वैशाली गए तथा वैशाली से (चेन-सुन-ना) संभवतः बलिगढ़ गए और वहां से बड़ी नदी अर्थात महानन्दा के निकट आए । बलिराजगढ़ के ऐतिहासिकता के लिए एक तर्क यह भी है की विदेह राज जनक की राजधानी अर्थात रामायण में वर्णित मिथिलापुरी यहीं स्थित थी । यधपि मिथिलापुरी की पहचान आधुनिक जनकपुर (नेपाल) से की गयी है किन्तु पुरातात्विक सामग्रियों के आभाव में इसे सीधे मान लेना कठिन है । रामायण के अनुसार राम, लक्ष्मण और विश्वामित्र गौतम आश्रम से ईशाणकोण की ओर चलकर मिथिला के यज्ञ मण्डप पहुँचे । गौतम आश्रम की पहचान दरभंगा जिले के ब्रह्मपुर गांव से की गयी है । जिसका उल्लेख स्कन्दपुराण में भी मिलता है । आधुनिक जनकपुर गौतम आश्रम अर्थात ब्रह्मपुर से ईशाणकोण न होकर उत्तर दिशा में है । इस तरह गौतम आश्रम से ईशाणकोण में बलिराजगढ़ के अलावा और कोई ऐतिहासिक स्थल दिखाई नहीं देता है, जिसपर प्राचीन मिथिलापुरी होने की सम्भावना व्यक्त की जा सके । अतः बलिराजगढ़ के पक्ष में ऐसे तर्क दिए जा सकते है की मिथिलापुरी इस स्थल पर स्थित थी ।
पाल साहित्य में कहा गया है की अंग की राजधानी आधुनिक भागलपुर से मिथिलापुरी साठ योजन की दुरी पर थी । महाउम्मग जातक के अनुसार नगर के चारों द्वार पर चार बाजार थे जिसे यवमज्क्ष्क कहा जाता था बलिराजगढ़ से प्राप्त पुरावशेष इस बात की पुष्टि करता है की बौद्धकालीन मिथिलानगरी का ध्वंशावशेष भी बलिराजगढ़ ही है ।
बलिराजगढ़ जे पुरातात्विक महत्व को सर्वप्रथम 1884 में प्रसिद्ध प्रसाशक, इतिहासकार और भाषाविद् जार्ज ग्रीयर्सन ने उत्खनन के माध्यम से उजागर करने की चेष्टा की, किन्तु बात यथा स्थान रह गयी । ग्रियर्सन के उल्लेखके बाद भारत सरकार के द्वारा 1938 में इस महत्वपूर्ण पुरास्थल को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में घोषित कर दिया गया ।
सर्वप्रथम इस पुरास्थल का उत्खनन 1962-63 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण रघुवीर सिंह के निर्देशन संपादित हुआ । इस उत्खनन से ज्ञात हुआ की जो इस विशाल सुरक्षा दीवाल के निर्माण में पकी ईट के साथ मध्यभाग में कच्ची ईट का प्रयोग किया गया है । सुरक्षा प्राचीर के दोनों ओर पकी ईटों का प्रयोग दीवार को मजबूती प्रदान करती है । सुरक्षा दीवार की चौड़ाई सतह पर 8.18 मी. और 3.6 मी. तक है । सुरक्षा दीवार का निर्माण लगभग तीसरी शताब्दी ई.पू. से लेकर लगातार पालकालीन अवशेष लगभग 12-13 शताब्दी पर प्राप्त होता है । पुरावशेष में सुंदर रूप से गढ़ित मृण्मूर्ति महत्वपूर्ण है ।
इसके बाद 1972-73 और 1974-75 में बिहार राज्य पुरातत्व संग्रहालय द्वारा उत्खनन किया गया । इस उत्खनन कार्य में बी.पी सिंह के समान्य निर्देशन में सीता राम रॉय द्वारा के.के सिन्हा, एन. सी.घोष, एल. पी. सिन्हा तथा आर.पी सिंह के सहयोग से किया गया । उक्त खुदाई में पुरावशेषों तथा भवनों के अवशेष प्राप्त हुए । इस उत्खनन में उत्तर कृष्ण मर्जित मृदभांड से लेकर पालकाल तक का मृदभांड मिला है । सुंदर मृण्मूर्ति अथाह संख्या में मिला है, अर्ध्यमूल्यवाल पत्थर से बना मोती, तांबो के सिक्के, मिट्टी का मुद्रा प्राप्त हुआ है । अभी हाल में 2013-14 में एक बार फिर उत्खनन कार्य भरतीय पुरातत्व सर्वेक्षण पटना मण्डल के मदन सिंह चौहान, सुनील कुमार झा और उनके मित्रों द्वारा उत्खनन कार्य किया गया।
इस स्थल के उत्खनन में मुख्य रूप से चार संस्कृति काल प्रकाश में आये ।
1-उत्तर कृष्ण मर्जित मृदभांड / 2-शुंग कुषाण काल / 3-गुप्त उत्तर गुप्तकला / 4-पाककालीन अवशेष
इस स्थल से अभी तक पुरावशेष में तस्तरी, थाली, पत्थर के वस्तु, हड्डी और लोहा, बालुयुक्त महीन कण, विशाल संग्रह पात्र, सिक्के, मनके, मंदिर के भवनावशेष प्राप्त हुए है और एक महिला की मूर्ति भी प्राप्त हुई है जो गोदी में बच्चे को स्तन से लगायी है ।
यहाँ सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य में प्राचीर दीवार है जो पकी ईट से बनी हुई है और अभी तक सुरक्षित अवस्था में है दीवार में कहीं कहीं कच्ची ईटों का प्रयोग किया गया है । यहाँ प्रयोग की गयी ईटो की लंबाई 25 इंच और चौड़ाई 14 इंच तक है ।
पाल काल या सेन काल के अंत में भीषण बाढ़ द्वारा आयी मिट्टी के जमाव कही कही 1 मीटर तक है । इससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है की इस महत्वपूर्ण कारक क्या रहा है । इस समय में कोई पुरास्थल मिथिला क्षेत्र में इतना वैभवशाली नही प्राप्त हुआ है । कुछ विद्वान द्वारा इस पुरास्थल की पहचान प्राचीन मिथिला नगरी के राजधानी के रूप में चिन्हित करते है । ये पुरास्थल मिथिला की राजधानी है की नहीं इस विषय में और अधिक अध्ययन और पुरातात्विक उत्खनन और अन्वेषण की आवश्यकता है ।
प्रिय पाठकों आपको यह आलेख कैसा लगा comment box में अपना राय आवश्य दें !
Bahut hi achci shodh he. Is shodh me un jagahon par bhi prakash dala gaya he Jisme hmara Itahash aur Dharm Granth jese ki Ramayan, Mahabharat ka sammilan hota he. Is tarah ke lekh, Aitihashik drishtikon se mahatvapurna to he hi aur sath hi sath is baat ki anivaryta prakat karte he ki Puratatvik shodhon me dharm granthon ki upeksha nahi honi chahiye.
धन्यवाद ! अनुराग आनंद जी |
Thanks 😊😊😘