खादी सिर्फ वस्त्र नहीं परिश्रम और स्वाभिमान का प्रतीक


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“खादी” का अर्थ है कपास, रेशम या ऊन के हाथ कते सूत, भारत में खादी या खद्दर हाथ से बनने वाले वस्त्रों को कहते हैं. इसका सूत चरखे की सहायता से बनाया जाता है. भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में खादी का बहुत महत्व रहा. गांधीजी ने 1920 के दशक में गावों को आत्मनिर्भर बनाने के लिये खादी के प्रचार-प्रसार पर बहुत जोर दिया था. सबसे पहले खादी के महत्त्व से भारतवासियों को इन्होंने ही अवगत कराया था. गांधीजी ने कहा था कि खादी का वस्त्र पहनना न सिर्फ अपने देश के प्रति प्रेम और भक्ति-भाव दिखाना है, बल्कि कुछ ऐसा पहनना भी है, जो भारतीयों की एकता दर्शाता है. उन्होंने इस प्रकार अंग्रेजों का ही नहीं, आम जीवन के काम आने वाली विदेशी वस्तुओं का भी बहिष्कार किया. गांधीजी ने कहा कि ‘स्वराज’ यानी अपना शासन पाना है तो ‘स्वदेशी’ यानी अपने हाथों से बनी देशी चीजों को अपनाना होगा. इसीलिए खादी स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक ही नहीं, बल्कि सच्चा भारतीय होने की पहचान भी कहलाई. इन्होंने लोगों को उत्साहित करते हुए कहा था, आप मेरे हाथ में खादी लाकर रख दीजिए, मैं आपके हाथ में स्वराज रख दूंगा.

खादी के कपड़ों की विशेषता

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खादी वस्त्रों की विशेषता है कि ये गर्मी और सर्दी दोनों ही मौसम के अनुकूल होते हैं. गर्मी के मौसम में ये पसीने को सोख लेते हैं, साथ ही मज़बूत होने के कारण सर्दियों में ये ठंड से भी बचाते हैं. ये वस्त्र जितने धोए जाते हैं, उतना ही इनका लुक बेहतर होता जाता है. यह मज़बूत कपड़ा होता है और कई साल तक नहीं फटता. ये त्वचा के लिए नुकसानदायक नहीं है. फहनने में इतना ख्याल जरुर रखा जाए की गर्मी के मौसम में हल्की खादी के बने और पेस्टल रंग के वस्त्र लें और सर्दियों में मोटी खादी के एम्ब्रॉयडरी किए गए परिधान पहनें.   

खादी और ग्रामोद्योग आयोग – KVIC

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“खादी और ग्रामोद्योग आयोग” भारत में खादी और ग्रामोद्योग से संबंधित सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग मंत्रालय (भारत सरकार) के अन्दर एक शीर्ष संस्था है. इसकी स्थापना संसद द्वारा पारित अधिनियम 1956 में की गई थी. तदुपरांत 1987 और 2006 में इस अधिनियम में संसोधन किए गए. इसका मुख्य उद्देश्य है – “ग्रामीण इलाकों में खादी एवं ग्रामोद्योगों की स्थापना और विकास करने के लिए योजना बनाना, प्रचार करना, सुविधाएं और सहायता प्रदान करना. इसका मुख्यालय मुंबई में एवं कार्यक्रमों का कार्यान्वयन करने के लिए 29 राज्यों में भी इसके कार्यालय हैं.

