शायर-ए-आज़म मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर 1776 को आगरा में हुआ था. इनका पूरा नाम मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” था. ये उर्दू एवं फारसी भाषा के महान शायर थे, ग़ालिब मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे. 1850 में बहादुर शाह जफ़र ने इनको, “दबीर-उल-मुल्क” और “नज़्म-उद-दौला” के खिताब से नवाज़ा. 15 फ़रवरी 1869 को मिर्जा ग़ालिब का अवसान हो गया. एक बार एक मौलाना ने ग़ालिब से पूछा जनाब खेरियत तो है ? तो ग़ालिब ने शायरी के अंदाज में जबाब दिया.
“दुनियां में गम है ! गम में दर्द है ! दर्द में मजा है ! और मजे…ज़े में हम हैं”
कुछ इस तरह मैंने जिन्दगी को आसं कर लिया,
किसी से माफ़ी मांग ली, किसी को माफ़ कर दिया.
– मिर्ज़ा ग़ालिब
मौत का एक दिन मुअय्यन है,
नींद क्यों रात भर नहीं आती.
-मिर्ज़ा ग़ालिब
ए बुरा वक्त जरा अदब से पेश आ,
क्योंकि वक्त नहीं लगता, वक्त बदलने में.
-मिर्ज़ा ग़ालिब
मेहरबां हो के बुला लों मुझे चाहे जिस वक्त,
में गया वक्त नहीं हूँ, की फिर आ भी न सकूँ.
-मिर्ज़ा ग़ालिब
तंगी-ए-दिल का गिला क्या वो काफ़िर दिल है,
की अगर तंग न होता तो परेशां होता.
-मिर्ज़ा ग़ालिब
हजारों ख्वाहिशे ऐसी की हर ख्वाहिस पर दम निकले,
बहूत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकलें.
-मिर्ज़ा ग़ालिब
रगों में दोड़ने फिरने के हम नहीं कायल,
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.
-मिर्ज़ा ग़ालिब
“जाहिद शराब पिने दे मस्जिद में बैठ कर,
या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं …..
मस्जिद खुदा का घर है, पिने की जगह नहीं,
काफ़िर के दिल में जा वहां खुदा नहीं ………
काफ़िर के दिल से आया हूँ, में ए देख कर,
खुदा मौजूद है वहां, पर उसे पता नहीं…..”
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