समस्त ब्रम्हांड का आधार बदलाव है। युग-युगांतर से बदलाव होते रहे हैं तथा होते रहेंगे। परंतु जब मैं… इस भीड़ से परे वर्तमान पर दृष्टि डालता हूं,तो मन विस्मय से भर उठता है। एक सवाल बार-बार जेहन में उठता है कि क्या हमारे पुरखों ने इसी परिवर्तित समाज की परिकल्पना की होगी? उत्तर शायद नकारात्मक मिलेगा।
आइए अब हम कल्पना की उड़ान में कुछ काल के अतीत में चलें। सर्दी का मौसम और अनवरत जलता हुआ अलाव। हम अपने परिवार और दोस्तों संग दिनभर की घटनाओं पर चर्चा करते थे। रात वीरान होती जाती पर लोगों के अपनत्वऔर उमंग पर कोई छाप नहीं छोड़ पाती। परंतु अब तो लोगों को जोड़ने वाले अलाव का अर्थ भी शब्दकोश में देखना पड़ता है। लोग तो यहां गुमसुम से हीटर के पास बैठे खुद को ढूंढते रहते हैं।
मुझे याद है बचपन में हम शाम होते ही लैम्प जलाकर घर,बरामदे,बैसकी इत्यादि में साँझ दिखाने के उपरांत पढ़ने बैठ जाते थे। दरवाजे पर युवकों एवं बुजुर्गों की बैठक लगी रहती थी। प्रत्येक घर के दरवाजे पर एक अलग ही रौनक बिखरी होती थी। मुझे आज के इनवर्टर की सुविधा- युक्त पढ़ाई से भाइयों के साथ डिबिया के मध्यम रौशनी में पढ़ना अधिक रुचिकर लगता है। पहले हम सुबह में दोस्तों के संग झूमते गाते हुए स्कूल जाते और शाम में धूल मिट्टी से नहाए हुए घर आते। नंगे पैर दौड़ते,भागते और मैदान में खेलते रहते थे। कितने समीप थे हम अपनी माटी के। आज तो गांव में भी स्कूल बस आती है। लुका-छिपी,कबड्डी डाल-डाल,डिगा-डिगा,गुल्ली-डंडा इत्यादि खेलों का स्थान मोबाइल गेम्स ने ले लिया है। बच्चों से उनकी बचपन छीन गई है।
आसमान में मँडराते बादल को देखकर मन झूमने लगता था। बच्चे बारिश में भींगने को आतुर रहते थे।किसान भी आज की तरह खेती के लिए नलकूपों के ऊपर पूर्णतया आश्रित नहीं थे,उन्हें बारिश से प्रयाप्त पानी प्राप्त हो जाती थी। कृषक हवा की चाल देखकर मौसम का मिजाज भाँप जाते थे।भविष्य के किसी कार्यक्रम का निर्धारण ग्रह-नक्षत्र को देख कर किया जाता था। रातों में चाँद तारों को देखते देखते हम नींद के आगोश में चले जाते थे किंतु आज के व्यस्त जीवन में चाँद को देखे हुए महीनों बीत जाते हैं। शायद हमें याद भी नहीं कि हमने पिछली बार चाँद को इस नजरिए से कब देखा था। मनुष्य तथा प्रकृति के बीच सामंजस्य में आश्चर्यजनक कमी आई है।
गर्मी के मौसम में बाग बगीचा में चहल-पहल मची रहती थी। प्रायः सभी के पास आम का बगीचा होता था जिनमें अब काफी ह्रास आया है। चिलचिलाती गर्मी से बचने को लोग पेड़ोंकी छाँव में बैठते व अपने सुख-दुख साझा करते।कहीं फगुवा,कही चैतावर,तो कहीं पर बरहमासा के धुन गुंजायमान होते।वर्तमान में ये धुन कहीं इस वातावरण में खो से गए हैं।जिस डाल पर हम झूला लगाकर दिनभर झूलते रहते थे वह डाल आज सूना लग रहा है।
वो होली का दिन आज भी याद आता है,जब हम महीने भर पहले से ही दिन गिना करते थे। इस त्योहार में सबों में उमंग होता था। सुबह उठकर हम बड़े-बुजुर्गों के पैरों पर गुलाल डालकर उनका आशीर्वाद लेते थे। घर में अनेक तरह के व्यंजन बनते,जिन्हें हम प्रत्येक घर आने-जाने वालों में बांटते थे। दिन चढ़ने के साथ ही होली की मस्ती भी जवान होती जाती,लोग सभी के घरों पर जाकर रंग खेलते थे।फिर क्या बच्चे,क्या जवान,क्या बूढ़े सभी आपसी दूरियों को मिटा कर होली के रंग में रंग जाते थे। शाम होने के साथ ही रंग-गुलालों का दौर भी थम जाता था और फिर जानी को देखने के लिए हुजूम लगता।त्योहार भाईचारे और प्रेम सिखाते थे। वर्तमान में यदि कोई किसी पर रंग डाल देता है तो एक अलग ही बवंडर खड़ा हो जाता है।हम होली के दिन बाहर नहीं निकलते हैं कि कहीं कोई रंग न डाल दे।
आज गाँव की कच्ची सड़क भले ही पक्की हो गई पर सड़क के किनारे लहराते पेड़ नहीं रहे। हम कहाँ से कहाँ आ गए हैं। किसी की जिंदगी व्यस्त तो किसी की जिंदगी अस्त-व्यस्त है।मनुष्य भी धीरे-धीरे मशीन बनते जा रहे हैं।हमने अपने वर्तमान को प्रेम,सुकून व अपनत्व के बदले प्राप्त किया है। मुझे अपने गजल का एक शेर याद आ रहा है-
“ये लोग हु-ब-हू हैं बस सूरत बदल चुकी है
शायद मेरे मुल्क की हुकूमत बदल चुकी है”
सुमित मिश्र ‘गुंजन’
करियन,समस्तीपुर
Mob. 8434810179
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