खादी के जन्म की रोचक कहानी

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महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में खादी के जन्म की रोचक कहानी बताई है. उनके अनुसार – हमे तो अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे. इसलिए आश्रमवासियो ने मिल के कपड़े पहनना बन्द किया और यह निश्यच किया कि वे हाथ-करधे पर देशी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनेगे. ऐसा करने से हमे बहुत कुछ सीखने को मिला. हिंदुस्तान के बुनकारो के जीवन की, उनकी आमदनी की, सूत प्राप्त करने मे होने वाली उनकी कठिनाई की, इसमे वे किस प्रकार ठगे जाते थे और आखिर किस प्रकार दिन-दिन कर्जदार होते जाते थे, इस सबकी जानकारी हमे मिली. हम स्वयं अपना सब कपड़ा तुरन्त बुन सके, ऐसी स्थिति तो थी ही नही. कारण से बाहर के बुनकरो से हमे अपनी आवश्यकता का कपड़ा बुनवा लेना पडता था. देशी मिल के सूत का हाथ से बुना कपड़ा झट मिलता नही था. बुनकर सारा अच्छा कपड़ा विलायती सूत का ही बुनते थे, क्योंकि हमारी मिले सूत कातती नही थी. आज भी वे महीन सूत अपेक्षाकृत कम ही कातती है, बहुत महीन तो कात ही नही सकती. बड़े प्रयत्न के बाद कुछ बुनकर हाथ लगे, जिन्होने देशी सूत का कपड़ा बुन देने की मेहरबानी की. इन बुनकरो को आश्रम की तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जायेगा. इस प्रकार विशेष रूप से तैयार कराया हुआ कपड़ा बुनवाकर हमने पहना और मित्रों मे उसका प्रचार किया. यों हम कातनेवाली मिलो के अवैतनिक एजेंट बने. मिलो के सम्पर्क में आने पर उनकी व्यवस्था की और उनकी लाचारी की जानकारी हमे मिली. हमने देखा कि मिलो का ध्येय खुद कातकर खुद ही बुनना था. वे हाथ-करधे की सहायता स्वेच्छा से नही, बल्कि अनिच्छा से करती था. यह सब देखकर हम हाथ से कातने के लिए अधीर हो उठे. हमने देखा कि जब तक हाथ से कातेगे नही, तब तक हमारी पराधीनता बनी रहेगी.

तो इस तरह खादी का जन्म हुआ. आज आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश और बिहार आदि राज्यों से लाए गए अलग-अलग तरह की खादी से तैयार किए गए कपड़ों से पश्चिमी और भारतीय दोनों तरह की पोशाकें तैयार की जाती हैं. इनमें मिनी स्कर्ट, कोट, जैकेट से लेकर साड़ियाँ, सलवार-कुर्ता, पायजामे वगैरह शामिल हैं. इससे लगता है कि खादी को आज के समय में प्रासंगिक और लोकप्रिय बनाने की कोशिशें जारी हैं. फिर भी, खादी की गुणवत्ता बढ़ाने और उसको बाज़ार में बेचने के लिए शोध और प्रयोग की आवश्यकता है.

फ़ैशन की दुनिया की जानी-मानी हस्तियाँ- ड्रेस डिज़ाइनर रितु कुमार, संदीप खोसला, अबू जानी और राकेश ठकोरे जैसे  डिज़ाइनरों ने भी आज़ादी की पोशाक  खादी को बचाने की लड़ाई में योगदान देने की मिसालें पेश की हैं. इन डिज़ाइनरों का मानना है कि आज-कल मशीनों द्वारा उत्पादन के ज़माने में हाथ से बनी हुई खादी पसंदीदा वस्तु के तौर पर पेश की जा सकती है. लेकिन, पुराने गांधीवादी विचारधारा के लोग इससे बेहद नाराज़ हैं क्योंकि उनके विचार से इससे महात्मा गांधी की सादगी और बहुजन हिताय जैसे आदर्शों को ठेस पहुंचती है. राजीव वोरा, गांधी शांति प्रतिष्ठान  का कहना है कि विलास की ऐसी चीज़ों से गांधी के नाम को जोड़ना उचित नहीं है. लिहाज़ा, खादी को लोकप्रिय बनाने का ये तरीका भी उन्हें रास नहीं आ रहा है. उनका कहना है कि खादी एक दर्शन, एक सोच है और इसे धनी लोगों के विलास की वस्तु बना देना ठीक नहीं है. डिज़ाइनर कपड़े तो अमीरों की अलमारियों में सजावट का सामान बन कर रह जाएंगे और फ़ैशन ख़त्म होते ही उतार कर फेंक दिए जाएंगे तो इससे बाज़ार और रोजगार कहाँ से बढ़ेगा ?

