चंद्रमा की दो संताने थी. एक पुत्र – पवन और दूसरी पुत्री – आंधी. एक दिन एक छोटी सी घटना पर पुत्री आंधी को यह लगा कि मेरे पिताजी सांसारिक पिताओं की तरह पुत्र व पुत्री में भेद करते हैं. चन्द्रमा अपनी पुत्री की व्यथा को ताड़ गये. उन्होंने पुत्री को आत्म निरिक्षण का एक अवसर देने का निश्चय किया.
चन्द्रमा ने आंधी और पवन दोनों को अपने पास बुला कर कहा – “तुम दोनों स्वर्गलोक में परिजात वृक्ष की सात परिकर्मा कर के आओ”. पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके दोनों चल दिए. आंधी सिर पर पैर रख कर दौड़ी, वह धुल, पत्ते व कूड़ा-करकट उड़ाती हुई स्वर्गलोक जा पहुंची और परिजात नामक देववृक्ष की परिक्रमा करके वापस लौट पड़ी. आंधी समझ रही थी की मैं पिता की आज्ञा का पालन करके जल्दी लौटी हूँ. अत: वे मुझे आवश्य ही पुरस्कृत करेंगे.
आंधी के लौटने के थोड़ी देर बाद पवन लौटा, पर उसके आगमन से सारा वातावरण सुगंध से महक उठा.
पिता चन्द्रमा ने आंधी को समझाते हुए कहा – “पुत्री निश्चित रूप से तुम्हारी गति तीव्र है, पर प्रश्न मात्र गति की तीव्रता की नहीं, सद्गुणों के विस्तार का भी है. गति की तीव्रता में तुम परिजात के निकट भी गई , परन्तु उसकी सुगंध साथ न ला पायी और खाली हाथ लौट आयी. इसीलिए जीवन में विकास का आधार मात्र तीव्रता को नहीं, वरन सुगंध भरे संतुलन को मानना.
यह कथा “कल्याण” से लिया गया है.
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