डॉ लक्ष्मण झा का जन्म दरभंगा जिला के रसियारी गाँव मे हुआ था। शुरुआती पढाई प्रसिद्ध विद्वान पंडित रमानाथ झा के सानिध्य में हुआ। बचपन से ही भौतिक और सांसारिक चीजों से प्राकृतिक दूरी सी हो गई थी। घर वाले बचपन मे ही बियाह करवाना चाहते थे लेकिन वो सीधे मना कर देते, बारंबार विवाह प्रस्ताव से पड़ेशान होकर एक बार घरवालों को डराने के लिए वो हाथी से कूद गए। कहीं सन्यास लेकर घर न छोड़ दे घर वालों ने इस डर से शादी के लिए कहना छोड़ दिया
11 वर्ष की उम्र से ही स्वतंत्रता आंदोलन में एक्टिवली भाग लेने लगे, साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन और 15 साल की उम्र में 1930-31 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भागीदारी दी। 1934 के भूकम्प के वक्त वो केवल 18 वर्ष के थे लेकिन राजेन्द्र प्रसाद के बिहार सेंट्रल रिलीफ कमीटी से जुड़कर राहत काम किया। भागलपुर से इंटर, पटना कॉलेज से संस्कृत में स्नातक में स्वर्ण पदक प्राप्त करने के बाद 1942 के आंदोलन के कारण उनकी स्नातकोत्तर की पढ़ाई बाधित हो गई। ये आंदोलन में इतने सक्रिय थे की जब राजेन्द्र प्रसाद को गिरफ्तार किया गया तो अगस्त क्रांति के नेतृत्व के लिए इन्हें बिहार प्रदेश आंदोलन कमीटी का महासचिव बनाया गया और आगे आंदोलन में सचिवालय पर झंडा फहराने की घटना और पुलिस फायरिंग में सात छात्रों की मौत के बाद पूरा बिहार अगस्त क्रांति में कूद पड़ा। लक्ष्मण झा मलेरिया के तेज बुखाड़ के चपेट में आ गए, उन्हें गांव वापस आना पड़ा लेकिन गांव आते ही उन्होंने स्वतंत्र जनता राज की घोषणा कर दी, 1 महीने तक बिरौल क्षेत्र में ब्रिटिश राज पूरी तरह उठ गया और जनता राज कायम रही जिसका देखरेख स्वयंसेवक करते थे। बाद में ब्रिटिश सत्ता पुनर्स्थापित होने के बाद लक्ष्मण झा नेपाल की ओर निकल गए लेकिन बाद में किसी ने मुखबिरी कर दी और इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इनका अगला 5 साल भागलपुर जेल में बीता ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जेल से छूटे तो बिहार सरकार के छात्रवृत्ति पर 1947 में आगे पढ़ने के लिए इंग्लैंड चले गए। वहाँ का एक मजेदार किस्सा है, इन्होंने एम.ए. में एडमिशन तो लिया था पर स्वतन्त्रता आंदोलन के कारण इनकी एम. ए कम्प्लीट नहीं हुई थी, इंग्लैंड जाने के बाद इन्होंने सीधा पीएचडी की अनुमति मांगी। बिना एमए सीधा पीएचडी मांगते छात्र के इंटरव्यू के लिए पैनल बिठाया गया, इंटरव्यू ऐसा हुआ की उसके बाद इन्हें एमए की मानद डिग्री दी गई और सीधा पीएचडी करने की अनुमति भी। डॉ केनेथ केडिंगश के निदेशन में उन्होंने “मिथिला और मगध” विषय पर शोध पूरा किया और 1949 में भारत लौट आए।
पढ़ने को इन्हें मिली छात्रवृत्ति के लिए मौखिक शर्त थी सरकारी नौकरी । इन्होंने पटना के काशीप्रसाद जयसवाल शोध संस्थान में उपनिदेशक की नौकरी की, बाद में इन्होंने 1952 का चुनाव भी लड़ा पर अपने ही दल के नेताओं के षड्यंत्र व कुटिल चाल के कारण हार गए। फिर उन्होंने राजनीति से सन्यास की घोषणा कर दी किंतु सरकार ने पाँच वर्ष सरकारी नौकरी की शर्त मामले में इनपर मुकदमा कर दिया। वैसे छात्रवृत्ति के लिए इस शर्त का कोई लिखित दस्तावेज नहीं था, सिर्फ मौखिक वचन दिया था इन्होंने लेकिन नेता लोग जानते थे की लक्ष्मण झा झूठ नहीं बोलेंगे । और वही हुआ की अपने वकील के मना करने के बाद भी इन्होंने अदालत में अपने वचन को स्वीकार कर लिया और फलतः इनकी 42 बीघा की पूरी जमीन की कुर्की का आदेश हो गया। किंतु इनके जमीन की नीलामी का दुस्साहस किसी का नहीं हुआ, बाद में इनके बड़े भाई ने स्वयं नीलामी में जाकर घर की सम्पत्ति छुड़ाई।