आँकड़ों के अनुसार भारत में लगभग पचास लाख लोग सीधे या परोक्ष रूप से हथकरघा उद्योग से जुड़े हुए हैं. इनमें से लगभग आठ लाख लोग पिछले कुछ वर्षों में अपनी ये छोटी-मोटी जीविका भी खो चुके हैं. इधर आप को याद होगा कि खादी और ग्रामोद्योग आयोग ने केंद्र सरकार को सुझाव दिया था  कि वह अपने कर्मचारियों को सप्ताह में एक दिन खादी के कपड़े पहनने को कहे. हर शुक्रवार अगर सरकारी कर्मचारी खादी के कपड़े पहनें, तो इससे देश के खादी और ग्रामोद्योग से जुड़े लोगों को बहुत फायदा हो सकता है.

अब विचार कीजिये कि केंद्र सरकार के कर्मचारियों की संख्या रेलवे और सेना के कर्मचारियों को छोड़कर 35 लाख के करीब है, अगर ये सभी एक-एक जोड़ी खादी के वस्त्र भी खरीद लें, तो खादी और ग्रामोद्योग आयोग को बड़ा फायदा होगा. ऐसा नहीं है कि सरकारी कर्मचारी खादी नहीं पहनते, लेकिन इसमें एक वर्ग भेद है. आला अफसर खादी या हैंडलूम के ऊंचे ब्रांड के कपड़े पहने मिल जाएंगे, लेकिन मंझले या निचले स्तर पर इनकी तादाद नगण्य ही होगी. लेकिन अगर सरकारी कर्मचारियों को खादी पहनने के लिए प्रोत्साहित किया जाए, तो यह अच्छी बात हो सकती है.

खादी का रिश्ता हमारे इतिहास और परंपरा से है. आजादी के आंदोलन में खादी एक अहिंसक और रचनात्मक हथियार की तरह थी. यह आंदोलन खादी और उससे जुड़े मूल्यों के आस-पास ही बुना गया था. खादी को महत्व देकर महात्मा गांधी ने दुनिया को यह संदेश दिया था कि आजादी का आंदोलन उस व्यक्ति की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आजादी से जुड़ा है, जो गांव में रहता है और जिसकी आजीविका का रिश्ता हाथ से कते और बुने कपड़े से जुड़ा है, और जिसे अंग्रेजी व्यवस्था ने बेदखल कर दिया है. अब खादी से जुड़ा यह इतिहास भी लोगों को याद नहीं है और वक्त भी काफी बदल गया है.

लेकिन इस वक्त भी खादी का काम करने वाले लोग समाज में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के ही हैं और खादी का इस्तेमाल बढ़े, तो इन्हें फायदा होगा. हुआ यह है कि अब खादी पहनना फैशन में नहीं है और आधुनिक तकनीक से बने वस्त्र खादी के मुकाबले सस्ते और सुविधाजनक भी हैं, इसलिए खादी पहनना काफी कम हो गया है. अब खादी से जुड़ी संस्थाएं और लोग खादी का आधुनिक समाज में प्रचलन बढ़ाने की कोशिशें कर रहे हैं. वे खादी को ज्यादा सुविधाजनक और नई रुचि व फैशन के मुताबिक बना रहे हैं और उसके लिए बाजार भी तलाश रहे हैं. अब प्राकृतिक और पर्यावरण के नजरिये से हानिरहित चीजों के इस्तेमाल का चलन बढ़ा है, इसलिए भी खादी की प्रासंगिकता बढ़ी है.

“खादी फॉर नेशन, खादी फॉर फैशन एवं खादी फॉर ट्रांसफॉर्मेशन”

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खादी को प्रमोट करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन अक्टूबर को आकाशवाणी पर ‘मन की बात’ कार्यक्रम में कहा था, “मैंने बताया कि खादी की बिक्री 125 फीसदी बढ़ी है. मैंने पिछली बार लोगों से खादी खरीदने की अपील की थी. मैंने कभी नहीं कहा कि खादीवादी बन जाओ, लेकिन मैंने कहा था कि कुछ खादी खरीदें. खादी की बिक्री में बढ़ोतरी हुई है. इन्होंने एक समारोह मे खादी को बढ़ावा देने के लिये नारा दिया था “खादी फॉर नेशन, खादी फॉर फैशन एवं खादी फॉर ट्रांसफॉर्मेशन”

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