अब कानों को सुनने से तो नहीं रोक लीजिएगा, तो हमने भी सुन लिया । यूं ही चलते चलते कोई कह रहा था कि हम मांगते हैं । जी हाँ पैसा । जब कानों ने सुन ही लिया तो दिल और दिमाग पर क्या बिता होगा वह तो पता नहीं लेकिन बता दूं…
की जो भी बोल रहा था वह 100% सही बोल रहा था । हुजूर हम मांगते हैं किसी के दरवाजे पर खड़े होकर कभी खाना, तो कभी किसी दुकान पर खड़े होकर कुछ पैसा और हां कभी-कभार कुछ बैनर पोस्टर और नाश्ता चाय भी मांग लेते हैं । कभी फेसबुक के जरिए भी कुछ पैसे मांग लेते हैं और सब कुछ पब्लिकली माँगते हैं तो पब्लिक बोलेगी ही ना । बोलने का अधिकार जो दिया है हिंदुस्तान के संविधान ने, सोचने समझने का नहीं न !
क्या करें साहब हम ठहरे कुछ दूसरे तरह के काम करने वाले क्रांतिकारी लोग । सच कहूं तो अच्छा नहीं लगता माँगना । कभी कभी खून सर्द हो जाया करता, सीता मैया के तरह धरती माँ उस शर्म और लज्जा को ढकने के लिए अपनी छाती चीर हमें समा भी नहीं लेती। तो हम ढीठ हो गए हैं । लेकिन दोस्त क्या आपने कभी सोचा सही में हम दरवाजे पर खड़े होकर पब्लिकली ही क्यों मांगते हैं ? पब्लिकली ही मांगते क्यों मिलते हैं ? दूसरे लोग और समूह भी काम करती हैं वह क्यों नहीं ? तो ज़रा गौड़ फरमाईयेगा । हम कभी ड्राइंग रुम में बैठ मांगने वालों के फौज में शामिल नहीं हुए तभी तो आपने भी प्रशन किया और आपके तरह हजारों लोग करते ही होंगे । हमें दरवाजे पर वही बचा-खुचा मिलता रहा फिर भी हम ड्राइंग रूम में नहीं गए । हमने समझौता नहीं किया अपने ईमान से, हम संघर्षशील रहे और गुप्त मीटिंग में मांगने से बचते रहें ।
तभी तो मिथिला में आज लोग हमारा नाम लेते हैं । आम जनता हमारे बारे में अच्छी बातें करती हैं ये भी हमारे कानों ने ही सुना है । हम जायज मुद्दा पर सीना ठोक सरकार को चुनौती देते हैं, जनता हित की को बेदी पर लटका अपना हित नहीं देखते, हम ड्राइंग रूम में जाकर क्रांति को नीचा नहीं दिखाते, एकांत कमरे में खरीदे नहीं जाते । हम लड़ते हैं, संघर्ष करते हैं, गरीब जनता के लिए, क्योंकि हमें पता है भूख की कीमत, जेब खाली होने के कीमत, थकान से चूर होने की कीमत और भी बहुत कुछ । लेकिन फिर भी बता दूँ हम दरवाजे और दुकान पर खड़े हो मांगते हैं तो लोग हमें हल्का समझ लेते हैं । क्या करियेगा आदत है ना । चोर, डकैत, बलात्कारी, रंगदार, ठेकेदार, गली के लुच्चे और लफंगे से ड्राइंग रूम में इज्जत बेचने की तो फिर हम तो दरवाजे भी नहीं लाँघते हुजूर और ऊपर से हम हिसाब जो देते हैं । उम्मीद करते हैं आप समझेंगे जरुर । हम मांगते हैं, मांगेंगे और तब तक जब तक हमारा मिथिला विकसित नहीं हो जाएगा ।
इंकलाब जिंदाबाद ! क्रांति अमर रहे ! लेखक : अविनाश भारतद्वाज ! 9852410622
Leave a Reply