प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त हम भारतीयों के लिए विशेष दिन होता है। तीन राष्ट्रीय त्योहारों में से एक स्वतंत्रता दिवस हमें जश्न मनाने का सुअवसर प्रदान करता है। हरेक वर्ष हम इस दिन गुलामी,संघर्ष,आंदोलन,शहीदों और आजादी को याद करते हैं। इन तमाम उत्सवों और हर्षोल्लासों के बीच एक प्रश्न बार-बार हमारे जेहन में उठता है- क्या वाकई हम आजाद हैं?क्या यही हमारी वास्तविक आजादी है?
निस्संदेह 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन से हमें मुक्ति मिली या फिर दूसरे शब्दों में कहें तो हम संवैधानिक तौर पर आजाद हुए। सदियों से गुलामी की आग में सुलगते देश को अंग्रेजों के शासन से मुक्त कराना उस कालखंड में लोगों का एकमात्र उद्देश्य था, और इस उद्देश्य की प्राप्ति उस वक्त खुशियां मनाने का सही कारण भी प्रदान करता था। परंतु अब वक्त पूरी तरह से बदल चुका है। आज स्वयं से प्रश्न करने का समय है। स्वतंत्रता को व्यापक अर्थों में देखने की जरूरत है।
यदि हम गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत पूर्णतः स्वतंत्र राष्ट्र है, वहीं इसके नागरिक आंशिक रूप से ही आजाद हैं। वे वैचारिक और मानसिक तौर पर आज भी गुलाम ही हैं। हमारा देश जाति,धर्म,भुखमरी,कुपोषण,बेरो
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हमारा देश विकासशील है और जल्द ही हम इसे विकसित देशों की कतार में खड़ा करने का स्वप्न संजोए हैं। पर इसके उलट गरीबी और भुखमरी जैसा सच भी मुंह बाए खड़ा है। यह जानकर बड़ा ताज्जुब होता है कि देश की तकरीबन 20 करोड़ आबादी भूखे सोने के लिए विवश है। जिन लोगों ने अपने जीवन में कम-से-कम एक बार भरपेट खाना खाने का अत्यंत ऊंचा ख्वाब पाल रखा है उन्हें यह बताना सरासर मजाक करना ही होगा कि तुम लोग आजाद हो।
दूसरी ओर भारत एक कृषि प्रधान देश है। गांधी जी ने कहा था कि सपनों का भारत गांव में बसता है। समूचे देश की 70% आबादी कृषि पर आश्रित है। अन्नदाता भगवान कहलाने वाले किसान दूसरों की थालियां भरते-भरते अपनी ही थाली खाली कर बैठे। कर्ज के बोझ को ढोते-ढोते उनका आत्महत्या कर लेना निश्चय ही भारत माता के हृदय पर भयंकर आघात करता होगा। किसानों की आत्महत्या संपूर्ण देश के लिए गहन चिंता का विषय है।
इतिहास में भारत को विश्व गुरु कहा गया है। हमने अथर्ववेद के माध्यम से दुनिया को सिखलाया कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवताः”। कहने को हम सब आजाद हैं परंतु देश की आधी आबादी अभी भी अपने अस्तित्व को ढूंढ रही है। आज भी उन्हें बराबर का अधिकार नहीं मिल पाया है। स्त्रियां अभी कितनी सुरक्षित हैं यह बात भी किसी से छुपी हुई नहीं है। बलात्कार,हत्या और प्रताड़ना जैसे जघन्य अपराध हम सबों के लिए आम बात है। इस तरह की खबरों के हम लोग आदी हो चुके हैं।
हम अच्छी तरह से जानते हैं कि शिक्षा ही वह हथियार है, जिससे सामाजिक कुरीतियों को एवं मानसिक व वैचारिक कुंठाओं को दूर किया जा सकता है। किंतु शिक्षा की लचर हालत भी किसी से छुपी नहीं है। देश की एक बड़ी आबादी शिक्षा से वंचित है। वहीं शिक्षित युवाओं को रोजगार नहीं मिल पा रहा है। शिक्षित और कुशल युवा भी बेरोजगारी के आगोश में समाए हुए हैं। बदतर शिक्षा और बेरोजगारी देश के विकास पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाता है।
