दोपहर बीत चुकी है । फागुन की ठंडी हवाओं ने कब करवट ली और चैत्र मास के लूँ के थपेड़ों ने मन को विचलित करना शुरू कर दिया यह पता ही नहीं चला । दलान से…
कुर्सी निकाल पैरों को ऊंचे पायदान पर डाल लिखने ही बैठा था कि पीछे से खुर-खुर की आवाज ने सोच की तंद्रा को भंग कर दिया । एक गरीब महिला बड़े जतन से घास काट रही थी । हँसुआ के घिसने की आवाज मानो कानों में हरमोनियम की मनमोहक तरंग के भांति गुनगुनाने लगी । अकस्मात नजरे पीछे की तरफ उठ गई और उस अधेड़ उम्र की महिला की जीर्ण-सीर्न काया देखकर मन उदासी के गहरे वेदना में खो सा गया ।
हड्डियों के ढांचे में लिपटी उसकी काया, उलझे बाल और धसी हुई आंखें उसकी करुण कहानी कहने को बेताब थी । रोबोट की तरह सलीके से घास पर घिसटटी उसकी दोनों हाथ और चूड़ियां के रगड़ से निकलने वाली धुन में वह खोई सी 21वीं सदी के काल्पनिक विकास के दावों की पोल खोल रही थी ।
ज्यों-ज्यों घास काट वो आगे बढ़ती छोटे-छोटे घास के ढेर को यूँ सजा कर रखती मानो उसी में उसका सारा संसार सिमटा पड़ा हो । कुछ दूर पर रखी खाली टोकरी मुँह बाये भड़ने के इंतजार में उन करोड़ो गरीबों के भातीं लग रहा था जिनके जीवन में बदलते हुए वक्त ने निराशा के अलावा कुछ दिया ही ना हो ।
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उसकी दीन-हीन हालत देख मन उचट सा गया था । कल्पना के पंख दिल्ली और पटना के सत्ता के गलियारों में बैठे बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों के खोखले दावे का पोल आंखों के सामने खोले जा रहा था । विकास की व्यग्रता में पिसते इन करोड़ों लोगों का दो जून की रोटी जुटाने के खातिर किए जाने वाला रोज-रोज का संघर्ष दिल को द्रवित कर चुका था । घास काटते काटते वह भी दूर जा चुकी थी । दूर से आती हँसुआ और चूड़ी की मिश्रित ध्वनि अब धीमी-धीमी कानों को सुनाई दे रही थी । मानो कह रही हो कि 21वीं सदी के विकास के दावों का पोल हम कम आवाज में धीरे-धीरे ही सही लेकिन खोलेंगे जरूर ।
लेखक : अविनाश
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