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उसके बाद इन्होंने सीएम कॉलेज दरभंगा में व्याख्याता की नौकरी की और ‘मिथिला’ साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन भी आरंभ किया। इन्होंने नेताओं की इतनी आलोचना की की परिणामस्वरूप ये कह कर की इनके पास किसी भारतीय विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री नहीं है उन्हें पद से हटा दिया गया। लक्ष्मण झा यही चाहते थे इसलिए आगे उन्होंने इसके ख़िलाफ़ कोई अपील भी नहीं किया। दरभंगा महाराज द्वारा संचालित उस वक्त के प्रमुख अख़बार द इंडियन नेशन मे 1963-1972 के बीच उनके 130 लेख छपे लेकिन फिर बाद में अख़बार के कांग्रेसी रुझान के कारण वहाँ से भी कराड़ टूट गया। गांव में 43 बीघा जमीन होने के बाद भी वे वहाँ से कुछ नहीं मंगाते थे बल्कि लेख छापकर ही अपना खर्चा-पानी निकालते थे। सरकारी धन छूने से साफ इंकार था, स्वतन्त्रता सेनानी की पेंशन लेने से भी जब उन्होंने इनकार कर दिया तो इंदिरा गांधी ने विशेष दूत भिजवाकर दोगुनी राशि का प्रस्ताव रक्खा लेकिन फिर भी वो नहीं माने । 1977 में जब उनके शिष्य कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने तो इनसे मिथिला विश्वविद्यालय का कुलपति बनने का आग्रह किया।
इन्होंने शर्त रक्खी की ये वेतन नहीं लेंगे, सरकारी आवास का प्रयोग अपने रहने के लिए नहीं करेंगे और बिना किसी राजनीतिक या ऊपरी दवाब के काम करेंगे । मिथिला यूनिवर्सिटी में कुछ ही दिनों में इन्होंने बदलाव की नई इबारत लिखना शुरू किया, कर्तव्य के प्रति इतने कठोर थे की क्लास नहीं लेने वाले अनेक शिक्षकों का वेतन इन्होंने रुकवा दिया। यह मिथिला का दुर्भाग्य था की इतने विद्वत और पौरुषी व्यक्ति को यहाँ के मूर्ख शिक्षक झेल नहीं सके, उनसबके असभ्य आचरण के कारण क्षुब्ध होकर लक्ष्मण जी ने त्यागपत्र दे दिया।
इसके बाद ये लेखन-भक्ति और साधना में लग गए । एकांतप्रिय थे, अपरिग्रही थे कुछ भी संचय नहीं करते थे, एकभुक्त थे आठ प्रहर में 3 रोटी का भोजन, भारतीय और पाश्चात्य दोनों विद्याओं के विद्वान थे पर अपने नाम के साथ कभी डॉक्टर नहीं लगाते थे । उम्रभर शादी नहीं की और ब्रह्मचारी रहे। उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और मैथिली तीनों मिलाकर लगभग 50 से ऊपर किताबें लिखी पर अपने जीवन मे उन्हें छपवाना नहीं चाहते थे । 1950-52 के बीच आठ पुस्तिकाएं छपवाई थी जिसमे उन्होंने नेहरू और अंगरेजों के षड्यंत्र और गलत तरीके से हुई सत्ता हस्तांतरण के बारे में आलोचना की थी, नेहरू जी ने वो सारी किताबें प्रतिबंधित कर दिया ।
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लक्ष्मण झा जी ने मिथिला-मैथिली के मुहीम को एक नया रूप दिया और कई छोटे-बड़े आंदोलनों के मार्फ़त इसे जिंदा रक्खा । सुगौली संधि के तहत भारत और नेपाल के बीच बांटे गए मिथिला को एक करने के लिए इन्होंने बॉर्डर पर पिलर-तोड़ अभियान शुरू किया और मिथिला को विभाजित मानने से इनकार कर दिया। इन्होंने 1952 में अलग मिथिला राज्य के लिए एक बड़ा आंदोलन किया था, बाद में ये एक्टिव पॉलिटिक्स से दूर हो गए पर मिथिला-मैथिली के लिए लगातार काम करते रहे। इन जैसे व्यक्तित्व को हम अपना हीरो नहीं बना सके ये हमारी सबसे बड़ी असफलता है।
विद्वान इतना की जिसकी कोई तुलना नहीं, बचपन से ही आन्दोलनी, सन्यासी ऐसा की जैसे वैरागी-निर्मोही-विदेह। आर्कियोलॉजी पर उनके लिखे लेक्चर्स उन दिनों बीबीसी पे पब्लिश्ड होते थे। ऐसा ऑक्सफोर्ड रिटर्न जिसने मिथिला यूनिवर्सिटी के बद्तर हालात बदलने की कोशिश की। एक और इंटरेस्टिंग तथ्य की उनका असली नाम चंद्र नारायण झा था, बचपन मे खूब शरारती होने के बाद इन्हें गांव के ही एक आदमी के जैसा होने के कारण ‘लखन’ कहा जाने लगा, बीए के सर्टिफिकेट में भी लखन झा नाम था पर जब ऑक्सफोर्ड गए तो नाम लक्ष्मण झा कर लिया।
2000 ईस्वी में इनका निधन हो गया । आज इतना लंबा लिखने का एकमात्र कारण है की इन्हें श्रद्धाजंली देने का मन था, हर मैथिल को इन्हें जानना-समझना चाहिए और हर मैथिल-मिथिला-मैथिली अभियानी को इन्हें पूज्य समझना चाहिए। लगभग साल भर पहले ही ज्ञात हुआ की हमलोग एक ही दियादी में आते हैं और एक ही मूल के हैं। सतलखा-सतलखे से निकल कर दियाद का एक हिस्सा रसियारी चला गया और एक हिस्सा मकुनमा। अपने वंश के ट्रेस को ढूंढते हुए एकबार ये हमारे गांव आए भी थे और रहे भी कई दिन ।
आधुनिक मिथिला के सबसे तेजस्वी अंतिम विदेह स्वर्गीय श्री लक्ष्मण झा के सत-सत नमन।
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