बदरंग होता बसंत


badarang hota basant2

बसंत के आगमन की पदचाप खोजते जब मैं प्रकृति की ओर उन्मुख हुआ तो कुछेक सरसों के फूल और गेंदें में मुझे बसंत सकुचाया सा मिला । फैलते कंक्रीट के जंगलों में कायदे से रखे गमलों तक पहुँचने में बसंत सहमा-सहमा ,घबराया सा लगा।

महुआ स्वयं अपने अस्तित्व की जंग में कराहता दिखा फिर मादक सुगंध कौन फैलाये । आम्रमंजरी पर रसायन के छिड़काव से थूथने फड़कने लगे और बिजली सी कौंधी “यह नहीं आम्रवन मधुशाला “। “कोयल की कूक” की कौन कहे “कौवे की काँव-काँव ” भी बामुश्किल सुनाई पड़ती हैं । ठंड से निज़ात मिली नहीं कि बढ़ते ताप में बसंत वाष्पीकृत हो गया है । तन की जलन ने मन को दग्ध कर डाला है । न आधार है न सहज अधर फिर केवल अतिरंजनाओं पर बसंत टिके कैसे ?

badarang hota basant

बसंत तलाशते मैं साहित्य के वातायन में भी झांका । सपाटबयानी वाली कविताओं से बसंत उसी तरह ग़ायब मिले जैसे छंद । साहित्य में किसानों की भांति प्रकृति से उपेक्षित बसंत भी आउट डेटेड हो चले हैं । बसंत के साथ ही कवियों की दुनियाँ में होने वाले हंगामें का शोर कब का थम चुका है और मैं बसंत ढूढ़ता फिर रहा हूँ ।

मैं अपने घर का बादशाह हूँ

बदलती जीवन शैली, काम के अधिक घंटे का दबाव, अवकाश के क्षणों में बड़े-बड़े माॅल में अनावश्यक खरीददारी में खुशी खोजती भीड़, तहरीफ के लिए नेट सर्फिंग के बढ़ते चलन से कद्र विहीन बसंत मुंह छिपाने को विवश है । बसंत,यौवन और प्रेम की त्रयी को कैरियर संवारने के बोझ ने होश उड़ा रखें हैं । सौन्दर्यबोध को अर्थबोध के पैनेपन नें बिंध दिया है ।

न जानें कब बसंत फिसलता सा प्रतिवर्ष आता है और नि:शब्द लौट जाता हैं । कोई नोटिस भी नहीं करता, चर्चा भी नहीं होती, आता भी है या नहीं कहा नहीं जा सकता । एहसास के तल पर सरसता का सूखापन फैलता जा रहा है……….।

काबर झील पक्षी अभयारण्य

कहीं मैं सिरे से ही तो गलत नहीं हूँ । विभिन्न भारी-भरकम समस्याएं सुरसा की तरह मुँह फैलाए खड़ी है और मैं बसंत ढूढने के बहाने जबरन अनदेखी का प्रयास तो नहीं कर रहा । अगर ऐसा हैं तो पलायनवादी प्रवृत्ति के प्रतिफल काफी गहरे होंगे ।


लेखक : निशिकांत ठाकुर 

Previous लो आज मैं कहता हूं - आई लव यू !
Next जब पहली बार मेरा परिचय "पेपर लीक" शब्द से हुआ

No Comment

Leave a reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *