श्री देवी जवानी के दिनों में मेरी क्रश रही थी। अपना पूरा बचपन और किशोरावस्था मधुबाला के सपने देखते बीता था। उन सपनों पर कब श्री देवी काबिज़ हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। उनकी फिल्म ‘हिम्मतवाला’ मैंने ग्यारह बार देखी थी।
उनके स्वप्निल सौंदर्य, उनकी बड़ी-बड़ी आंखों और उनकी चंचल मासूमियत का जादू कुछ ऐसा सर चढ़ा कि उसके बाद मैंने ख़ुद से वादा ही कर लिया कि उनकी जो भी फिल्म लगेगी, उसका पहला शो मैं देखूंगा। ‘नगीना’ सात बार, ‘मिस्टर इंडिया’ पांच बार, ‘सदमा’ नौ बार. ‘लम्हे’ चार बार और ‘चांदनी’ तीन बार देखी थी। सामाजिक मर्यादाओं की वजह से बार-बार सिनेमा हॉल जाना संभव नहीं हो पाता तो घर में वी.सी.डी मंगाकर उन्हें देख लिया करता था। उनके प्रति दीवानगी ऐसी कि उनकी फिल्मों के किसी भी नायक को उनके साथ परदे पर देखना तक मुझे गवारा नहीं था। उन अभिनेताओं की जगह नायक के तौर पर खुद की कल्पना करके उनकी फिल्में देखता था। जिस दिन बोनी कपूर से उन्होंने शादी की, उस दिन सचमुच मेरा दिल टूटा था। यह सब बचपना था, लेकिन श्री देवी जैसी गिनी-चुनी अभिनेत्रियां ही हैं जो हमारे भीतर के रूमान और कल्पनाशक्ति को इस क़दर परवाज़ दे सकती हैं।
श्री देवी, आपका जाना बहुत उदास कर गया ! अगर अगला कोई जन्म होता है तो आप फिर फिल्मों की नायिका बनकर ही आना। आपको देखने के लिए टिकट खिड़की की लंबी लाइन में सबसे आगे मैं ही मिलूंगा।
आलेख : पूर्व आई० पी० एस० पदाधिकारी, कवि : ध्रुव गुप्त
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