उनके पास व्यावसायिक फिल्मों की भाषा-शैली की समझ थी और उसे भुनाने वाला मैनरिज्म भी। परदे पर अपनी आत्मीय उपस्थिति, मासूम हंसी, चेहरे को तिरछा घुमाने और देह को एक ख़ास अंदाज़ में हिलाने-डुलाने की अदा ने देश के युवाओं के बीच उनके लिए क्रेज पैदा किया और वे व्यावसायिक सिनेमा की ज़रुरत बन गए। यह शशि कपूर का ‘जब जब फूल खिले’, ‘वक़्त’, ‘शर्मीली’, ‘चोर मचाए शोर’, ‘हसीना मान जायेगी’, ‘प्यार का मौसम’, ‘दीवार’, ‘कभी – कभी’, त्रिशूल और ‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’ वाला चेहरा था। इसके अतिरिक्त उनके व्यक्तित्व का एक और पक्ष भी था जिसे उनके पिता ने बचपन से ही उन्हें थिएटर से जोड़कर रचा था और जिसे अंतर्राष्ट्रीय थिएटर ग्रुप ‘शेक्स्पियाराना’ के सदस्य के तौर पर में दुनिया भर की अभिनय-यात्राओं ने तराशा। इन्हीं यात्राओ के दौरान ब्रिटिश अभिनेत्री जेनिफर से उन्हें प्रेम हुआ और मात्र बीस वर्ष की उम्र में शादी। अपने भीतर के कलाकार को अभिव्यक्त करने की चाह में व्यावसायिक फिल्मों के अलावा बीच-बीच में वे ‘हाउसहोल्डर’ ‘शेक्सपियरवाला’, ‘ए मैटर ऑफ़ इन्नोसेंस’, ‘हीट एंड डस्ट,’ तथा ‘सिद्धार्थ’ जैसी स्तरीय अंग्रेजी फ़िल्मो में भी अभिनय करते रहे। अपने पिता के देहांत के बाद उन्होंने ‘पृथ्वी थिएटर’ का पुनरूद्धार किया और नाटककारों को मंच देने की कोशिश में लगे रहे। अपने भीतर के कलाकार की मांग पर उन्होंने 1978 में अपने होम प्रोडक्सन कंपनी ‘फ़िल्म्वालाज’ की शुरुआत की। हिंदी के सार्थक सिनेमा को दिशा और विस्तार देने में इस प्रोडक्शन हाउस की बड़ी भूमिका रही है। उनकी बनाई फ़िल्में – ‘उत्सव’, ‘जूनून’, ‘कलयुग’, ’36 चौरंगी लेन’ सार्थक हिंदी सिनेमा की उपलब्धियां मानी जाती हैं।
सिनेमा में अपने अपूर्व योगदान के लिए सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान ‘दादासाहेब फाल्के अवार्ड’ पाने वाले अपने पिता पृथ्वीराज कपूर और भाई राज कपूर के बाद अपने खानदान के वे तीसरे व्यक्ति थे। अभिव्यक्ति के नए-नए रास्ते तलाशता यह बेचैन अभिनेता 1984 में कैंसर से पत्नी जेनिफर की मृत्यु के बाद अकेला पड़ गया था। पुत्र कुणाल और पुत्री संजना ने भी हिंदी फिल्मों में शुरुआत तो की, लेकिन उनके यूरोपियन चेहरों-मोहरों के कारण दर्शकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। अकेलेपन और अनियमित जीवनशैली ने धीरे-धीरे उन्हें बीमार किया और यही बीमारी उनकी मौत की वज़ह भी बनी। दिवंगत शशि कपूर को हार्दिक श्रद्धांजलि !
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