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अब थोड़ी सी राजनीति की बात करें। यह किसी भी राष्ट्र के लिए अनिवार्य तत्व है, परंतु मुझे यह कहने में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश के अधिकतर नेता लोग अपने कर्तव्य निर्वाह में पूरी तरह से असफल रहे हैं। राजनीतिक गलियारों से उठती तरह-तरह की खबरें स्तब्ध करता रहता है। देश की जनता केवल वोट बैंक बन कर रह गई है। ऐसा क्या हो गया कि आजकल “राजनीति” जैसा पवित्र शब्द एक गाली की तरह प्रयुक्त होने लगा है।
आज जब एक बच्चा तिरंगा की ओर देखता है तो उसे सब कुछ धुंधला दिखाई देता है। मैं पूछता हूं कि हवाओं में इस कदर धुंध क्यों है? बारूद की ढेर पर बैठकर सिगरेट पीना क्यों फैशन बनता जा रहा है?आम जनता,जिसके दामन में गरीबी,भुखमरी,आकाश छुती मँहगाई,शोषण,बेरोजगारी जैसे अनेकों अंगार पड़े हों,वो आखिर कैसे कहे कि वह पूर्णतः आजाद है? दंगा-फसाद,अंधविश्वास,आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसे रोग देश को खोखला करने पर आमादा हैं। न्यायालयों और कार्यालयों में लटकी बापू की तस्वीरें आंसू बहा रही हैं।
यूं तो वर्तमान समय में खुश होने के लिए वजह काफी कम है, परंतु हमें आशावादी होना चाहिए। केवल आँखें बंद कर लेने से समस्याएं खत्म नहीं हुआ करती। हमें देश और समाज के तमाम समस्याओं और कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। हमें अपने विचारों का स्तर ऊंचा करना होगा। जब देश के हर एक नागरिक के जीवन में सुकून और खुशहाली आएगी। देश के अंतिम व्यक्ति के होठों पर जब एक तृप्त मुस्कान होगी। तब जाकर हम सही अर्थों में आजाद होंगे।
दुष्यंत कुमार की इन चंद पंक्तियों के संग मैं अपने वकतव्य को विराम देना चाहूंगा-
हो चली है पीर पर्वत- सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में ही सही
हो कहीं भी आग,लेकिन आग जलनी चाहिए
जय हिंद! जय भारत!
आलेख : सुमित मिश्र ‘गुंजन’
बहुत सुंदर आलेख…. सुमित जी को बधाई.
सुमित जी, ये सत्य है कि गरीबी हटाओ का नारा, आजादी के बाद से अबतक नारों में और किसी राष्ट्रीय स्तर के समारोहों का नारा बनकर कागज के पन्नों पर ही सिमट सा गया है. सरकारी व्यवस्था का समुचित लाभ इन लोगों तक पहुंचने ही नहीं दिया जा रहा….जितनी भी योजनाएं बनी उच्च आय वालों ने आपस में बांट ली, गरीबों के हिस्से आई….. लम्बी-चौड़ी कतार !
अब इनमें भी चेतना जागृत हुई है. अभी-अभी मैं छह राज्यों का दौड़ा कर लौटा हूँ, मुझे -1% ही भिखाड़ी मिले ! इसे इनमें पनपी चेतना नहीं समझूँ क्या ?
जहां तक उन सोंच रखने वाले व्यक्ति की बात है, जिसकी कल्पना 70% आबादी हमारे गाँव में बसती है के संबंध में सोच कर देखें…. जो हल चलता है उसकी मुट्ठी में पड़े फफोलों को देखें, आप दर्द महसूस नहीं करेंगे सुमित जी, दर्द महसूसेगा, हल का पालो पकड़ने वाला….!
गाँव का दर्द वो क्या जाने जो जिसने कभी खेत का मेड़ देखा ही नहीं….. बहुत गरीब था वो, बैरिस्टरी विदेश से की…..अपनी खेती वाली जमीन बेचकर पढ़ाई की क्या ?
आजादी के बाद सदा पंचसितारा का लाभ पाया, वो किसान का दर्द क्या समझेगा…..
आजतक, जिसने भी किसान का मुद्दा उठाया है, गरीबों का मजाक ही उड़ाया है…. बहुत हुआ, गरीब भी समझने लगे हैं !